Tuesday 29 November 2016

नदी हो तुम

   
1. नदी हो तुम

नदी हो तुम
एक नदी
एक हरहराती नदी
जैसे होना चाहिए नदी को
रास्ते को रौंधती
पुराने किनारों को तोड़ती
नए किनारे को रचती
तलछटी तक गहरी
उछाल मारती
रचती जीवन को
नदी हो तुम
एक नदी
                     

2. सत्ता और अमीरों की संधि है

ये जो नोटबन्दी है
सत्ता और अमींरो की संधि है
अमीरों की शादी में 5 अरब का ख़र्चा
सिर्फ़ ग़रीबो की शादी पर पाबन्दी है
फिर से अपने बच्चों को भूखे सुलाया
ममता आज बहुत शर्मिन्दा है
जो बोल रहे हैं सत्ता की बोली बोलियां
देश को लूटने में इन सब की रजामंदी है
उठो ऐ देश अपने पैरों से कुचल दो
ये जो सियासत है बड़ी गन्दी है
कहां इतनी आसानी से हार मानने वाली
हमारी लड़ाई जिन्दा है जिन्दा है


3. तुम कहते हो की ये देश बदल रहा है

वही फाकाकशी, गुरबत का दौर चल रहा है
और तुम कहते हो की ये देश बदल रहा है
हर रोज़ एक नया नक़ाब बदल रहा है
वक़्त-ए-तानाशाह बहुरूपिया में ढल रहा है
लेकर जायेगा एक दिन कत्लगाह की तरफ
ये जो जन सैलाब उसके पीछे चल रहा है
लिए फिरते थे जो कल अस्तिनो में
खुलेआम वो आज ख़ंजर निकल रहा है
लिए फिरती है मांए अपने बच्चों की तस्वीरें
पूरा देश आज जैसे कश्मीर में बदल रहा है
फुट पड़ेगा अब एक सैलाब की तरह
सदियों से ये जो गुस्सा आँखों में पल रहा है
यकी न आये तो जंगल,गांव में जा कर देखो
एक इंकलाब वहां अब करवट बदल रहा है

4.एक अधूरी सी पेंटिंग

जो नहीं पूरी होती मुझसे
उनकी बहुत सी
आड़ी तिरछी
लकीरों के बीच
कोई ढूंढता रहता है
तुम्हारा आधा अधूरा
अक़्स

5. नजीब
नजीब का गायब होना इस वक्त का सबसे जरुरी सवाल है
इसे आज हमें पूरी ताकत से सत्ता से पूछना होगा
आखिर कहां है नजीब
क्योकि आज नहीं पूछा तो
कल कोई जोसफ सुबह ऑफिस से निकलेगा और बस यूं ही गायब हो जायेगा
कल कोई दुकान से सामान लेने के लिए रामदीन निकलेगा बस यूं ही गायब हो जायेगा
न वो जिन्दा में शामिल होगा न मुर्दा में
बस नहीं होगा
कल किसी की बेटी
कल किसी की बीबी
कल किसी की माँ
कल किसी का भाई
की आंखे घर की दहलीज़ पर हमेशा के लिए होगी टिकी इन्तजार में
और ये इन्तजार कभी नहीं खत्म होगा
इसलिए आज पूरी ताकत से पूछिये नजीब आखिर है कहां


6. दो लोगो के बीच
सिमटती ज़मीन
जहाँ हवा भी
सहम के गुज़रती है
वहाँ होता है कोई एक मौजूद
बारिश हवा खुशुबू के बगैर
उसका होना कोई फ़साना नहीं
न ज़िक्र है किसी कविता में
तंगजदा होती दिल की जमीं में
कोई एक कोना
कोई एक हर्फ़
कोई एक किस्सा
कोई एक आंसू
कोई एक लम्हें में
गैर-वाजिब है उसका होना
पर फिर होता है वो एक
अपनी पाव भर जमीं पर टिका
खामोश बहुत ही खामोश
अपने घाव को खुद ही चाटता
बाथरूम के टपकते नल
की तरह उसके आंसू
उसके अंदर ग्लेशियर
का पहाड़ जमा कर देते हैं
जिनसे टकराता होता है लहूलुहान
पीप और लहू में जमी सिसकियाँ
हाँ कोई एक
कोई एक नहीं सुनता
उसकी आवाज़ की लरज़िश
अपने दरिया को लुटता
अपने ख्वाबो को कुचलता
अपने होने हर का वजूद मिटाता
जमाने की खाक
सीने में जमा करता
हो जाता है कब्रिस्तान भुतहा सा
सहरा सा तन्हा
एक निर्जन दीप की तरह
कटा दुनिया से
बादल कितने भी आवारा
नहीं होते
की गुज़ारे उसकी रहगुज़र से कभी
कोई प्रेमी जोड़े डर से भी नहीं
करते उसका जिक्र
प्रेम के पाक किताब में नहीं होती
उसकी कोई कहानी
पर वो हर एक प्रेम कहानी में होता है
एक आउटसाइडर सा मौजूद
जबकि उसका नहीं होना भी
उसका होना है

 7. आवाज़़
वो चाहते हैं
बड़ी ख़ामोशी से मर जाऊं
मौत की आख़री
चीख़ भी गवारा नहीं उन्हें
इन मुर्दा
आवाजों के शोर में
एक भी जिन्दा आवाज़
बड़ी दूर तक जाती है
बड़ी देर तक रहती है
एक आवाज़ दूसरी आवाज़ को
थाम लेती है
एक आवाज़ दूसरी आवाज़ को
अपने होने का भरोसा दिलाती है
जब सील दिए जाये तुम्हारे लब
तो खनखनाओ अपनी बेड़ियां
की जान सके वो
अभी जिन्दा हो तुम
तुम्हारे अन्दर
आदमी मरा नहीं अभी


No comments:

Post a Comment