Tuesday 3 January 2017

देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली क्रान्तिकारी नेता: सावित्री बाई फुले का आज जन्म दिन है।

सावित्रीबाई फुले देश की पहली महिला अध्यापिका व नारी मुक्ति आंदोलन की पहली क्रान्तिकारी नेता थीं, जिन्होंने अपने पति ज्योतिबा फुले के साथ मिलकर देश में महिला शिक्षा की नींव रखी। उन्नीसवीं सदी में छुआ-छूत, सतीप्रथा, बाल-विवाह, तथा विधवा-विवाह निषेध जैसी कुरीतियां पूरे समाज में व्याप्त थीं। ऐसे समय में ही सावित्रीबाई फुले ने महिला शिक्षा की शुरूआत करते हुए घोर ब्राम्हणवाद के वर्चस्व को सीधी चुनौती दी। सावित्रीबाई का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में नायगांव नामक एक दलित परिवार में हुआ था।

सावित्री बाई का जन्म एक ऐसे समय में हुआ जब चारों तरफ अज्ञानता का अंधकार, कर्मकांड, वर्णभेद, जात-पात, बाल-विवाह, मुंडन तथा सतीप्रथा आदि कुप्रथाओं से सम्पूर्ण समाज व्यथित था। भारत के पुरूष प्रधान समाज ने शुरु से ही इस तथ्य को स्वीकार नहीं किया कि नारी भी मानव है और पुरुष के समान वह भी बराबरी की हकदार है, और उसका भी कोई स्वतंत्र व्यक्तित्व है। पंडित व धर्मगुरू नारी को कभी पिता, कभी भाई, कभी पति तो कभी बेटे के सहारे ही खड़ा करते रहे, और ऐसे दौर में एक दलित महिला तमाम कुरूतियों को तोड़ते हुए महिला अधिकारों के लिए आगे आयी और इस ब्राम्हणवादी समाज से टक्कर लेते हुए खुद भी शिक्षा हासिल की और समाज की तमाम वर्गों की महिलाओं के लिए शिक्षा के दरवाजे भी खोले। आज से 160 साल पहले इतने साहस के साथ सावित्री बाई ने समाज की रूढ़ीवादी परम्पराओं से लोहा लेते हुये कन्या विद्यालय खोले यह वाकई में एक बहुत बड़ा साहसिक काम था।

भारत में सबसे पहले नारी शिक्षा का विघालय महात्मा फुले ने अपने खेत में आम के वृक्ष के नीचे शुरु किया। यही स्त्री शिक्षा की सबसे पहली प्रयोगशाला भी मानी जाती है, जिसमें सगुणाबाई क्षीरसागर व सावित्री बाई विद्यार्थी थीं। सावित्रीबाई ने देश की पहली भारतीय स्त्री-अध्यापिका बनने का ऐतिहासिक गौरव हासिल किया। सावित्री बाई फुले न केवल भारत की पहली अध्यापिका थीं, अपितु वे संपूर्ण समाज के लिए एक आदर्श प्रेरणा स्त्रोत, महान समाज सुधारक क्रान्तिकारी नेता, प्रतिबद्ध कवयित्री, विचारशील चिन्तक और भारत में स्त्री आंदोलन की अगुआ भी थीं। सावित्रीबाई फुले ने हजारों-हजार साल से शिक्षा से वंचित कर दिए शूद्र आतिशूद्र समाज और स्त्रियों के लिए बन्द कर दिए गए दरवाजों को एक ही धक्के में मारकर खोल दिया। इन बन्द दरवाजों के खुलने की आवाज इतनी ऊँची थी कि उसकी आवाज से धर्म-पंडित डर गये और उन्हें अश्लील गालियां देनी शुरू कर दी, उन्हें धर्म डुबोने वाली कहा। यहां तक कि उनपर पत्थर एवं गोबर तक फेंका गया। सावित्री बाई और महात्मा फुले ने मिलकर सत्यशोधक समाजकी स्थापना की। इस संस्था की काफी ख्याति हुई और सावित्रीबाई स्कूल की मुख्य अध्यापिका के रूप में नियुक्त हुई।

सावित्रीबाई ने अपना संपूर्ण जीवन समाज के सबसे वंचित तबके खासकर दलित, महिलाएं के लिए लगा दिया जिनका उद्देष्य विधवा विवाह करवाना, छुआछूत मिटाना, महिलाओं की मुक्ति और दलित महिलाओं को शिक्षित करते हुए बराबरी में लाना था। सावित्रीबाई की मृत्यु 10 मार्च 1897 को प्लेग के मरीजों की देखभाल करने के दौरान हुयी।

आज से ठीक 160 साल बाद फिर शिक्षा पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। डब्ल्टूओं के साथ समझौता कर उच्च शिक्षा को अधिकार की जगह बिक्री का सामान बनाये जाने की तैयारी जोरों पर चल रही है। आजादी के इतने साल बाद उच्च शिक्षा से महिलाएं, दलित अल्पसंख्यक आज भी दूर हैं। क्योंकि उनके पास उच्च शिक्षा प्राप्त करने के संसाधन नहीं हैं। ऐसे में शिक्षा का डब्ल्टूओं की झौली में गिर जाना इन तमाम वंचित तबको का उच्च शिक्षा एक दूर के ढोल सुहानी चीजबन जाएगी। ऐसे में सावित्री बाई का संघर्ष और भी प्रासंगिक हो जाता हैं। हमें सावित्रीबाई के संघर्ष से प्रेरणा लेते हुए शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकार को बचाने के लिए एकजुट होना होगा तभी हम सावित्रीबाई के उस सपने को भी बचा सकते हैं जिसके लिए उन्होंने एक लंबा संघर्ष किया ।

वे एक सामाजिक कार्यकर्ता, होने के साथ ही एक कवियत्री भी थी उनके द्वारा एक लिखित एक प्रसिद्ध कविता है:
जाओ जाकर पढ़ो-लिखो
बनो आत्मनिर्भर, बनो मेहनती
काम करो-ज्ञान और धन इकट्ठा करो
ज्ञान के बिना सब खो जाता है
ज्ञान के बिना हम जानवर बन जाते हैं
इसलिए खाली ना बैठो,जाओ, जाकर शिक्षा लो
दमितों और त्याग दिए गयों के दुखों का अन्त करो
तुम्हारे पास सीखने का सुनहरा मौका है
इसलिए सीखो और जाति के बन्धन तोड़ दो
ब्राम्हणों के ग्रंथ जल्दी से जल्दी फेंक दो





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