Thursday 6 October 2016

संस्कृतिकर्मियों को व्यवस्थाविरोधी भी होना होगा- सुंदर मरांडी!
- रूपेश कुमार
('भोर' पत्रिका अङ्क ४)

झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में जनवादी संस्कृतिकर्मी के रूप में प्रतिष्ठत सांस्कृतिक संगठन ‘‘झारखंड एभेनके संस्थापक सदस्यों में से एक काॅमरेड सुंदर मरांडी नहीं रहे। मात्र 50 वर्ष की आयु में 27 फरवरी को रांची के अस्पताल में उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली और अपने पीछे छोड़ गए, 2 पुत्र, 3 पुत्री एवं अपने चाहने वाले लाखों शोषित-उत्पीडि़त अवाम और अपने उन तमाम संस्कृतिकर्मियों को, जिसे उन्होंने अपने लगन, मेहनत व उच्च राजनीतिक दूरदर्शिता से तैयार किया था। जो आज भी उनके दिखाए रास्ते पर चलते हुए आदिवासी सभ्यता व संस्कृति पर हो रहे लगातार चैतरफा हमले के खिलाफ बड़ी ही मज़बूती से सभ्यता व संस्कृति की लड़ाई लड़ रहे हैं।


लगभग 27 वर्षों तक झारखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में होनेवाली जनसभाओं, पर्व-त्योहारों, यहाँ तक कि शादी-ब्याह में भी अपने गीतों व मांदल की थापों से जनता में राजनीतिक चेतना बढ़ाने वाले काॅमरेड सुंदर मरांडी झारखंड के गिरीडीह जिला के पीरटांड़ प्रखंड के चतरो गाँव के रहने वाले थे। झारखंड के प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी व उनके सहयोगी रहे जीतन मरांडी बताते हैं कि ‘‘उनका जन्म 8 मई 1965 ई. को एक बहुत ही गरीब परिवार में हुआ था। माता-पिता दोनों मज़दूरी करते थे। किसी तरह उनका घर चलता था। बदहाल आर्थिक स्थिति होने के बावजूद भी उनके पिता चाहते थे कि बेटा पढ़े, लेकिन उनको तो बचपन से ही गीत गाने का शौक था। किसी तरह उन्होंने दसवीं तक पढ़ाई की और इसके बाद ही वे शादी-ब्याह में घूम-घूमकर गीत गाने लगे। वे आदिवासी लोगों में जड़ जमा चुकी मांड़ी (लोकल दारू) के भी वे आदि हो चुके थे। इसी बीच स्थानीय माक्र्सवादी चिंतक रावण मुर्मू उर्फ भक्ति दा की नजर उन पर पड़ी और उन्हीं के बातचीत से कामरेड सुंदर मरांडी में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ। वह माक्र्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद से प्रभावित हुए और फिर उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा व जीवनपर्यंत वे इसी विचारधारा को फैलाने में लगे रहे।’’


जीतन मरांडी बताते हैं ‘‘आदिवासी सभ्यता-संस्कृति के बारे में वे बहुत जानते थे, इसी आधार पर ही गीत का निर्माण करते थे लेकिन उन गीतों में सामाजिक बदलाव का पुट स्पष्ट रहता था। कोई भी वाद्य यंत्र हो उसे वो बहुत ही अच्छी तरह बजाते थे, यहाँ तक कि बाँसुरी तो वे नाक से बजा लेते थे। उनके मांदल की थाप को सुनकर उनके जानने वाले दूर से ही जान जाते थे कि सुंदर बजा रहा है। उनकी लिखावट का क्या कहना, आज भी ‘‘झारखंड एभेन’’ के सभी कार्यकर्ता उन्हीं की लेखनी की नकल करते हैं। बांस की कूची से पोस्टर लिखना भी उन्होंने ही सिखाया था। संथाली, खोरठा, हिन्दी, नागपुरी, भोजपुरी व बांग्ला पर उनकी पकड़ अद्भुत थी। वे तेलुगु व नेपाली गीत सुनकर हुबहू गाते थे।’’

उनको याद करते हुए जीतन मरांडी बताते हैं ‘‘कार्यक्रम खत्म होने के बाद जब हम लोग समीक्षा बैठक करते थे तो वे इस बात पर ज़ोर देते थे कि इस कार्यक्रम का जनता पर क्या प्रभाव पड़ा? उनका सादा जीवन हम लोगों के लिए एक आदर्श था, उनका चला जाना नवजनवादी संस्कृति की लड़ाई के लिए एक अपूरणीय क्षति है।’’

कामरेड सुंदर मरांडी से मेरी पहली व आखिरी मुलाकात सितम्बर 2014 में हुई थी। काफी
जिन्दादिल इंसान थे वे। पहली ही मुलाकात में उनसे मेरी काफी बातचीत हुई। जिन्हें मैं यहाँ पर
एक घटना बताना चाहूँगा। सुबह-सुबह मैं नदी की ओर जा रहा था। एक जोर सी आवाज़ आई ‘‘सेताअ जोहार’’, तो मैंने भी जोहार-जोहार बोल दिया। बाद में उनसे बातचीत पर पता चला कि ‘‘सेताअ जोहार’’ का मतलब हुआ सुबह का नमस्कार। मैंने जब उनसे पूछा कि ‘‘आप जानते हैं कि मैं संथाली नहीं जानता हूँ तो फिर आपने संथाली में क्यों बोला?’’ उनका जवाब आज भी मेरे मन में घूम रहा है ‘‘मैं अपनी भाषा नहीं छोड़ सकता काॅमरेड!’’

वे 29 अगस्त को ही जेल से जमानत पर छूटकर बाहर आए थे। पुलिस ने उन्हें मानसिक रूप से प्रताडि़त किया ही था, साथ में निर्मम शारीरिक यंत्रणा भी दी थी, जिसके कारण उनके पीठ व सर में काफी दर्द रहता था। वे अपने इलाज में हो रहे खर्च के कारण काफी परेशान थे। अंततः 27 फरवरी को हुई उनकी मृत्यु को क्या कहा जाए? यह शहादत है। पुलिस की निर्मम पिटाई ने उनकी जान ले ही ली। काॅमरेड सुंदर मरांडी की शहादत झारखंड में और भी युवाओं को जल-जंगल-ज़मीन व अपनी अस्मिता को बचाने की लड़ाई की ओर आकर्षित करेगी, ये मेरा विश्वास है।

उनसे बातचीत का एक अंश हम प्रस्तुत कर रहे हैंः

प्रश्न. आप झारखंड एभेन से कब जुड़े ?
उत्तर. (मुस्कुराते हुए) झारखंड एभेन का गठन ही हम लोगों ने किया था। झारखंड में 1982 से ही नावा मार्शल (नई रोशनी) नाम से एक सांस्कृतिक संगठन ग्रामीण इलाकों में काम करता था, उसके सभी सदस्य पेशेवर संस्कृतिकर्मी थे। वे एक जत्थे में गाँव-गाँव घूमते थे। ये जत्था मेरे गाँव में भी आता था। उनका रिहर्सल व कार्यक्रम देखने हम लोग जाते थे। देखकर लगता था कि इनसे अच्छा तो मैं गाता हूँ। झारखंड आंदोलन का भी काफी प्रभाव था उस समय। लेकिन नावा मार्शल का गीत ‘‘काॅमरेड माओ ललकार रहा है, चलो आगे बढ़ो’’ ‘‘जागा रे जागा रे सारा संसार’’ जब सुनते थे, तो लगता था कि सीना फट जाएगा, शरीर में कंपकंपाहट होने लगती थी। मैं अक्सर इस गाने को गुनगुनाने लगा था, फिर भक्ति दा से बात हुई और मैं भी इस जत्थे में शामिल हो गया।

प्रश्न. झारखंड एभेन कैसे व कब बना?
उत्तर. 1989 ई. में झारखंड आंदोलन की सीमा एक तरह से स्पष्ट होने लगी थी और हम लोगों ने महसूस किया कि शिबू सोरेन व विनोद बिहारी महतो से झारखंड का निर्माण संभव नहीं है। इसके लिए एक क्रान्तिकारी धारा की जरूरत है और फिर अपने संगठन के नाम में भी ‘‘झारखंड दिखना चाहिए। 30-31 अक्टूबर 1989 ई. में गिरीडीह जिला के इसरी बाजार में एक बैठक के जरिए ‘‘झारखंड एभेन’’ का निर्माण किया गया।

प्रश्न. झारखंड एभेन को शुरुआत में किन समस्याओं का सामना करना पड़ा?
उत्तर. समस्याएँ आई लेकिन उतनी भी नहीं। हम लोग सभी गरीब परिवार से थे। आदिवासी भी
थे और गैर आदिवासी भी हमारे टीम में थे। हम गरीबों की समस्याओं के बारे में जानते थे। हम लोगों ने उन्हीं की समस्याओं पर आधारित गानों की रचना की। संथाली में व खोरठा में भी गीत लिखे गए। शहर के लिए हिन्दी में भी। जनता के घर में ही रहते थे, जो वो खाते थे, हम भी खाते थे।

कभी-कभी भूखे भी रहना पड़ता था। जनता के साथ खेत में काम भी करते थे क्योंकि दिन में सभी खेत में रहते थे, तो हम लोग भी वहीं चले जाते थे। उनकी मदद करते थे और गीत गाते थे। आज भी हमारे कई गीत जनता के मुँह पर है, वे धान रोपनी के समय हमारा ही गीत गाते हैं।
प्रश्न. आप लोग झारखंड से बाहर कहाँ-कहाँ कार्यक्रम किए?

उत्तर. 1989 ई. में केरल, 1993 ई. में कलकत्ता, 1995 ई. में बनारस, 1996 ई. में दिल्ली और तो याद नहीं है लेकिन देश के लगभग सभी राज्यों में हमारी टीम ने कार्यक्रम किया हैै। पश्चिम बंगाल के ग्रामीण इलाके में तो हमारी टीम एक महीने तक रही थी।

प्रश्न. आपको गाना लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिलती थी?
उत्तर. झारखंड में जब क्रन्तिकारियों का आंदोलन मजबूत हुआ, गाँव-गाँव में क्रान्तिकारी किसान कमिटी, नारी मुक्ति संघ बनना शुरू हुआ, तो खुद ब खुद नए-नए गाने विकसित होने लगे। गाना का निर्माण आंदोलन से ही हुआ।

प्रश्न. आपको पुलिस ने कब व कैसे गिरफ्तार किया?
उत्तर. 21 मई को मैं जंगल के रास्ते दूसरे गाँव जा रहा था, बीच में ही पुलिस ने मुझे गिरफ्तार कर लिया और हँसते हुए माओवादी कमांडर घोषित कर दिया। थाना से लेकर जेल तक में लम्बी पूछताछ और जमकर पिटाई भी की गई मेरी। मेरे पास से एक रिवाल्वर भी दिखाया गया। मैं जेल में भी अक्सर गाता था-

एक पागल आया रे
पागलखाना से जेलखाना में
एक थप्पड़ मारा तो, एक गीत गाया
दूसरा थप्पड़ मारा तो, फिर गीत गाया
अगर मेरे पास रिवाल्वर होता तो क्या होता ?
पुलिस की लाश होती और मैं आजाद होता...
29 अगस्त को ही जमानत पर छूटकर जेल से बाहर आया हूँ।

प्रश्न. वर्तमान समय में झारखंड में संस्कृतिकर्मियों के सामने क्या चुनौती है?
उत्तर. झारखंड का मतलब ही है यहाँ की बहुसंख्यक जनता, जिनका जीवन जल-जंगल-जमीन की लड़ाई के साथ ही जुड़ा हुआ है। आज चाहे केन्द्र की मोदी सरकार हो या झारखंड की हेमंत सरकार, ये सभी झारखंडियों से उनकी जल-जंगल-जमीन ही छीन लेना चाहते हैं और जो भी जल-जंगल-जमीन पर झारखंडियों के अधिकार की बात करते हैं, उनपर ये सरकारें उग्रवादी का लेबल लगा देती है।

झारखंड के संस्कृतिकर्मियों को सत्ताविरोधी ही नहीं बल्कि व्यवस्था-विरोधी भी होना होगा, उन्हें इस सड़ी-गली व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए अपने गीतों के जरिए नई पीढ़ी को तैयार करना होगा। संस्कृतिकर्मियों को झारखंड ही नहीं देश के पैमाने पर भी जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे देशवासियों के पक्ष में खड़ा होना होगा।

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