Tuesday 13 October 2015

आज हजारों लेखकों और सांस्कृतिककर्मियों को आगे आकर जनवाद को मजबूत करने के कारवां को आगे ले चलने का समय है।

आह्वानः एक जनवादी सांस्कृतिक मुहिम का वक्तब्य

‘‘इतिहास में एक क्षण आता है जब खुलकर बोलना और पक्ष लेना पड़ता है। आज का समय ऐसा ही है।’’ नयनतारा सहगल ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस करते हुए जो बयान दिया उसका यह एक हिस्सा है। एम एम कालबुर्गी जो साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित थे, की हत्या पर सरकार, साहित्य अकादमी आदि की चुप्पी के खिलाफ बोलने वालों की संख्या लेखक, रंगकर्मी शामिल हो गये हैं।

 हिंदी के लेखकों में उदय प्रकाश, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, अशोक वाजपेयी ने साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस कर दिया है। के सच्चिदानन्दन, शिवदास सहित दर्जनों लेखकों ने पुरस्कार वापस करते हुए हिन्दुत्वादी फासिस्ट राजनीति को चुनौती दी है। लेखकों की ओर से उठाये गये इस कदम से निश्चय ही मोदी और आर.एस.एस गिरोह द्वारा चलाये जा रहे दमनकारी सरकार के खिलाफ खड़े होने वालों को साहस मिलेगा। 

‘‘आव्हान’’ लेखकों के इस कदम का स्वागत करता है और उनसे जनपक्षधर लेखन की उम्मीद करता है जिससे आज के समय की चुनौतियों को समझने और लड़ने और एक जनवादी समाज के निर्माण को बल मिले। 

शशी देशपांडे ने साहित्य अकादमी के पद से इस्तीफा देते हुए ठीक ही कहा है कि ‘‘चुप्पी समर्थन है’’। साहित्य आकदमी की चुप्पी कालबुर्गी के हत्यारों को समर्थन ही है। यह फासिस्ट विचारों को उकसाने की ही कार्यवाही है। सरकार चलाने वालों की लेखकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं की हत्या, अल्पसंख्यक समुदाय को अपराधी की संज्ञा में बदल देने और खुलेआम उन पर हमला पर चुप्पी साध लेना हत्यारों का खुला समर्थन ही नहीं उसमें षडयंत्रकारी भागीदारी भी है।

 बहुत दिन नहीं हुए जब मुरूगन ने खुद को मरा हुआ घोषित कर दिया। उस समय एक लेखक को चुप्प करा देने की घटना समाज में बढ़ रहे फासिस्ट गिरोहों के खतरनाक बढ़ावे को दिखा रहा था। आज यह बढ़ते हुए सरकारी संस्थानों तक चला आया है जिसकी नींव में लोकतंत्र, संविधान, कानून और न्याय जैसी अवधारणा होने की बात की जाती है। आज जो हो रहा है उसकी नींव में हिंदुत्व, फासिज्म, उन्माद और हत्या का मंजर दिख रहा है। यह खतरनाक स्थिति तब और बढ़ती जा रही है जब देश का प्रधानमंत्री चुनावी मुद्रा में अपनी पार्टी और हिंदुत्व विचारधारा को ललकारता हुआ घूम रहा है और जिसके सामने विपक्ष और धर्मनिरपेक्षता घटिया स्तर के जुमलों और बयानों और मिडिया के कवरेज में दबता जा रहा है। आज शासक वर्ग की सामूहिक पकड़ जो भारत में पार्टी और संसदीय रास्ते से राज करता है, की जगह एक गिरोह की पकड़ बढ़ रही है। यह एक खतरनाक स्थिति है जिसकी ओर इषारा खुद षासक वर्गीय पार्टियो के नेता भी करने लगे हैं।

ऐसे खतरनाक समय में लेखकों, कलाकारों द्वारा खुलकर बोलना एक उम्मीद पैदा करता है। आज जरूरत है एक जनवादी सांस्कृतिक आंदोलन को तेज करने और जनता के पक्ष में गतिविधियां तेज करने की। आज हजारों लेखकों और सांस्कृतिककर्मियों को आगे आकर जनवाद को मजबूत करने के कारवां को आगे ले चलने का समय है। आईये, जनता के साथ एकजुटता के लिए लेखन, गीत और एक खुली हुई आवाज में दमनकारी सरकार और फासिस्ट एजेंडे पर काम करने वालों के खिलाफ नारा बुलंद करें। इंकलाब--जिंदाबाद!!!

                                                                                                          

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