Monday 12 December 2016

गुब्बारे-

 राजाराम चौधरी की कहानी...

मुर्गे ने बाँग दे दी थी और मियाँ भी बोल चुका था। भोर की आवाजें, गली में, जहाँ-तहाँ सोये पड़े मर्दों की नींद में घुसकर मानों छेड़-छाड़ कर रही थीं, ‘‘उठ जाओ अब, चलो तैयारी-त्यूरी करो, काम पर जाना है न!’’ मर्द थोड़ा कसमसाते, फिर बेसुधी में उघड़ आये अंगों को वापस चादर के भीतर समेटते हुए, एक आखिरी झपकी ले लेने का प्रसास करते, पर औरतों के ऐसे नसीब कहाँ? उन्हें तो मर्दों से पहले उठ जाना है, झाडू-बहारू, चौका-बासन करना है, कलेवा तैयार करना है, और फिर मर्दों के साथ मिलकर, उनके दिहाड़ी पर निकलने की तैयारी करानी है।

शबनम उठ चुकी थी। उसने बगल में सोये हुए, छोटे भाई सलीम की ओर नजर डाली। उसकी आँखें खुली हुई थी और उसके होठों पर एक हल्की सी मुस्कान खेल रही थी। वह ऐसे ही आँखे खोले सोता है। शबनम को उसके भोले मुख पर प्यार हो आया। वह उसके नरम गालों को चूम लेना चाहती थी परन्तु नहीं, जाग जायेगा। जब तक वह चा-चू तैयार करती है, तब तक एक नींद और ले ले। तभी सलीम हल्के से खिलखिला पड़ा था। उसने करवट बदल ली है।

लाल-पीले, हरे-नीले, रंग-बिरंगे गुब्बारे आसमान में उड़े चले जा रहे थे। ये गुब्बारे उस जादुई छड़ी के सिरे पर बंधे हुए थे, जिसे थामे सलीम खुद भी उड़ा चला जा रहा था। तभी उसके अगल-बगल से बादलों का एक झुण्ड गुजरने लगा। बादलों के बीच लुकता-छुपता, नहीं, चाँद, नहीं एक महल जैसा कुछ, तेज़ी से पास चला आ रहा था। ओ ये तो वही है, नन्हीं लाल परी। वही तो है वहाँ, बारचे पर। ‘‘एइ, गुब्बारे वाले भइया’’ हाँ-हाँ वही पुकार रही है उस-सलीऽऽम’’

फट-फट-फट, सभी गुब्बारे फटने लगे थे। वह तेज़ी से नीचे गिरता चला जा रहा था, ज़मीन की ओर। धप्प की आवाज़ हुई और उसकी आँखें खुल गईं- खुली तो थी ही, जाग पड़ी। वह अपने बिस्तर पर था।

‘‘काम पर नहीं जाना है क्या?’’ शबनम बाजी की आवाज सुनाई दी। उसकी नजरें बरबस ही दालान के कोने की ओर चली गयीं। गुब्बारे लाल-पीले, हरे-नीले, रंग-बिरंगे, बाकायदा डंडे में बंधे हुए थे और डंडा कोने में खड़ा-खड़ा उसे मुँह बिरा रहा था, दोस्त की तरह।

‘‘चलो, हाथ मुँह धो लो। चा तैयार होने वाली है।’’ शबनम बाजी चूल्हे के पास बैठी हुई आटा गूँथ रही थी। अम्मी टाफी लपेटने के चमकीले छापेदार कागज समेट रही थी और अब्बू ठेला सजा रहे थे। पूरा घर दिहाड़ी की तैयारी में जुटा हुआ था। सलीम ने पानी की बोतल उठाई और घर के पिछवाड़े गड़हे की ओर चल दिया, फारिग होने।

सब्जी तैयार हो चुकी है, रोटियाँ बेलना बाकी है। चाय में उबाल आ गया था। शबनम ने भगौने को आँच से हटा-हटाकर चाय को तीन-चार उफान दिये और फिर काँच के गिलासों में चाय छानने लगी।
इस बीच सलीम हाथ-मुँह धोकर तैयार हो चुका था। अम्मी-अब्बू भी काम रोक कर चाय पीने बैठ गये। सलीम ने बंद का टुकड़ा चाय में डुबोया और खाने लगा। उसकी नजरें गली में उछल-कूद कर रहे कुतिया के पिल्ले पर थी। करिक्की ने हाल ही में जने थे। तभी शेरू की नाक पर एक मक्खी आकर बैठ गयी। सलीम ने ही इस पिल्ले को शेरू नाम दिया था। जो सबसे अधिक शरारती था। सारे घर में धमा-चौकड़ी मचा के रख देता था। 

सलीम ने चाय का घूँट मुँह में भरा ही था कि उसे हँसी आ गयी और उसके मुँह से चाय का फव्वारा छूट पड़ा। सबने अचकचा कर उसे देखा। उसकी नजरें शेरू पर जमी हुई थीं। सबकी निगाहें उधर ही घूम गयीं। शेरू और मक्खी के बीच आँख मिचौली का खेल चल रहा था। दोनों गोल-मोल चक्कर काटे चले जा रहे थे। अम्मी, अब्बू, शबनम तीनों की ही भौंहों पर बल पड़ गये थे। शबनम ने अपने होंठो भींच लिये। हवा उसके गालों को फुलाये जा रही थी, गुब्बारे की तरह। बेअख्तियार गुब्बारा फूट गया और शबनम भी खिलखिला कर हँसने लगी। अम्मी-अब्बू ने अपनी मुस्कानें छिपाते हुए सिर झटक दिये।

पूरा घर फिर काम पर जुट गया। सलीम ने टीशर्ट और पैजामा पहन लिया और ताखे में रखे हुए आईने के सामने खड़े होकर अपनी जुल्फें सँवारने लगा। उसका चेहरा ज़िम्मेवार और गम्भीर होता चला गया। अख़बार में लिपटे हुए कलेवे की पोटली जेब में ठूँस कर उसने हाथ में डंडा थाम लिया था जिसमें फुलाये हुए रंगीन गुब्बारे बँधे हुए थे। दूसरे हाथ में उसने बाँसुरी ले ली थी। अब वह काम पर जाने के लिए तैयार था। सलीम बारह साल का गबरू जवान, घर का कमासुत पूत। अब उसकी खेलने-खाने की उम्र नहीं रही थी। घर की साग-सब्ज़ी का इंतजाम उसी के जिम्मे था।

सलीम गली में निकल पड़ा और उसने बाँसुरी की तान छेड़ दी। काम सब कुछ सिखा देता है। बाँसुरी बजाते-बजाते वह कुछ फिल्मी धुनंे निकालने लगा था। रास्ता तय करते हुए वह खुद इन धुनों का मजा लेता रहता था। परन्तु ज्योंही वह किसी ऐसी जगह आ पहुँचता, जहाँ गुब्बारों के बिकने की संभावना होती, वह बच्चों को आकर्षित करने वाली तीखी पर मीठी धुन बजाने लगता।

एक दूसरे में गड्ड-मड्ड, झोपड़ियों, खपरैली कुठरियों, कच्चे-पक्के अधबने मकानों के बीच-बीच में बसती जा रही पक्के आलीशान भवनों-बंगलों और पार्कों वाली कॉलोनियों के भूगोल से वह अच्छी तरह से वाकिफ हो चुका था। काम ने उसे कम उम्र में ही बालिग बना दिया था।

नासमझ शिशु-उम्र को वह काफी पीछे छोड़ आया था, जब वह चन्द खिलौनों के लिए हुमक-हुमक कर रोते हुए, माँ-बाप द्वारा पढ़ाये जाने वाले पाठों को न समझते हुए, मन ही मन आँसुओं को पीते हुए आखिरकार चुप हो जाता। भला हो शिशु-ध्यान की अस्थितरता का; माँ-बाप उसका ध्यान बँटाने और कागज-तिनकों से उसे बहलाने में कामयाब हो ही जाते।

भूगोल के साथ ही साथ, वह समाजशस्त्रा भी समझने लगा था। गुब्बारे बेचने की कला सीखने के दौरान, वह प्रयास-त्राुटि, अनुमान-सूझ, बोध-तर्क आदि अधिगम के सभी तरीकों को अनजाने ही अपनाता जाता और बाल-मनोविज्ञान में उसकी पैठ बढ़ती ही चली जाती। उसने विभिन्न परिवारों की भिन्न-भिन्न आर्थिक स्थितियों के अनुसार मूल्य निर्धारण की विभेदकारी नीति भी अनजाने ही आत्मसात कर ली थी।
चित्रः सोमनाथ (तेभागा )

परन्तु फिर भी बच्चों के बीच पहुँच जाने पर उसका बचपन रह-रह कर मचल जाता। वह उसके उठते हुए सिर को ज़ोर से दबा देता और चेहरे पर काम-काजी भाव बनाये रखता। मोल-भाव के दौरान व्यवसायिक दाँव-पेंच चलते हुए, वह किसी भी हालत में अपनी कमजोरी भला कैसे दिखा सकता था। परन्तु इसके बावजूद लाल परी के सामने पड़ते ही वह सारी सुध-बुध खो बैठता।

शहद सी मीठी आवाज में वह पुकारती ‘‘एइ, गुब्बारे वाले भैया।’’ और वह सारी अक-बक भूल जाता। गोरा गुलाबी चेहरा, काली आँखें, लाल सुर्ख होंठ और गालों में पड़ने वाले नन्हें गड्ढे। दो चोटियाँ उसके कंधे पर लहराती रहती। स्कूल ड्रेस की सफेद शर्ट पर लाल धारियोंवाली टाई और बैच। जुराबों में कसे गोरे नाजुक पाँव जिन पर चुन्नटदार लाल स्कर्ट लहराता रहता। नन्हीं लाल परी ने उसे अपनी रंगीन चित्रों वाली पुस्तक दिखाई थी और वह सपने देखना सीख गया था। वह अलग ही दुनिया में पहुँच जाता। पर सपने तो सपने ही होते हैं।

कॉलोनियों में गुब्बारे बेचते-बेचते दस बज जाते तो वह बाज़ार में निकल जाता, जहाँ माँए अपने नन्हेें-मुन्नों को गोदी में थामें शॉपिंग कर रही होतीं। दोपहर होते-होते उसे भूख लग आती और तब वह चल पड़ता शिवाले की ओर। पुराने शहर में, सड़कों के भीड़-भड़क्के और बाज़ारों की आपाधापी के बीचों-बीच अभी भी कुछ सूनी शांत जगहें बची हुई थीं। पीपल-बरगद की घनी ठंडी छाँव के नीचे, वह एक पुराना शिवाला था। पास ही एक चॉपाकल थी, जो आज भी ठंडा मीठा पानी देती थी। वह शिवाले के ठंडे-चिकने चबूतरे पर बैठ जाता। गुब्बारों वाला डंडा चबूतरे के एक कोने में दीवार के सहारे टिका दिया गया होता। इतमीनान से वह शबनम बाजी द्वारा सहेजी गई कलेवे की पोटली खोलता। रोटी-प्याज और भुने आलू। कभी पालक का साग होता, कभी लहसुन की चटनी, और बाज दफे तली हुई मछली का पीस या कबाब भी होता।

दोपहर के भोजन के बाद वह बाज़ार के एक दो चक्कर लगाता, फिर शाम के चार बजते-बजते घर लौट आता। नहा-धोकर वह फिर से तैयार होता। अब वह अपनी एक मात्रा जींस पहनता। शर्ट इन करता और कमर पर बेल्ट कस लेता। गले में कालर के नीचे रंगीन रूमाल। बोले तो पूरा हीरो बन जाता अपनी जान में। ओ, तेरा ध्यान किधर है! वह साईकिल उठाता और चौक पर पहुँचता, जहाँ उसके अब्बू अपना ठेला लगाते थे। दरअसल उसके अब्बू खलील काका के साथ साझे में सस्ते रेडीमेड के कपड़े का व्यापार करते थे। ठेला अब्बू का था और कपड़े खलील काका बाहर से खरीद कर लाते थे। पूँजी खलील काका की थी, अब्बू की तो बस मेहनत थी। अब्बू के हिस्से जो भी आता, उससे घर का खर्च खींच-खाँच कर चल ही जाता। सलीम ने ये सीधे-सादे रहस्य, अब्बू, अम्मी की आपसी बात-चीत सुनकर जाने थे।

परन्तु लाख कान लगा-लगाकर सुनने के बाद भी वह बड़े भाई साहबों के रंगीन रहस्यों को नहीं जान सका था। शबनम बाजी और उसकी सहेलियों की खुसुर-पुसुर तो और भी अधिक रहस्मय लगतीं। खै़र सब जान लेगा एक दिन। एक दिन उसे भी गुब्बारों का डंडा छोड़कर किसी बड़े काम में लग जाना होगा। अभी तो वह अब्बू के ठेले के पास खड़े होकर ‘‘छाँटो-बीनो, पच्चीस रुपये’’ की हाँक लगाने में मशगूल रहता। वह पूरा गला खोल कर हाँक लगाता। उसके लिए यही खेल था- शाम का, द इवनिंग गेम। फिर चौक की सड़कों के पल-पल बदलते नजारे भी तो थे, जो रोज़-रोज़ दुनिया के नये-नये अजूबात से उसे वाकिफ कराते रहते थे।

हाँ, तो उस दिन भी रोज की भाँति वह दोपहरी का भोजन करने और विश्राम लेने के लिए शिवाले पर आन पहुँचा था। रोज़ की तरह उस दिन भी उसने दीवार के सहारे अपना गुब्बारों वाला डंडा टिका दिया था और चिकने-ठंडे चबूतरे पर बैठकर शबनम बाजी द्वारा दी गई कलेवे की पोटली खोल ली थी। अहा, आज तो मीट की बोटी भी है। वह खाने में तल्लीन था कि तभी उसकी नज़र सामने वाले शिवाले चबूतरे के परली ओर, दूसरे कोने में खड़े रंगीन गुब्बारों वाले डंडे पर जा पड़ी। उसने पलट कर देखा तो रंगीन गुब्बारों वाले अपने डंडे को बदस्तूर अपनी जगह खड़ा पाया। यह तो दूसरा डंडा है। प्रतिद्वन्दी!

अरे, यह तो बूढ़ा है। उसे घोर आश्चर्य और निराशा हुई। इससे दो-दो हाथ कैसे करेगा वह। बूढ़ा भी अपनी पोटली खोलकर बैठा हुआ दोपहर का भोजन कर रहा था। सिर झुकाकर वह निवाले मुँह में डालता और फिर चेहरा उठाकर जबड़े चलाने लगता। उसकी सफेद दाढ़ी निचले जबड़े के साथ-साथ ऊपर नीचे हो रही थी। उसने हरे रंग का एक लम्बा सा कुर्ता पहन रखा था और उसके सिर पर हरे रंग की एक गोल टोपी थी।

सलीम को लगा कि बूढ़ा उसकी ओर ही ताक रहा है। उसे लगा कि बूढ़ा उसे देखकर मुस्कुरा रहा है। तभी एक झटके के साथ बूढ़े का चेहरा, एकदम से, ऐन उसकी आँखों के सामने आ  धमका। ‘‘बाबा’’ उसके मुँह से बासाख्ता चीख निकल पड़ी। एक भयातुर मगर प्रसन्न चीख। उसने बचपन में ही मर चुके अपने बाबा को पहचान लिया- कसम से। नहीं, उसे अपने दादा की बिल्कुल भी याद नहीं थी। अम्मी-अब्बू और शबनम बाजी से उनके किस्से सुनता रहा था। 

अजनबी बूढ़े का चेहरा वापस अपनी जगह चला गया था। उसके भीतर रूलाई जैसा कुछ उमड़ रहा था। उसे लगा कि उसकी उम्र बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है। उसे नामालूम किस पर क्रोध आ रहा था। कोई और उसके भीतर समाता जा रहा था और बोल रहा था।

‘‘कैसा जमाना है यह, बूढ़े से भी काम करा रहा है। इसे तो अब सेवा-टहल की ज़रूरत है।’’ उसका जी चाह रहा था कि अभी उठे और बूढ़े का डंडा तोड़कर फेंक दे कहीं दूर। फूट जायें ये गुब्बारे सारे, लाल-पीले, हरे-नीले, रंग-बिरंगे गुब्बारे।

तभी वह डर गया। उसे लगा कि उसके अपने डंडे के गुब्बारे शोर मचा रहे हैं। गुब्बारे नहीं बच्चों के चेहरे थे ये। उनमें नन्हीं लाल परी का चेहरा भी था। ‘‘नहीं-नहीं मेरे प्यारों, मैं तुम्हें नहीं फटने दूँगा। लाल-पीले, हरे-नीले, गुब्बारे उसके इर्द-गिर्द नाच रहे थे।

तभी उसे लगा कि बूढ़े बाबा ने उसकी ओर इशारा किया है, उसे अपने पास बुला रहा है। उसने देखा कि बूढ़ा बाबा एक लाल लम्बे से गुब्बारे में हवा भर रहा है। फिर उस बाबा ने लाल, लम्बे गुब्बारे को ऐंठकर-मरोड़कर एक गोल-मटोल पंछी बना दिया है। पंख फैलाये हुए, गुब्बारे का यह पक्षी उड़ने को बेकरार है।

उसे लगा कि बूढ़े ने फिर उसकी ओर इशारा किया है उसे अपने पास बुला रहा है। सलीम मंत्र-मुग्ध सा उठ खड़ा हुआ और वह भयाकर्षण से बंधा हुआ बूढ़े के पास जा पहुँचता है। बूढ़े बाबा ने लाल गुब्बारे से बनी पक्षी की डोर उसके हाथों में थमा दी हैं, पंक्षी पंख फड़फड़ा रहा है, उड़ने की कोशिश कर रहा है। पंक्षी के साथ वह भी हल्के होकर, फुदक रहा है। उसके भी पंख आ गये हैं, जैसे।


इधर दादा-पोता खेल में मगन हैं और उधर दो कोनों में खड़े रंगीन गुब्बारों वाले डंडों ने एक-दूसरे को आँख मारी है। वे दोनों दादा-पोते का खेल देखने में मगन हो चुके हैं।

साभारः 'भाेर' पत्रिका

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