Tuesday, 9 February 2016

‘वो लड़की थी न...! - हेम चन्द्र पा ण्डे



भारत में जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव का सवाल भारतीय समाज का एक सर्वाधिक बुनियादी और अहम सवाल है। इस गैरबराबरी समाज में दलित सबसे ज्यादा शोषित और उत्पीड़ित रहे हैं। रोहित रोमुला जैसे कई छात्र जब कठोर मेहनत करके उच्च शिक्षा तक पहुंचते हैं तो यह शिक्षा उन्हें बराबरी का दर्जा देने के बजाए उन्हें और ज्यादा उत्पीडित़ करती हैं, अतः बहुत ही मजबूरी में रोहित जैसे होनहार नौजवान को अपनी जान देनी पड़ती है। उसकी आत्महत्या की मुख्य जिम्मेदार यह ब्राम्हणवादी सरकार और कॉलेज प्रशासन है जिसने उसे उन परिस्थितियों में पहुचाया जहां उसे इस प्रकार का निर्णय लेना पड़ा। उसकी लड़ाई केवल एक दलित समुदाय के लिए ही नहीं थी बल्कि उसकी लड़ाई इस गैर बराबरी समाज के लिए थी, जहां आज भी बहुसंख्यक जनता बुनियादी चीजों से काफी दूर है। उसकी लड़ाई महिलाओं, किसानों, मजदूरों और अल्पसंख्यक वर्ग की लड़ाई थी। आम तौर पर कहा जाता है कि पहाड़ का समाज ज्यादा उदार है और वहां जातिवाद भी कम है। लेकिन हेम चन्द्र पाण्डे की यह कहानी इस बात को झुठलाती है। यहां पर हम उत्तराखण्ड के एक गांव की एक दलित लड़की की कहानी दे रहे हैं।

                                केवल होली पर दिल्ली से घर आया था। जब केवल ने उससे शादी की बात कही थी रेखा की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। ढाई महीने पहले की सारी बातें एक-एक कर दिमाग में घूम रही है रेखा के। वे देख रही है धुंध से भी दूर, बहुत दूर, न जाने क्या देख रही है रेखा। वह देख रही है धुंध ने एकसार कर दिया जमीन आसमान को। क्या ये धुंध हमेशा रहेगी! आसमान फिर भी आसमना है, और धरती धरती है। कहां इनका मेल? हमारा भी तो मेल नहीं है। केवल हुआ केवलानंद श्रमण श्री देवकीनंदन भारद्धाज गोत्रोत्पन्न, यजुर्वेदाध्याययी, ब्राम्हणकुल दीपक, आसमान में दैदीप्यमान नक्षत्र और कहां में रेखा, पुत्री हरराम, पेशा हल जोतना, औजार कारना। हमें तो अपने नाम का आगा-पीछा भी पूछकर लगाना पड़ता है, पर इससे क्या फर्क पड़ता है। केवल पढ़ा-लिखा है, पढ़ा लिखा आदमी गुणी होता है, पढ़े लिखे की कद्र करना जानता है। अपनी शिक्षा से वह रूढ़ियों को तोड़ सकता है। फिर केवल ने ही तो कहा था रेखा तू पढ़ी लिखी है। अच्छी लड़की के सभी गुण हैं तुझमे। इस साल इंटर हो जाता है तेरा। उसके बाद हम दोनों शादी करेंगे। पर एक अनजाना सा भय बीच-बीच में सिर उठा लेता है। कहीं ऐसा न हुआ तो?
जानवरों को दौ देने रेखा की माँ देली में आयी तो रेखा को सुनसान बैठे देखकर उसने पुकार लगाई, रेखू ओ रेखू। रेखा अचानक चौंकी, क्या सोच रही है, परसों से पेपर हैं कहीं चिंता तो नहीं कर रही है। अरे चिंता कि क्या बात? तू तो इतना पढ़ाई करती है कि फर्स्ट निकलेगी। चल उठ, सांझ हो रही है। अंदर जा, बत्ती जला। ऐसे घोप दे के बैठना अलच्छिन लग रहा है। रेखा वैसी ही बैठी रही, माँ को अब चिंता होने लगी। पास आकर सिर पर हाथ फेरते हुए देखा- रेखा की आँखों से गंगा-जमुना बह रही थी! क्या बात है, क्या हुआ, रो क्यों रही है... कुछ नहीं ईजा, कुछ भी तो नहीं... ईजा के बार-बार पूछने पर रेखा बोली मुझे दो-तीन महीने से माहवारी नहीं हुई है। तो इसमें डरने की क्या बात है? परसों तेरा पेपर है, वहीं से बाजार में डॉक्टर को दिखा लाना। नहीं ईजा वो बात नहीं है? तो क्या बात है... तुने कुछ ऐसा-वैसा तो नहीं... रेखा चुपचाप सिर नीचे किये रही। तुने ये क्या कर दिया! माँ को गुस्सा आ गया नाक कटा दी तुने हमारी, बता किसका पाप है तेरे पेट में? केवल... माँ सन्न रही गयी, मुँह से बोल न फूटे। लगा सैकड़ों झिमौंडे एक साथ डंक मार गए हों। ईजा, केवल ने मुझसे शादी करने का वचन दिया है, ये पाप नहीं है मैं आज ही उसे चिट्ठी लिखूंगी। हो! केवलानंद करेगा तुझसे शादी। किस बामन ने की आज तक किसी हरिजन की लड़की से शादी, ये अनर्थ तू ही करेगी, चार आखर पढ़ क्या लिया पंख लग गये। कौन पढ़ा था हमारी जात में इतना जितना तेरे बौज्यू (पिताजी) ने तुझे पढ़ाया है, कहा था मैंने, पढ़-लिखकर किसका भला हुआ है। मोहनराम की लड़की को नहीं देखा? इंटर करते ही भाग गयी किसी बिहारी के साथ। पढ़-लिखकर जमीन पर पाँव नहीं रहते। अब भुगतो, हे भगवान रास्ता दिखा... शाम हो गयी, न बत्ती जली न चूल्हा। ईजा वैसी ही द्वार-कोड़े पर टोप दिए रही, रेखा वैसी ही छज्जे पर जमी रहीं। घर में अंधेरा देख बापू परेशान, बाहर से आवाज दी- सांझ बखत ये अंधकार क्यों कर रखा है और दोनों ने सिर पकड़ कर टोप क्यों दे रखी है। रेखा के बाबू; अब अंधेरा ही अंधेरा है- हैं! कान नहीं सुना क्या? अपनी राजकुमारी से ही पूछो क्या बात है! सर्वत्र चुप्पी, पर चुप्पी सहन नहीं हुई माँ को और फूट पड़ी वह रेखा-के बाबू! बिना कन्यादान किये तुम बुबु बन गये, बुबु। झन्न सी हुई बुड्ढे के दिमाग में। आगे सबकुछ चुपचाप सुनता रहा। सुबह तक किसी ने कोई बात नहीं छेड़ी, पर फैसला हो चुका था, जो होना था, बहुत चीजों का हवाला था, बहुत चीजों का वास्ता था। बहुत दूर की सोचनी थी, जिन हाथों की अंजुल बनाकर बामनों से ऊपर से पानी गिरवाकर प्यास बुझाते थे, उन हाथों से बामन देवता को संकल्प देना था, जिनके दरवाजे पर ही हर तिथि-त्यार को हाथ फैलाते थे, आज उनके हाथों को इस अछूत के दरवाजे पर फैलाना था, अपने आंगन में नौबत बजवानी थी, पर ऐसा हुआ है कभी? नहीं सपने में भी नहीं। इसीलिए ये सोचना भी पाप है, गुनान है, हमें तो जैसे-तैसे अपनी इज्जत, अपनी जान बचानी है। वे चमकते सूर्य हैं, हमें अपना कीचड़ उन तक नहीं पहुंचाना है। वरना दागिल हो जायेगा। हमारा स्थान पैरों में है, सिर पर चढ़कर हम जिंदा नहीं रह सकते। उस रात मौन विमर्ष हुआ। बहुत सोचा गया, हर पहलू, हर तरीके से सोचा गया, बस एक पहलू छुटा रहा गया या जानबूझ कर छोड़ा गया था, कोई नहीं जानता? चार बजे उठ गयी थी रेखा, पढ़ाई में जुट गयी कल से ही परिक्षाएं हैं बोर्ड की। उजाला होते-होते बाहर से बाबू की आवाज आई- रेखा, चल बाजार चलना है। अस्पताल में अपने प्रधान जी के साथ उनकी घरवाली भी रहेगी। घबराने की कि कोई बात नहीं है। बात स्पष्ट थी, रेखा से जो कुछ करवाया जाना था वह समझ गयी थी, पर चुपचाप रही, पिता उसके सामने थे। मैं नहीं आ रही हूं। मुझे पढ़ना है, कल से मेरे पेपर हैं। आग लगा इन पेपरों को, जला दो इन किताबों को, चेहरे पर अगर नाक न रहे तो, क्या करना पढ़ने-लिखने से। चल तैयार हो जा। बाबू, मैं नहीं जाऊंगी। मेरे बारे में आपने अपने आप सब कैसे सोच लिया। तो अब मैं तेरा भला-बुरा भी नहीं सोच सकता। पालने-पोसने का ये फल दिया तुने मुझे।


बाबु, मुझे केवल पर भरोसा है। क्या होगा अगर वो मुझसे शादी नहीं करेगा, मुझे अपनी पढ़ाई पर पूरा भरोसा है। मैं अपना गुजारा कर सकती हूं फिर हमसे पाप भी हुआ तो उसका दण्ड एक अजन्मे बच्चे को देना क्या न्याय है? रेखा पिता को हर तरह से समझाती रही, नए जमाने का हवाला देकर, भेदभाव मिटाने वाले आंदोलनों का हवाला देकर, पढ़ी-सुनी कहानियों और घटनाओं का हवाला देकर, जैसे-जैसे रेखा कहती गयी पिता की खामोशी गहरी होती गयी और वह चुपचाप बाहर निकल लिये। रेखा निष्चिन्त हो पढ़ाई में जुट गयी। उसे पढ़ाई की चिन्ता अधिक सता रही थी। आज पिता-पुत्री दो पीढ़ियों के प्रतिनिधि बनकर आमने-सामने आये थे। एक समाज के लिए आत्मबलिदान करने पर तुला था। समाज क्या कहेगा, लोग क्या सोचेंगे, ये चिंता थी। दूसरी ओर पुत्री उस पीढ़ी की थी जिसकी चिंता पढ़ाई को लेकर, भविष्य को लेकर थी। उसको लगता था कि पढ़ने लिखने से आत्मनिर्भर होने से सामाजिक जकड़नें टूट जाती है और हर चीज लड़कर पाई जा सकती है। दोनो अदृष्य मगर मजबूत रस्सी से अपने-अपने समय से जुड़े थे और रस्सियां टूट नहीं रहीं थी और चो चाहते भी नहीं थे रस्सियां टूटे। अतीत मौन था, भविष्य बोल रहा था, तर्क कर रहा था। खून में उबाल, रक्त में गर्मी थी। अतीत चुप रहा, खामोशी से चला गया। भविष्य ने सोचा कि अतीत बदल गया। वह भविष्य की बात मान गया। अब वह कभी भविष्य को पीछे खींचने की कोशीश नहीं करेगा। दोनों फिर नहीं टकराएंगे। दूसरे दिन रेखा पेपर देने चल दी। अपने बारे में हुई सारी बातें उसने केवल को चिट्ठी में लिख दी थीं। रेखा पेपर देने बैठी तो रह-रह कर उसे सारी बातें याद आने लगी। बचपन से अब तक की टुकड़े-टुकड़ों में। पहला पेपर था। हाल आधे घण्टे पहले खुल गया था। डेस्क् पर बैठे-बैठे बीती बातों में खो गई।... वह छोटी-छोटी है- बाबू का हाथ पकड़कर बामनों-ठाकुरों के द्वार-द्वार जाकर फुल देई छम्मा गा रही है। उसका बापू नगाड़े पर टिम-टिम-डिम-डिम कर ताल दे रहा है। फिर वह देख रही है, उसके बापू ने मरे बैल की खाल निकाल रखी है। उसका ढोल बनवा दिया है। आज उसका उद्घाटन है। वह जोर-जोर से ताली बजाकर उछल रही है। फिर वह स्कूल में पढ़ रही है। केवल उसके साथ पढ़ता है। दोनों खेल रहे हैं। धूल में लथपथ हैं। फिर पन्ना पलटता है, उसने रामदत्त जी के घर में रखी गगरी को ठसक लगा दी है, और उसके सिर पर रखी थाली फेंक मारी है बामणी ने, टन्न की आवाज से जग पड़ती है वह। पेपर बंटने की घंटी लगती है। हिन्दी के पेपर में सबसे पहले उसका ध्यान निबंध पर जाता है। ‘कर्म और नियती’विषय पर वह लिखते-लिखते डूब जाती है, हर चीज उकेर देना चाह रही है। हृदय का हर भाव वह डालना चाह रही है, लिखती जाती है, आंसू पोछती जाती है। तीन पेज का निबंध आठ पेज में लिख डालती है। परीक्षक उसकी मनःस्थिति को कितना जान सकेगा, कागज पर टपके आंसुओं से फैली स्याही को क्या समझ पायेगा। पेपर देकर बाहर आती रेखा अपने को हल्का-फुल्का महसूस कर रही है। सुबह ही घर से चली थी। जल्दीबाजी में निकलना पड़ा था, नहीं तो गाड़ी छूटने का डर था। इसलिये कुछ खाया नहीं था। उसे जोरों की भूख महसूस हो रही थी। जल्दी-जल्दी डग भरती गाड़ी पकड़ती घर पहुंची तो कल की सारी बातें याद आ गयीं। बाबू आंगन के कोने में नस्यूड़ बना रहे थे, ईजा जानवरों के लिये दो पका रही थी। सब सामान्य लग रहा था। बाबू ने पेपर के बारे में पूछा तो वह निष्ंिचत हो गयी थी कि बाबू सब कुछ भूल चुके हैं। ईजा भी खुश ही लग रही थी। शाम हो आयी थी, रेखा भूखी होगी करके आज खाना भी जल्दी ही बन गया था। रेखा खुश हो गयी। सभी लोग खाने बैठे गये। सब धीरे-धीरे खा रहे थे। सभी चुप थे। बस गाय की जुगाली की आवाज आ रही थी। रेखा झटपट सारा खाना खा लेना चाह रही थी। पर यादें- ये मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ रही हैं। रेखा खाते सोचती है और भूख के बावजूद उसके खाने की गति धीमी हो रही है। वह मां-पिता जी दोनों को आंख उठाकर देखती है। वह इशारे से कह रहे हैं- खा बेटा खा। कितने अच्छे हैं ईजा-बाबू। उन्होंने मुझे माफ कर दिया। वह मुझे समझ गये। केवल मुझ पर विष्वास किया। मैं उनके विष्वास को कभी नहीं तोडूंगी। मैंने भी विष्वास किया है, केवल पर, वह भी नहीं तोड़ेगा मेरा विष्वास। ईजा-बाबू समझदार हैं। वे समाज से लड़ सकते हैं मेरे लिए। रेखा सोचती ही चली जाती है। उसे आज सारी दुनिया विष्वसनीय लग रही है। ‘कर्म और नियति’ पर लिखे गए निबंध पर उसे अब हंसी आ रही है। बेकार में वह इतना बुरा सोचती है कि कर्म ने नियति को कभी नहीं बदला। नियति तो होनी है। हम बुरा करें या भला। हम अच्छे काम करने से अच्छे नहीं बन जाते। छोटी जात पढ़ लिखकर बड़ी नहीं बनती। उसके सामने और भी कई चुनौतियां हैं। वह यह सोच सोचकर मन ही मन हंसने लगती है। उसे अपने पढ़े-लिखे होने पर गर्व हो रहा है। उसे नियति कर्म से हारती हुई दिख रही है। वह अपने बल-बूते पर कुछ भी कर सकने का हौसला पैदा कर रही हैं। चारों तरफ पहाड़ों में बर्फ पिघल चुकी है। बाज की कोपलों के लाल बुराषों के दिन हैं। न्यौली कफुवा हर दिशा से टेर सुना रहे हैं। हवाओं में क्वेराल और च्यूर कर मदहोश कर देने वाली गंध है। खेतों में सरसों ही सरसों पीली-पीली सी। वह गास पर गास निगलती जा रही है मन कहीं और है। बसंत का मौसम है- होलियों की धूम मची है। दूर से आती होल्यारों की टोली, बामण, ठाकुर कैसे टक्क सफेद कपड़ों में। ऊपर से रंग-बिरंगे छींट। पानी से तर-बतर दूर से देखती है कि उसके बाप के कंधे पर ढोल हैं। सफेद कपड़ों के बीच में उसके बापू का बेरंगा होना उसे अच्छा नहीं लग रहा है। उसके गांव के धरूका, खीमका आदि भी अलग पहचाने जा रहे हैं। हरिजन लड़कियों को होली में जाने की आज्ञा नहीं है। हरिजनों के गांव से भी होली भी नहीं जाती है इसलिए सब बच्चे गाड़ किनारे बंजर जमीन पर उस पार जाती होली को देख रहे हैं। वह अभी-अभी किषोरावास्था में पहुंची है, उसके भीतर एक स्वाभाविक उल्लास है। वह केवल को दूर से पहचान लेती है। अपने पिताजी के साथ साथ वह भी होली में भाग लगाकर गा रहा है। क्या कंठ है उसका, होली में कैसी जोकरिंग करता है। एक-एक बात उसकी आंखों के सामने घूम रही है। हर तरफ उल्लास का माहौल है। हर ओर उन्मुक्तता है। ऐसे ही मौसम में तो थामा था केवल ने उसका हाथ पहली बार...और वह मना भी नहीं कर पाई थी। वे दोनों हाथ पकड़े जंगल दर जंगल, पहाड़ दर पहाड़, नदी के किनारे-किनारे दूर चले जा रहे हैं। दूर सुन्दर झरनों, हरे-भरे गांवों से गुजरते ही जा रहे हैं। रास्ता खत्म नहीं हो रहा है। हर मजंर-हर जगह ठिठक कर देखने का मन हो रहा है। हर चीज को छूकर महसूस करने का मन हो रहा है। दोनों बुरांषों की लाली, बर्फ की सफेदी, जंगलों की हरियाली और सरसों की बसंती फिजाओं में खो जाते हैं।
अचानक हाथ थमता है - गास मुंह से छूट पड़ता है। हाथ भी छूट जाते हैं, भटक जाते है दोनों। चारों ओर बादल घिरे जा रहे हैं, असेट-पसेट बारिश, दनादन ओले, तड़ातड़ चाल चमक रही है, पर रास्ता नजर नहीं आ रहा है, बस पेड़ के तनों पर ओलों की चोट पड़ रही है। तड़ातड़-सड़ासड़। अंधेरा ही अंधेरा, इतना अंधेरा क्यों हो गया, कहीं भी तो उजाला नहीं। बुरी तरह टीस रही है वह। अंग-अंग दर्द कर रहा है। अजीब-सी गंध उठ रही है, दम घुटा जा रहा है...उसे नींद नहीं आ रही है।।।। नींद...सब शान्त हो गया। वह सो गई है।...घर में किसी से नहीं खाया गया, सब चुपचाप हैं, मां-बाप चुपचाप आंसू पी रहे हैं। आज उनसे क्या हो गया, ये क्या कर दिया उन्होंने। जिन हाथों से कन्यादान पुण्य कमाते उन्हीं हाथों से बेटी को जहर खिला दिया। हे भगवान! हमें माफ करना। रात भर सिसकियां से आकाश गूंजता रहा। आज नदी की आवाज भी ऐसी ही लग रही है मानों जोर-जोर से आहें भर रही हों। गोठ में गाय-बच्छे भी खामोश हैं। भोर हो गयी है। भोर तो होनी ही थी। किसी के रहने या न रहने से भोर नहीं रूकती और भोर हुई भी। रेखा नहीं जागी। बात फैली, कल रात पेट दर्द से रेखा मर गई। घरवाले अपना मन मनाने की कोशिश करने लगे। घटना के पंद्रह-बीस दिन बाद केवल के गांव का रेवाधर दिल्ली नौकरी तलाशने गया, तो केवल के पास ही रूका। आशल-कुशल, धिनाली-पाणि गौं-पड़ौस की बातों में ही इसका जिक्र भी आ गया। रेवाधर ने बताया यार वो हरराम की लड़की थी ना रेखा, मर गई। केवल हक्का-बक्का रह गया क्योंकि आज सुबह ही उसको रेखा की चिट्ठी मिली थी। इसी कारण वह सुबह से परेशान था। उसने पूछा- कैसे? अरे लोग कह रहे थे कि किसी के साथ फंसी थी और तीन महीने पेट से थी। लोग यह भी कह रहे थे कि उसके ईजा-बाबू ने खाने में जहर दे दिया और बात फैला दी कि रेखा पेट दर्द से मर गई। केवलानंद ने लंबी सांस ली। हो! ठीक हुआ इन लोगों के साथ। यह कहावत भी है कि छोटी जात करे उत्पात- रेवाधर बोला। केवलानंद खामोश रहा।


2 comments:

  1. The message of this story is reflecting the truth about caste...

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  2. The message of this story is reflecting the truth about caste...

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