यह मीडिया का कमाल है
|
यह मीडिया का
कमाल है
या लोकतंत्र की
वोटिंग मशीनों का
जिधर से गुजर रहा
हूं
मैं लोकतंत्र का
जश्न देख रहा हूं, हर तरफ
जनता के चुने हुए
प्रतिनीधियों से अधिक
उन्माद से भरे
हुए उस प्रतिनीधि को देख रहा हूं
जो जनता के कंधों
पर खड़ा हुआ
इतना विशाल दिख
रहा है कि
उसकी ही पार्टी
के लोग
हाथी की पीठ बन
गये हैं
और जनता महज
संख्या,
कहा जाता रहा है
कि लोकतंत्र में यह दृश्य संभव है
और यह पहला दृश्य
नहीं है
पर अब जो हो रहा
है वह पहले जैसा नहीं है
एक हत्यारा देश
का भाग्य विधाता बनते बनते
देश हो रहा है और
देश
देशद्रोह के आरोप
में संसद के कटघरे में
हाथ बांधे खड़ा है,
देश संसद में
गूंगा खड़ा है, खतरे इतने हैं कि
ऐसे में कौन कहे
सीधी बात, ...कहां हो कबीर
मैं सुनना चाहता
हूं तुम्हारी उलटबासी,
मेरे पुकारने से
कहां आने वाले हैं कबीर
उन्हें जो कहना
था कह गये और वह था मध्यकाल
अब जो है वह है,
इसे जो भी नाम दें
पर जो दृश्य है
चुभ रहा है आंखों में
और उससे भी अधिक
लोकतंत्र के दलदल
में धंसा हुआ मैं भारत का नागरिक
अपनी ही नजरों
में चुभ रहा हूं, धंस रहा हूं,
...
यह महाभारत का
दृश्य नहीं है
और न ही मैं
अभिमन्यु हूं, न ही तुम कर्ण और
न ही वह द्रौपदी
यह किसी उपन्यास
का सुखद या दुखद अंत नहीं है
यह भारत की
राजनीति है
जहां छल छद्म के
गुबार में
इतिहास और भूगोल,
जाति और धर्म, देश और जवा, ...
को पगुराते हुए
जय भारत, जय भारत की डकार मार रहे हैं नये भारत के
निर्माता
हर दूसरा आदमी
देश का दुश्मन हो गया है, और
प्रधानमंत्री को
छोड़
सभी नागरिक
अनागरिक होने की खतरे से जूझ रहे हैं,
और जो रह गये हैं
नागरिकता से बाहर
अब वे इंसान नहीं
रह गये हैं,
ऐसे में लोकतंत्र
की सड़क पर खड़ा होकर
मैं करूं क्या?
संसद जाने के
रास्ते में हो रही दुर्घटनाओं की गिनती करना
उस कोर्ट का वह
मुहर्रिर बन जाना है
जहां आदमी की पीठ
से न्याय का चौखठ बनता है,
मैं अब भी देख
रहा हूं नये भारत के निर्माता को एकटक
जबकि वह कहीं
नहीं देख रहा है
मेरी तरफ तो
हरगिज नहीं,
मैं देख रहा हूं
उसे एकटक देश के लोकतंत्र का प्रतिनीधि
और पढ़ रहा हूं
धूमिल की कविता,
राजकमल चौधरी की
गालियों से लबरेज अकविता,
गोली दागो पोस्टर,
जेलखाना और गोलियों की बौछार ...
कविता और मेरे
बीच यह जो समय का दायरा है
काफी गहरा है,
किसने खोदी है खाईयां ...
कविता के उस टीले
बहुत दूर, ....इस पार हूं मैं
कविता न तो
नक्सलबाड़ी को छू रही है, न रोहित वेमुला
को
और न ही नजीब को,
....
जबकि वह है ठीक
मेरे सामने और
मैं उसे देख रहा
हूं एकटक
मैं जानता हूं कि
वह कहीं नहीं देख रहा है
वह सिर्फ यूनियन
कार्बाइड की फैक्टरी में बदल रहा है
मैं उसे एकटक
देखते हुए अपने खोए हुए शब्दों की तलाश में हूं
जो हैं, हां हैं यहीं आस पास ही
खोजते हुए वे हाथ
जिनकी लय में वे ढल सकें, और
वह जबान जो उचार
सकें उन्हें ऊंचे स्वर में
मैं देख रहा हूं
उसे एकटक
कहते हैं दुश्मन
का अक्स आंख में उतार लेना ही
युद्ध का पहला
कदम है
इसके पहले की यह
बात सच साबित हो
मैं अपनी जबान
रखना चाहता हूं शब्द
जिनसे रची जाती
है कविता
जिसे पढ़ा जाता है
शहर के चैराहे की बीचो बीच,
मैं अब भी उसे देख
रहा हूं
एकटक,
....।
ईरोम शर्मिला- 1
तुम एक बार फिर
हार गई,
मैं जानता हूं
तुम्हारी फितरत,
तुम एक जिद में
रहती हो
और जिंदगी से
प्यार करती हो
वैसे ही जैसे
बच्चे अपने घरौंदों से करते हैं,
मैं जानता हूं
तुम्हारा भरोसा
उसका टूट जाना भी
और टूटन में धंसे
हुए किंरचों को निकालने का
वह सुख भी,
जो अक्सर
लड़ाईयों की
यादगार में बदल जाते हैं।
तुम हार गई
तुम्हारी इस हार
को प्रश्न में बदल रहे हैं
बहुत से पत्रकार,
विद्वान, और भी लोग ...
और यह यूं ही
चलता रहेगा।
प्रश्न बने
रहेंगे
शायद तुम्हारी
उम्र के अंतिम समय तक।
तुम्हारे सन्यास
का कोई अर्थ नहीं है
तुम लड़ाई के जिस
मोर्चे पर हो
वहां से कूच करो,
वोटिंग मशीनें
लोगों की जिंदगी नहीं
शासकों की उम्र
तय कर रही हैं
एक अंतहीन
सिलसिले की तरह ....।
ईरोम शर्मिला- 2
तुम्हारी हार में
जितने वोट तुम्हारे हिस्से आये
उससे हजार गुना
तुम्हारे हिस्से सवाल आये हैं
तुम सन्यास लेकर
कहां जाओगी
सवाल लोकतंत्र की
तरह पांच साल पर नहीं लौटते
वे हर रोज
तुम्हारी धड़कनों और सपनों तक
पीछा करते करते
तुम्हारे साथ रहेंगे,
तुम जानती हो कि
सवाल सिर्फ तुमसे नहीं है
तुम जानती हो कि
वोट सवालों को हल नहीं है
ऐसे में तुम
सन्यास लेकर कहां जाओगी
खासकर ऐसे समय
में जब
जश्न के नारों
में गुम हो रही है मनोरमा की चीख
जीत के जयकारों
में हत्यारे
बन चुकें हैं
लोकतंत्र के पुरोधा
ऐसे में एक बार
फिर पूछता हूं
ईरोम शर्मिला
सन्यास लेकर कहां जाओगी
जब कि वोटिंग
मशीनों के बाहर
संगीनें अब भी
कानून की शक्ल में और
कानून संगीनों की
शक्ल में
अब भी हैं,
आंख में उतरती नींद को खत्म करती,
एक बार पूछ रहा
हूं तुमसे
सन्यास लेकर तुम
कहां जाओगी!
No comments:
Post a Comment