Wednesday, 7 October 2015

नवीन सिंह की एक कहानी

बड़का साहब







           ट्विटर के माध्यम से भास्कर जी के आगमन की पूर्व सूचना प्राप्त हो रही थी फिर भी रामरतन अपनी निर्बाध निद्रा को गतिशील बनाये हुए था। बेशर्म किन्तु अति आज्ञाकारी अलार्म अपना हश्र जानते हुए भी निद्रा की गति को विराम देने हेतु अवरोधक बनकर आ खड़ा हुआ,परन्तु रोज की भाँति आज भी बैरियर तोड़कर गाडी आगे निकल चुकी थी। चिड़ियों का ट्विटर लोरी का काम कर रहा था। भास्कर जी का हीमोग्लोबिन कम हो रहा था और पीलिया बढ़ती जा रही थी, जिसके ज़्वर-ताप का असर रामरतन की निद्रा पर पड़ना स्वाभाविक था। रामरतन ने आँखें खोली तो देखा, दीवार पर टँगी घड़ी मुँह टेढ़ा किए 120  अंश का कोण (8 AM ) बना रही थी।
       रामरतन ने झल्लाते हुए कहा 'उफ़ ,आज भी सुबह उठने का संकल्प अधूरा रह गया.'
   तेजी से उठकर बाथरूम के पास पंहुचा तो देखा दोनों बाथरूम के दरवाज़े बंद थे। अंदर से पानी गिरने की आवाज़ आ रही थी।
 'अरे यार, इन लोगो को भी इसी समय उठना होता है, 9 बजे से मेरी कोचिंग है। आधे घंटे से ये लोग पता नहीं किस अनुसन्धान में व्यस्त हैं।'
      रामरतन ने आवाज़ लगाई - भैय्या ! जल्दी कीजिये,मुझे कोचिंग जाना है।
अंदर से आकाशवाणी हुई - " रोका किसने है ? जाओ न कोचिंग। दोपहर में सोकर उठेंगे ऊपर से जल्दबाज़ी भी दिखाएंगे। सारा कोर्स ख़तम करके ही हम बाहर आएंगे। थोड़ी देर दबा के रखो.……… उतावलेपन को।
          इलाहाबाद के लगभग हर लॉज में यह प्रातःकालीन दृश्य कॉमन है। इसलिए यह अनोखा लॉज नहीं था। बारह कमरो के लिए मात्र दो समाधान केंद्र थे। संडास व स्नानागार का प्रवेश द्वार एक ही था। जो व्यक्ति इसमें एक बार एडमिशन लेता वह पी.एच.डी. कम्पलीट करके ही बाहर आता था। लॉज के भूतल पर भवन स्वामी का बसेरा था और ऊपरी तलों पर किरायेदारों का। एक कमरे में दो व्यक्तियों का ही रहना नियमानुकूल था,परन्तु रामरतन अकेला ही रहता था। किराया दो लोगो का देता था क्योकि कमरा डबल सीटर था। इसका आशय यह नहीं कि वह पैसेवाला था बल्कि हकीकत यह थी कि उसे सिंगल रूम नहीं मिल पाया था। उसे जल्द से जल्द एक रूममेट की तलाश थी।
          एक माह पूर्व ही रामरतन इण्टर पास कर गाँव से शहर आया था। गावों में दूरदर्शन शहरी व शिक्षित समाज का दिव्यदर्शन दशकों से करा रहा था,फिर भी शहरों के रंग-ढंग में रंगने में उसे अधिक कठिनाई हुई। रामरतन एकदम तरोताज़ा युवा था। उसकी आँखों में ' बड़का साहब ' बनने के सपने थे। इसके लिए वह कड़ी से कड़ी मेहनत करने को तैयार था।
 गरीब के पास मेहनत के अलावा दूसरी पूँजी ही क्या होती है? गरीब व अमीर की पहचान का आसान तरीका है - " जो मेहनत कर रहा होता है, गरीब होता है। जो आराम कर रहा होता है, अमीर होता है।"
        रामरतन के पिता रघ्घू एक किसान थे। इनका वास्तविक नाम रघुनाथ था। किसान को सम्मान देने से सम्मान का महत्व कम हो सकता है, यह सोचकर लोग उसे रघ्घू बुलाते थे। पैसा जाने पर लोग कबाड़ी को भी श्रीमान कबाड़िया बुलाते हैं। राम जी की कृपा से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई,मानकर ही पुत्र का नाम रामरतन रखा। परिवार में छोटी बहन सुषमा व माँ श्यामा भी थी। रघ्घू के पास मात्र एक बीघा ज़मीन थी। किसी तरह साल भर रोटी का इन्तज़ाम हो जाता था। खेती में लागत व आगत में बहुत कम अंतर होता है। रामरतन के पिता मुरलीधर के वंशज थे,अतः कामधेनु विरासत के रूप में द्वार की शोभा बढा रही थी। रामरतन के पिता कामधेनु की सेवा करते और वेतन स्वरुप 8 लीटर दूध सुबह व 8 लीटर शाम को प्राप्त करते थे। इसी के सहारे रामरतन को इलाहबाद भेजा गया ताकि कोई मज़बूत सहारा मिल सके। रामरतन के लिए यह चुनौती थी की वह दूध का क़र्ज़ कैसे अदा करता है ?
          कोचिंग में रामरतन की भेंट गोपाल से हुई। गोपाल भी निजी कमरे के अभाव में अपने किसी परिचित के पास परजीवी बनकर रह रहा था। अतः गोपाल ने रामरतन के साथ रहने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
         गोपाल की आर्थिक स्थिति कुछ बेहतर थी। पिता जी रेलवे में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी थे। घर में कोई अन्य सदस्य नहीं था।
         भोजन के लिए दोनों ने काफी मसक्कत के बाद सबसे सस्ते टिफ़िन वाले को खोज निकाला था। 800 रूपये में महीने भर के खाने का इंतज़ाम हो गया। दोपहर व शाम को टिफ़िन कमरे पर ही आ जाता था। सुबह थोड़ा सा गरीबदाना ( चना ) खाकर कोचिंग में ज्ञान व क्षुधा के मध्य सामंजस्य स्थापित करते थे।
               रात को टिफ़िन वाला टिफ़िन देकर चला गया। रामरतन और गोपाल साथ में खाने के लिए बैठे। टिफ़िन खोलते ही रामरतन की आँखें भर आयीं। उसने घर पर कभी एक साथ सब्ज़ी,दाल,चावल,रोटी और सलाद नहीं खाया था। सुबह दूध-चावल व रात में रोटी-घी-नमक ही मिलता था। 'घी' स्नेहक ( ग्रीस  ) के रूप में रोटी को अंदर ले जाने का साधन मात्र थी। दाल व सब्ज़ी कभी-कभी ही बनती थी। खाते-खाते पिता की वह बात याद आ गयी जो उन्होंने उसे बारहवीं में अव्वल आने के बाद कही थी - " बेटवा ,हम तौ आपन ज़िन्दगी भूसा , गोबर के साथ माटी कइ दिहा ,लेकिन तू पढ़-लिख के 'बड़का साहब' जरूर बना।"
             "बड़का साहब " से रघ्घू का का मतलब सिर्फ इतना था की वह व्यक्ति जिसे धूप में खड़े होकर हल चलाने से नहीं बल्कि छाँव में बैठकर कलम चलाने से पैसा मिलता है।
             कोई भी किसान कभी ख़ुशी से किसान नहीं बनना चाहता क्योंकि खेती में हर समय अनिश्चितता बानी रहती है। मेहनत करने के बाद भी फैसला भाग्य के हाथ में होता है।
        रामरतन 10 +2 स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा था। इसकी जानकारी गाँव के ही एक सज़्ज़न संतोष ने दी थी। संतोष गाँव के ही एक निजी विद्यालय में अध्यापक थे। 4-5 वर्ष पूर्व संतोष भी बड़का साहब बनने की आस लिए शहर आये थे। 3-4 ट्यूशन पढाकर शहर में अपना वज़ूद कायम किये थे। मेहनती और कुशाग्र होने के कारण तीन बार साक्षात्कार के लिए बुलाये गए। साक्षात्कार-कर्त्ता इतने ज्ञानी होते थे की उनके निर्धारित मानको में ज्ञान गौण था।तीनो बार विफल होने के बाद संतोष को लगा हम लोगों की जगह गाँव में ही है। अतः संतोष ने संतोष कर गाँव जाकर ही अगली पीढ़ी को मार्गदर्शन देने का निश्चय किया। इन्होने ही रामरतन को शहर जाने को प्रेरित किया। कोचिंग में प्रवेश दिलाने के साथ-साथ अपनी प्रतियोगी पुस्तकें ,घडी,अलार्म घडी व कुछ अन्य जरुरी चीज़े भी दी थी।
             रामरतन संतोष जी के बताये रास्ते पर पूरी निष्ठा के साथ चल रहा था। रात को बारह बजे तक पढता और सुबह 4 बजे से उठकर पढ़ने लगता।
गोपाल दस बजे ही सो जाता और सुबह 8 बजे सो कर उठता। ऐसा ही क्रम चलता रहा और एक दिन  परीक्षा भी संपन्न हो गयी।              दोनों मित्र परीक्षा देकर शाम को कमरे पहुंचे। खाना-पीना भूलकर लगातार प्रश्नों का हल ढूँढ़ते रहे। अंत में पाया गया कि रामरतन के 100 प्रश्नों में से 85 व गोपाल के 45 प्रश्न सही हैं। रामरतन ने थोड़ी चिंता ज़ाहिर की,पर गोपाल निश्चिन्त था। सरकार की एक योजनानुसार रेलवे के चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपने पुत्र को अपना पद प्रदान कर सकते थे,इसकी विधिवत जानकारी गोपाल को हो चुकी थी।                   गाँव में धान की फसल पक चुकी थी और कोहरे ,पाले से बचने के लिए किसानों के घर जाने का रास्ता देख रही थी। रघ्घू ने कल से फसल काटने की तैयारी बना रखी थी। रात में ओलावृष्टि ने लगभग आधी फसल नष्ट कर रघ्घू का काम आसान करने की कोशिश की। रघ्घू प्रकृति की ऐसी मित्रता बहुत बार देख चुका था।             "खाय खातिर अन्न तौ होइ जाइ , बस खाद-पानी के बदे तनी- मनी मजूरी करे पड़ी" रघ्घू ने श्यामा की घबराहट को देखते हुए कहा। श्यामा को अधिक उपदेश देने की ज़रूरत रघ्घू को नहीं महसूस हुई क्योंकि उसके पास भी बचपन से ही आँखें थी। श्यामा को भी थोड़ी बहुत मज़दूरी और ज़्यादातर भरोसा कामधेनु पर था।
           अपनी बची फसल से प्राप्त अन्न को घर में सुरक्षित रखकर दोनों मज़दूरी में लग गए। पुनः कलयुग ने अपने सबल होने का प्रमाण देते हुए निर्बल परिवार पर एक और प्रहार किया। कामधेनु अचानक बीमार पड़ गयी। ओझा जी ने दो-तीन दिन तक झाड़-फूंक किया। अंग्रेजी पशु-चिकित्सक पाँव भर आटे में संतुष्ट नहीं हो सकता था। होनी को होने से कौन रोक सकता है ? कामधेनु बैकुंठ सिधार गयी।            महीने का आखिरी दिन था। गोपाल को पिता की राज़गद्दी सँभालने का अवसर आ गया था। अब वह कमरा छोड़कर प्रशिक्षण हेतु जा रहा था।         ' बहुत-बहुत बधाई दोस्त, अब तो साहब बन जाओगे लेकिन अपने दोस्त को भूल मत जाना ' कहते हुए रामरतन उसके गले लगा और भावभीनी विदाई दी। गोपाल के जाते ही रामरतन को ख्याल आया की अब नया रूम मेट कहाँ मिलेगा ? नही मिला तो -------? सोचते ही, जो आंसू खिड़की से हाथ हिलाकर दोस्त को विदाई  रहे थे, अचानक भूकम्प के भय से नीचे कूद पड़े।            अगली सुबह रामरतन ट्रैन पकड़कर घर को रवाना हुआ। उसे घर की किसी घटना की जानकारी नहीं थी। घर पहुंचते ही उसे ऐसा लगा जैसे घर पर त्सुनामी ने सब कुछ उजाड़ दिया हो। द्वार पर कामधेनु नहीं थी। माता-पिता की हालत ऐसी थी जैसे वर्षो से भोजन नही मिला हो। उसकी आँखों से आंसू बहने लगे। मन में पश्चाताप कर रहा था कि ' मैं वहाँ आराम से रह रहा था और यहॉ मॉ-पिता कष्ट झेल रहे थे। अब शहर नहीं जाऊँगा।' रघ्घू ने समझाया कि जो भाग्य में लिखा है उसे कोई टाल नहीं सकता इसलिए वह शहर जाकर पढाई करे। इसके लिये रघ्घु ने खेत अधिया उठाने का भी निश्चय कर लिया था। रामरतन नहीं माना। वह भी माता-पिता के साथ दूसरों के खेत काटने जाने लगा।
              संतोष जी सुबह-सुबह विद्यालय जाने के लिए निकले। रघ्घु के घर के पास पहुंचकर आवाज लगाने ही वाला था कि देखा रामरतन बरामदे में बैठकर सुषमा को पढ़ा रहा था। संतोष ने कहा - अरे रामरतन ! कब आये ? घर आये और हमसे मिले भी नहीं। रामरतन नमस्ते करके खडा हो गय़ा ,पर आगे कुछ बोलता उससे पहले आँसुओं ने वाचालता दिखा दी। संतोष जी स्थिति को समझ चुके थे। बोले - कम से कम  एक बार मुझसे  मिल तो लेते। पता है की नहीं तुम्हारा बैंक का परिणाम आ गया है। कल ही डाकबाबू ने तुम्हारा पत्र मुझे दिय़ा था। बधाई हो....अब साक्षात्कार की तैय़ारी में लग जाओ।

         रघ्घू और श्यामा को  ऐसा लग रहा  था जैसे संतोष जी साक्षात्कार पत्र नहींं बल्कि कामधेनु लेकर आए हों।

             संतोष को  अतीत का कटु अनुभव था। इसलिए इतिहास दोहराना नहींं चाहते थे। विद्यालय से एक दिन का अवकाश व रामरतन को साथ लेकर शहर गए। वहॉ रामरतन को नए कपडे व जूते दिलाए। कमरे का किराया और खाने का शुल्क जमा किया। रामरतन को यह सब एक स्वप्न की भॉति लग रहा था,पर संतोष ने अपने पिछले अनुभव साझा कर उसे जगा दिया।

         रामरतन साक्षात्कार की तैय़ारी में लग गया। कुछ दिनों बाद साक्षात्कार हो गया। अपना सारा सामान लेकर रामरतन घर आ गया।

            घर पर रहते हुए एक महीना बीत गया था । एक दिन संतोष जी रामरतन के घर पर बैठे थे तभी डाकिया आया और एक पत्र देकर चला गया। सभी लोग उत्सुकता के साथ पत्र की ओर देख रहे थे। संतोष जी ने पत्र का अगला सिरा खोला और अन्तर्निहित पत्र को बाहर निकाला।

     संतोष के मुख पर लिखे भाव को अनपढ़ रघ्घू ने पढ़ लिया और समझ गया की उसका रामरतन आज एक रतन बन गया है। संतोष को भी विश्वास हो गया कि छोटके लोगो का 'बड़का साहब' बनना मुश्किल जरूर है पर नामुमकिन नहीं।




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