हिन्दुत्व फासीवाद के दौर में समकालीन कविता
रविवार, १३ सितम्बर, लोधी
गार्डन, दिल्ली शाम 4 बजे आह्वान : एक जनवादी सांस्कृतिक मुहिम की ओर से ''हिन्दुत्व फासीवाद के दौर में समकालीन कविता'' विषय पर एक कविता पाठ का आयोजन किया गया। सौरभ कुमार ने कार्यक्रम को आगे बढ़ाते हुए संगठन से परिचय कराया और उसके दृष्टिकोण को सामने रखा। कार्यक्रम का संचालन बबिता उप्रेती ने किया। कार्यक्रम के मुख़्य अतिथि सुशील कुष्माकर और अभिषेक सौरभ रहे , जिन्होंने वर्तमान दौर में चल रहे फासीवादी ताकतों द्वारा अख्तिार किये जाने वाले विभिन्न तरीकों और पिछड़े व आदिवासी के अधिकारों के हनन व राजनीति के सच को अपने कविताओं के माध्यम से उजागर किया। इस क्रम में अभिषेक की कविता लालटेन बेचता हूँ , फ़रमान और जेनयू विश्वविद्यालय के कैडरों पर कटाक्ष करती तुकबंदी ने देशज व स्थानीय शब्दों का प्रयोग कर जमीनी सचाई को रखा वही सुशील कुष्माकर की कविताएँ सुनो शहंशाह सुनो , नींद मुझे भी नहीं आती , परिंदे , कुर्सिया , खिड़कियाँ , ख़ामोशी , तलाश जैसी कविताओं द्वारा इतिहास के पन्नों को पलटते हुए हमें सत्ता समीकरणों के बनते - बिगड़ते रिश्तों, साम्प्रदायिकता , विस्थापन ,विभाजन , उच्च वर्ग की जीवनशैली और तनाव भरे हताश - निराश माहौल में एक नयी जिंदगी की खोज करती कविताओं द्वारा वर्तमान समस्याओं से हमें रु-ब रु कराया। साथ ही सौरभ ने कवियों की कविताओं की समीक्षा करते हुए कविता की भाषा , कथ्य पर भी अपनी बात रखी कि किस तरह धीरे - धीरे सत्तर- अस्सी के दशक के बाद कविता को हिंदुत्व फासीवादी ताकतों के प्रभाव के कारण हिंदुस्तानी ( हिंदी- उर्दू ) के स्वरूप से बदलकर शुद्ध हिंदी के खाके में ढाला गया। वर्तमान में इसी शैली को आदर्श मनाकर विभिन्न दलित लेखकों नामदेव दसाल , वामा की लेखनों को मुख्यधारा की रचनाओं में नहीं गिना जा रहा हैं, केवल सौंदर्य बोध पर चर्चा की जा रही है । जबकि कविता केवल दर्द को बयां करने वाली ही न हो बल्कि हमें प्रेमचंद की कहानियों की तरह वास्तविकता को रखे और आगे का रास्ता भी दिखाए। इस बहस को आगे बढ़ाते हुए सुशील ने कहा की कविता की जो नयी शैली विकसित हुई है अब उसमें रिदम नहीं हैं , वह एक गद्य के रूप में है जबकि कविता पद्य में होना चाहिए। हमारे बीच उपस्थित युवा कवित्री भावना बेदी ने अपनी बात रखी और कहा की कोई भी कविता उस समाज के सामाजिक , राजनीतिक बुनावट से गुँथी होती है , उसे हम गद्य या पद्य की विधा में नहीं बांध सकते बल्कि उसमें केवल अपनी बात कहने का साहस होना चाहिए। साथ ही उन्होंने भगत सिंह की जेल नोटबुक से बी. एस. फिंगल की कविता पढ़ी और आरसीएफ के कल्चर एक्टिविस्ट हेम मिश्रा पर लिखी अपनी स्वरचित कविता ढपली पर सच उकेरती उँगलियाँ हमारे सामने रखी, वर्तमान में विभिन्न संस्कृतकर्मियों की गिरफ्तारी और हत्याओं का विरोध किया। अंत में कार्यक्रम में सहयोग व धन्यवाद ज्ञापन बबीता उप्रेती और ओमप्रकाश कुशवाहा ने दिया।
रिपोर्टिंग - प्रीती गुप्ता
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