Saturday 29 October 2016

विनोद शंकर की कवितायें...

हार और जीत
1. 
विनोद शंकर
लड़ो अपने गुस्से में
लड़ो अपनी ख़ुशी के लिए
लड़ो युद्धों को हमेशा के लिए ख़त्म कर देने  के लिए
आओ लड़े -लड़े और सिर्फ लड़े
भगत सिंह के लिए
बिरसा मुंडा  के लिए
भीमराव अाम्बेडकर के लिए
यही एक मात्र रास्ता है
जिससे तय होगी हमारी खुशियां
पूरे होंगे हमारे सपने

छोडो इन घिसी -पिटी बातो को
तोड़ो इन रिश्ते-नातो को
जो डालती है हमारे पावों में बेड़िया
दफन कर देती है हमारी सारी खुशियां

जोड़ो अपना रिश्ता उस खून से जोड़ो
जो बहा था पेरिस कम्यून में
जो बहा था संथाल परगना में
जो बह रहा है आज भी हमारे जंगलो में

रुका कुछ भी नहीं है
झुका कुछ भी नहीं है
शोषण है तो संघर्ष है
दमन है तो प्रतिरोध है
अँधेरा है तो उजाला भी है
संहार है तो सृजन भी है

बस तुम आओ और जगह लो उनकी
जो शहीद हो गए लड़ते हुए
जिनके पांव थक गए है चलते हुए
फिर भी जो हमारे साथ आगे बड़ रहे है हँसते हुए

हमें एक साथी चाहिए
हमें एक दोस्त चाहिए
अगर तुम बन सकते हो तो बनो
अगर तुम हमारे चल सकते हो तो चलो
क्योकि हमारी हार और जीत सिर्फ हम पर नहीं
तुम पर भी निर्भर करता है की तुम क्या करते हो हमारे लिए


कीड़े

2.
यह उन्माद जो फैल रहा है
कभी गाय के नाम पर कभी देश के नाम पर
उसमें मैंने सुनी कुछ जानी पहचानी आवाज
देखे हैं मैंने कुछ जाने पहचाने चेहरे
जिनके बारे में मेरी राय कभी अच्छी नहीं रही
मैंने हमेशा माना है इन्हें
अपने मोहल्ले और कॉलेज के सबसे गंदे लोग

मुझे याद नहीं आता
कब इन्होंने अच्छा किया था
जबकि इनके बुरे कामों की जानकारी सबको है
कई बार तो मैंने खुद देखा है
इन्हें लड़कियों को छेड़ते हुए
छोटी-छोटी बात पर किसी के साथ
गाली गलौज और मारपीट करते हुए
किसी छुटभैये नेता के पीछे चलते हुए
दारू और मुर्गे पर बिकते हुए

आज इनके देशभक्ति के प्रदर्शन को देख कर
मुझे देश नहीं इनके बुरे काम ही याद आते हैं
जो मुझे यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि
कहीं ये फिर किसी को छेड़ने
धमकी देने या मारने तो नहीं निकले हैं

क्योंकि इनके नारों से
मुझे सड़ी हुई संस्कृति और सड़े हुए विचारों की गंध आती है
जिससे ये देश को नहीं खुद को ही बचाने निकले हैं
ताकि ये सड़ी हुई दुनिया कायम रहे
और जिससे यह कीड़े जिंदा रह सके
मैं जा रहा हूं

हमारी आंखों के सामने
एक संसार गढा जा रहा है
और एक संसार मिटाया जा रहा है
विकास के सागर में
एक गांव नहीं
एक शहर नहीं
एक पूरी दुनिया को डुबोया जा रहा है
जिसकी चीखों से गूंज रहा है आकाश
और धरती फटती जा रही है
फिर भी पूरे देश में विकास का गीत
गाया जा रहा है
जिसे सुनना उन चीखों से मुंह मोड़ना है
जो हमारे समय की सबसे मजबूत आवाज है

जिसमें सपना है संघर्ष है
दुनिया को बदलने का संकल्प है
ये आ रही है जंगलों से खेतों से कारखानों से
जिनके स्वर में स्वर में स्वर मिलाने के सिवा
आज कविता का कोई काम नहीं है
मैं जा रहा हूं
उनके गीतों को गाने
उनके संघर्षों में हाथ बंटाने

ओ मेरे देश
ओ मेरे लोगों
ओ मेरी मां
मैं तुम सब के लिए जी तो नहीं पाया
पर मरना चाहता हूं
मुझे क्षमा करना

अब मेरे पास बिल्कुल समय नहीं है
कि कुछ पल तुम्हारे साथ रहूं
तुम्हें प्यार करूं
मैं जा रहा हूं
तुम्हारे सपनों के लिए
तुम्हारी खुशियों के लिए
जिसके लिए अब तक भटकता रहा हूं
टुटपुंजिया नौकरियों के बहाने
खुद को बेचता रहा हूं
पर कहां तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान ला पाया
कहां तुम्हारे दिल की गहराइयों में ठहर पाया

इसलिए बाजार से नहीं
इस बार युद्ध से तुम्हारे लिए खुशियां लाऊंगा
जो कब का शुरू हो चुका है
न जाने कब से बुलावा आ रहा है
पर अब तक टालता रहा हूं
खुद को भ्रम में डालता रहा हूं
कि बिना लड़े भी जिया जा सकता है
जी तोड़ मेहनत करूं
तो क्या नहीं पाया जा सकता है
पर भ्रम तो भ्रम है
श्रम तो श्रम है
जिसमें खून पसीना बहता है
मैंने भी जी भर कर बहाया है
बदले में इसकी कीमत तो दूर
यहां इज्जत नहीं हासिल कर पाया

इस समाज में जीना
पल पल मरना है
जीते हुए वर्ग की अधीनता स्वीकार करनी है
जो अब मैं कर नहीं सकता
इसे सह नहीं सकता
बहुत रो लिया
गिड़गिया लिया
दया का पात्र बनने के लिए क्या क्या नहीं किया
पर इस समाज में दया एक माया है
जिसके हाथ में शासन उसकी छाया है
ये उसी पर पड़ती है
जो इसके नीचे झुकती है
फिर कभी नहीं उठता

आज मैंने जान लिया है
खुद को पहचान लिया है
कि मुझे रोना नहीं हंसना है सर झुकाना नहीं उठाना है
आंखों में आंखें डालकर बतियाना है
अपने होने का एहसास कराना है
कि मैं मरा नहीं जिंदा हूं
गुलाम नहीं आजाद हूं
दुनिया को सुंदर बनाने में

बराबरी का हिस्सेदार हूं



देश के लिए
3.

ओ मेरे देश
मै नही दूँगा
तुम्हे कोई उपदेश
मै नही माँगूंगा मन्नत
तुम्हारे लिए किसी ईश्वर से
और नही इंतजार करूंगा
किसी मसीहा का
की वो आयेगा
तभी मेरा देश आगे जायेगा
मै खूद तुम्हारे लिए
जीऊँगा और मरूँगा
मशाल की तरह जलूँगा
जब तक की अँधेरा मिट न जाये !

मै जाऊँगा
मिट्टी की खुशबू बचाने
मै जाऊँगा खेत में
धान के साथ विचारो की
फसल की रखवाली करने
जो हमे मुक्ति देगी
जिसे बोया है चारु ने
अपनी जान दे कर
सींचा है किशन जी ने
अपने ख़ून से

आज यह फसल
जैसे-जैसे बड़ी हो रही है
वैसे ही इसको खाने के लिए
जानवरो के हमले भी
बढ़ रही है
यह फसल सिर्फ जनता की है
और इसे जनता ही बचा सकती है
इसे महसूस कर रहे है
मेरे गाँव के लोग
मेरी माँ और मै भी
की आज हमे इन
जानवरो के हमले से
अपने विचार अपने खेत
और अपने जंगल को ही नही
इस देश को भी बचाना है

जो एक बार फिर घिर चुकी है भेडियो से
जो एक बार फिर निकल पड़े है
अपने हिंसक इरादों के साथ
देश को रौदने
जो एक बार फिर इसे पहुँचा
देना चाहते है उस काल में
जहाँ इंसान दास होगा
किसी देवता का
गायेगा गीत गुलामी का
जिसमे उसकी विवशता के अलावा
कुछ भी नही होगा


वैसे आज भी हमारे देश में
ऐसे ही गीतों और कविताओं
की भरमार है
जिसमे जिंदगी से ज्यादा मौत दिखती हैं
आशा से ज्यादा निराशा हैं
जो दुखो में डूबे मेरे देश को
और दुःख ही देती हैं
आज इसे चाहिए
सिर्फ आशा, विश्वास और प्यार
जैसे की भगत सिंह ने दिया
नक्सलबाड़ी ने दिया
अगर तुम नही दे सकते हो तो चुप रहो
आज देश के लिए
रोने का नही
हँसते हुए जान देने
और लेने का समय हैं !

 जवानी के दिन

4. 

ये हमारी जवानी के दिन हैं और हम खुश हैं
तमाम हताशा और निराशा के बावजूद
हमारे सपने मरे नही हैं
हमने तो अभी प्यार करना शुरू ही किया है

हमने अपने जवानी के दिनो को किसी जादूगर की तरह
जादू दिखाने में नही लगाया है
और न ही किसी जुआरी की तरह जुए पर दांव खेला है

हमने तो अपने जवानी के दिनों को
गेहू के दाने की तरह खेत मे बो दिया है
सूरज की तरह आसमान मे टाग दिया है

हमे अपनी जवानी के दिनों कि कीमत पता है
इसलिए हमने खुद को नहीं बेचा है
हमारे खून कि एक बूंद की तरह
हमारा एक-एक पल कीमती है
और इसे हमने उन्हें अर्पित किया है
जिनकी मेहनत से दुनिया चलती है

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