Thursday 14 April 2016

बिना दलितों के जनवाद नहीं, और बिना जनवाद के दलित मुक्ति भी नही!


बबीता उप्रेती
डॉ. भीमराव आम्बेडकर आधुनिक भारत के प्रमुख चिंतकों में ही नहीं बल्कि विश्व के चिंतकों में आज भी अपना स्थान बनाए हुए हैं। बाबा साहेब का जन्म महार जाति में होने के कारण ही उन्हें लोग अछूत और निचला वर्ग से मानते थे। बचपन से ही अपमान, गरीबी और सामाजिक भेदभाव को झेलते हुए ही, वे शैक्षणिक और दार्शनिक ऊँचाइयों तक पहुंचे। वे एक क्रान्तिकारी समाज सुधारक थे जो लोकतंत्र में विश्वास करते थे। उन्होंने घोर ब्राम्हणवाद के वर्चस्व को सीधे चुनौती दी, जिसने लोगों को नीचा दिखाने, अमानवीय जीवन जीने और दास बनने पर मजबूर किया।
आम्बेडकर मार्क्स के दर्शन से सहमत थे कि ‘‘दर्शनशास्त्र का कार्य विश्व को बदलना है’जैसा कि मार्क्स ने अपने शोध प्रबंधफ्यूरबैक’ में कहा था। उन्होंने इसे इस प्रकार देखा था कि विभिन्न वर्गों के बीच संघर्ष होता है और वर्ग संघर्ष सामाजिक संबंधों को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं। बाबा साहेब का तर्क था कि एक अच्छा समाज तभी अस्तित्व में पाएगा जब उत्पादन के साधनों पर बहुसंख्यक समाज का अधिकार होगा, और प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान अवसर होगें ताकि व्यक्ति अपना पूर्ण विकास कर सके। उन्होंने सत्ता पर नियंत्रण करने के लिए एक साधन के रूप में हिंसा की रणनीति का समर्थन किया और अच्छा समाज बनाने के लिए दृढ़ जन कारवाई का आहवान किया।
वे ब्राम्हणवादी विचारधारा के कड़े आलोचक थे। उनका तर्क था कि इसने सामाजिक संस्थाओं और संबंधों की व्यवस्था करने में श्रेणीबद्ध असमानता के सिद्धांत का समर्थन किया। इसी विचारधारा ने योग्यता के सिद्धांत की उपेक्षा की और जन्म के सिद्धांत को प्रोत्साहित किया; बुद्धि की उपेक्षा की और कर्मकाण्ड तथा पुरोहिती का समर्थन किया। इसने शुद्रो तथा अछूतों को शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकार से दूर कर, निम्न कार्यो की और धकेला और अमानवीय जीवन जीने पर मजबूर किया। इसने संसाधनों पर कब्जा किया, और सभी पदों के असमान वितरण का समर्थन किया है। इसने शारीरिक श्रम की उपेक्षा की और मानसिक श्रम की श्रेष्ठता के सिद्धांत को माना। वे मानते थे कि इस व्यवस्था में स्वतंत्रता और पसंद के लिए कोई स्थान नही है।
डॉ. आम्बेडकर गांधी के भी कटु आलोचक थे उन्होंने छूआछूत के उन्मूलन के प्रति गांधी के दृष्टिकोण पर प्रहार किया क्योंकि इसी दृष्टिकोण ने शास्त्रों से छूआछूत को खत्म करने पर मना किया। उन्होंने गांधी को ने केवल हिन्दू रुढि़वादिता के प्रति समर्पण करते देखा बल्कि नए सिरे से इस रुढि़वादिता का पुननिर्माण करते हुए भी देखा। आम्बेडकर ने गांधी द्वारा अछूतों को दिया गयाहरिजननाम अस्वीकार कर दिया
आम्बेडकर ने गांधी द्वारा प्रचारित की गयी अवधारणा अहिंसा, ट्रस्टी, खादी, और शाकाहार को अस्वीकार कर दिया। उन्होंने एक स्वस्थ समाज के लिए स्वतंत्रता, समानता को अनिवार्य माना, और उन्होंने दलितों के अलावा महिलाओ अल्पसंख्यकों के अधिकारों का भी समर्थन किया।
डॉ. आम्बेडकर का जाति के संदर्भ में तर्क था कि सामुदायिक बंधनों को संचालित किए बिना और स्वतंत्रता और समानता को प्रोत्साहित किए बगैर जाति का उन्मूलन प्रायः असंभव हो जाता है। उन्होंने इस उद्देष्य को पूरा करने के लिए अंतरर्जातिय विवाह का भी सुझाव दिया।
डॉ. आम्बेडकर केवल दलितों के उत्थान की ही बात नहीं कर रहे थे बल्कि भारतीय समाज में उत्पीडि़त सवर्ण तथा दलित महिलाओं की दयनिय दशा को भी गंभीरता से महसूस कर रहे थे। वह महिलाओं की आर्थिक और सामाजिक स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे। और वह जानते थे कि इस पितृसत्तात्मक ब्राम्हणवादी व्यवस्था में बिना कानून में अधिकार दिए महिलाओं की स्थिति में सुधार संभव नहीं है। इसलिए उन्होंने महिलाओं के हक मेंहिन्दू कोडबिल बनाया। इस हिन्दू कोड बिल के कारण ही बाबा साहेब को ब्राम्हणवादी हिन्दू कट्टर पथियों का भयंकर विरोध सहना पड़ा। उनके घर पर पत्थर तक बरसाये गये और संसद में भी उनका बहिष्कार किया गया। पर वह अपने अडिग विश्वास, हिम्मत और सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी महिलाओं के पक्ष में मजबूती से खड़े रहे। पुरूष प्रधान सत्ता पर प्रहार करते हुए इस बिल ने भारतीय महिलाओं को पुरूषों के बराबर कुछ कानूनी अधिकार दिए। इस बिल के कारण ही महिलाओं को तलाक, सम्पति में अधिकार, गुजारा भत्ता, गोद लेने की स्तंत्रता प्रदान की गयी।
जिस जातीय शोषण और वर्ग शोषण की लडाई बाबा साहेब 125 साल पहले लड़ रहे थे, वह शोषण आज भी जारी है। आए दिन दलित महिलाओं का बलात्कार, हत्या आम बात हो गई है। कुछ दलित छात्र जब कठोर मेहनत कर उच्च शिक्षा तक पहुंच रहे हैं, तो उन्हें प्रताडि़त किया जा रहा है या मारा जा रहा। हैदराबाद के छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या वह बीकानेर की छात्रा मेघा डेल्टावाल की हत्या का उदाहरण हमारे सामने है।
यह साम्प्रदायिक ब्राम्हणवादी फासीवादी सरकार अपने खिलाफ उठने वाली हर आवाज को दबा देने पर आतुर है, इसलिए इसने परंपरावादी विचारों का विरोध करने पर नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसारे कलबुर्गी की हत्या कर अपने फासीवादी चेहरे को बेनकाब किया है। और रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के खिलाफ जेनयू, हैदराबाद, बीएचयू जैसे विश्ववि़द्यालयों से बुलंद होती आवाजों को इसने देशद्रोही, राष्टद्रोही कहकर देश में एक बड़ा संकट पैदा करने की कोशिश की लेकिन देश की लोकतांत्रिक जनवादी ताकतों ने संगठित होकर उसकी इस मंशा को नाकाम कर दिया।
और वही दूसरी तरफ इन तमाम सरकारों की निजीकरण-उदारीकरण-भूंमडलकरण की नीतियों के चलते ही पिछले 15 सालों मे ढाई लाख खेतीहर मजदूर और किसानो ने आत्महत्या की है। छोटे-बड़े उद्योग बंद होने से लाखों की संख्या में मजदूर छंटनी का शिकार हो रहे हैं। छात्रों के सामने रोजगार का भयानक संकट खड़ा है। देश में सैकड़ों की संख्या में बच्चे कुपोषण से मर  रहे हैं। आए दिन महिलाओं के साथ बलात्कार, हत्या, छेड़छाड, घरेलू हिंसा हो रही है। सरकार आदिवासी, किसानों की जल-जंगल-जमीनों को हड़प कर बहुराष्टीय कंपनियों और बड़े-बड़े उद्योगपतियों को बेच रही है, और उन पर बांध, माल और बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों बनायी जा रही हैं। जनता के  प्राकृतिक सम्पदा को बचाने के लिए जब लोग आंदोलनरत् हैं तो उन्हें मारने के लिए बड़ी संख्या में पुलिस बल, सीआरपीएफ लगाई जा रही है, और इन जनविरोधी सरकारी विकास नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करने पर लोगो पर यूएपीए जैसे काले कानून लगाकर लंबे समय तक जेलों में रखा जा रहा है।
ऐसे वक्त में डॉ. भीमराव आम्बेडकर की प्रांसागिकता और भी बढ़ जाती है क्योंकि वह सच्चे लोकतंत्र के समर्थक थे। उन्होंने जाति व्यवस्था को ही खत्म करने का बेड़ा नहीं उठाया बल्कि  वह वर्गीय शोषण को भी खत्म करना चाहते थे। वो आजीवन सर्वाधिक उत्पीडि़त वर्ग और निम्न वर्ग के साथ मजबूती से खड़े रहें।
आज अभिव्यक्ति की तमाम विधाएं खतरे में है। दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं पर हमले तेजी से बढ़ रहे हैं और देश भंयकर संकट का सामना कर रहा है। ऐसे वक्त में देश की लोकतांत्रिक, जनवादी सामाजिक ताकतों को इस फासीवादी सरकार के खिलाफ अपनी आवाज को और भी धारधार तरीके से बुलंद करना होगा, लेकिन, ये जातिय शोषण और वर्गीय शोषण तभी जड़मूल समाप्त होगा जब हम एक सच्चे जनवाद की तरफ बड़ेगे, क्योंकि बिना जनवाद हासिल किए हुए दलितों, महिलाओं और ही अल्पसंख्यकों की मुक्ति है।

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