Thursday 3 December 2015

भारत में नारी आंदोलन की प्रवृतियाँ








अनुराधा गांधी





भारत में नारी आंदोलन जनवादी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पिछले दशक में औरतों ने बहुत बड़ी संख्या में विभिन्न राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया है। उदाहरण के लिए दण्डकारण्य, बिहार क्रान्तिकारी किसान संघर्ष, कश्मीर व पूर्वोंतर राज्यों की राष्ट्रीयताओं के आंदोलन, आन्ध्र प्रदेश का शराबबंदी आंदोलन। ये आंदोलन भारतीय समाज में तेज़ होते सामाजिक अंतर्विरोधों को प्रदर्शित करते हैं। नारी आंदोलन के विकास के लिए इस वक्त परिस्थितियाँ परिपक्व हैं। फिर भी नारी आंदोलन की मुख्य प्रवृत्ति ‘स्वायत्त नारी आंदोलन के ठहराव के संकट का सामना करना पड़ रहा है। क्या इस प्रवृत्ति को नेतृत्वकारी सदस्य पहचान रहे हैं?

प्रतिक्रियावादी व सांप्रदायिक ताकतों का नारी पर बढ़ता प्रभाव उनकी चिंता का विषय है। साथ ही नारी आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए एक पूर्ण विकसित राजनीति का अभाव है, ऐसा वे मानते हैं। वास्तव में यह एक वैचारिक व राजनैतिक संकट है जो आज के नारी आंदोलन पर हावी हो रहा है। यूरोप व अमरीका में पूँजीवाद के विकास के साथ-साथ पारिवारिक संरचना में आए परिवर्तन ने ऐसी भौतिक परिस्थितियाँ पैदा की और अंतर्विरोधों को तीव्र किया, जिसके कारण बराबरी के हक को लेकर नारी आंदोलन उभरा। हर देश में औरतों द्वारा विरोध और विद्रोह के उदाहरण हैं। चाहे वे कमजोर रहे हो या मज़बूत। लेकिन नारी की मुक्ति के लिए नारी द्वारा आंदोलन केवल पूँजीवाद के विकास के बाद ही उभरे। पूँजीवादी देशों व तीसरी दुनिया के देशों के पिछली दो शताब्दियों के नारी आंदोलन का इतिहास एक बात साफ तौर पर बताता है कि नारी आंदोलन न केवल आर्थिक व राजनैतिक संघर्षों से जुड़े हुए हैं बल्कि इन संघर्षों का हिस्सा हैं। उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी के शुरू में अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए नारी आंदोलन साम्राज्यवाद-विरोधी मुहिम के तहत समाजवादी व टेªड यूनियन आंदोलन के साथ-साथ उभरी। 

नारी आंदोलनों ने समाज पर व्यापक प्रभाव छोड़ा और नारी को कानूनी अधिकार दिलवाए। 1960 के दशक के अंत में एक बार फिर से विश्वव्यापी साम्राज्यवाद विरोधी उभार, वियतनाम युद्ध तथा छात्रा-युवा विद्रोहों के
दौरान नारी आंदोलन तेज़ हुए। सामान्य सामाजिक अंतर्विरोध व औरतांे के उत्पीड़न से संबंधित अंतर्विरोध एक दूसरे से संबद्ध हैं इसलिए नारी मुक्ति संघर्ष साम्राज्यवाद व इसकी ताकतों के खि़लाफ आम संघर्षों का ही हिस्सा है। भारत में औरत की मुक्ति का सवाल भी भारतीय समाज के क्रान्तिकारी परिवर्तन से पूरी तरह जुड़ा हुआ है। भारतीय नारी को तो समाज में बुनियादी जनवादी अधिकार भी प्राप्त नहीं है। औरत का पितृसत्तात्मक उत्पीड़न व शोषण, उसकी आर्थिक निर्भरता, पुरुष की अधीनता जो अर्द्धसामंती मूल्यों के कारण हैं, जिन्होंने भारत के एक बड़े हिस्से को पकड़ कर हमारी अर्थव्यवस्था के विकास को पीछे धकेल दिया है, वहीं उपभोक्तावादी संस्कृति के कारण भी हैं जो हमारी सामाजिक जिंदगी में अपनी पैठ बनाती जा रही है। भारत के दलाल पूँजीपति, सामंत व शासक वर्ग पितृसत्तात्मक, जाति पर आधारित सामाजिक संबंधों व सामंती विचारधारा के समर्थक व झंडाबरदार हैं जिसके बिना वह अर्थव्यवस्था पर, अपना अधिकार कायम नहीं कर सकते। झूठे प्रचार और बल प्रयोग की दोहरी रणनीति द्वारा इस व्यवस्था को कायम रखने के लिए राज्य मशीनरी एक ज़बरदस्त हथियार का काम करती है। अतः नारी मुक्ति के लिए नई रणनीति में सबसे पहला और ज़रूरी काम है बहुसंख्यक नारियों के लिए जनवादी अधिकारों को हासिल करना। इसके लिए संघर्षों की दिशा शासक वर्ग व उनकी सत्ता के खिलाफ मोड़ना ज़रूरी है। भारत के मार्क्सवादी लेनिनवादियों ने शासक वर्ग व उनकी राज्य मशीनरी के खिलाफ इस उद्देश्य से संघर्ष किया है कि एक वास्तविक जनवादी समाज की स्थापना हो सके। लेकिन वे नारी मुक्ति के कार्य को पूरी समझदारी के साथ नहीं उठा पाएं हैं। इस बात की झलक मार्क्सवादी लेनिनवादी समूहों के प्रति महिलाओं की उदासीनता से मिलती है। इस कारण इस दिशा में सचेत प्रयत्न किए जा रहे हैं। 


1947 से पहले के नारी आंदोलन 


यद्यपि बड़ी संख्या में राजनीतिक व सामाजिक गतिविधियों में औरतों की वास्तविक भागीदारी 1920 के बाद ही स्वतंत्राता आंदोलन, ट्रेड यूनियन आंदोलन, जाति विरोधी आंदोलन के रूप में शुरू हुई, लेकिन विभिन्न प्रकार के नारी उत्पीड़न के खिलाफ नारी मुक्ति संघर्षों की शुरुआत इसके पहले ही शुरु हो चुकी थी। ब्रिटिश उपनिवेशिक भारत में फ्रांस की क्रान्ति, पूँजीवाद का क्रमिक विकास, एक नये पढ़े लिखे प्रशासनिक व व्यापारी वर्ग के उदय जैसे कारणों ने उन सुधार आंदोलनों के लिए एक आधार तैयार किया, जो देश के अलग-अलग हिस्सों में उभरे। उन्नीसवीं सदी के अंत तक उन आंदोलनों ने कई रूप धारण किए। 1947 के पहले के नारी आंदोलनों की प्रवृत्तियों को इस प्रकार रखा जा सकता हैः

1. आंरभिक सुधारवादी आंदोलनों की उदार जनवादी प्रवृत्तियाँ

2. बाद के सुधारवादी आंदोलनों की हिन्दू पुनरुत्थानवादी प्रवृत्ति

3. जाति-विरोधी आंदोलन की नारीवादी प्रवृत्ति

4. कम्युनिस्ट प्रवृत्ति

उन्नीसवीं सदी के आरंभिक सुधारवादी आंदोलनों का उद्देश्य कानूनी व सामाजिक तरीकों से औरत की स्थिति में सुधार लाना था। लेकिन ये आंदोलन पुरुषों द्वारा संचालित थे। इसका एकमात्रा अपवाद पंडिता रमाबाई हैं जो शायद अपने समय की एकमात्रा महिला थीं जिन्होंने बिना अपने परिवार की मदद के न केवल शिक्षा के लिए प्रयत्न किए बल्कि विधवा विवाह व बेसहारा औरतों के रहने के लिए आवास गृह भी स्थापित करवाए। आरंभिक समाज सुधारकों (बंगाल से राजा राममोहन राय व ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, महाराष्ट्र से अगारकर व रानाडे, आन्ध्र से विरसालिंगम) का नारी के प्रति सुधारवादी दृष्टिकोण था। उन्होंने सती प्रथा के खिलाफ, विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह के विरूद्ध नारी शिक्षा के पक्ष में प्रचार किया। लेकिन ये सभी सुधारवादी नेता ब्राम्हण थे और उनका प्रभाव ज्यादातर ऊँची जाति की औरतों की स्थिति पर पड़ा। लेकिन इन सुधारकों के अपनाए तरीके निष्क्रिय थे जो हस्ताक्षर अभियान, जन सभाओं, अंग्रेज सरकार के साथ कानूनी सुधारों के लिए गठजोड़ बनाने तक ही सीमित थे। इनको सुधारवादी कानून बनवाने में सफलता भी मिली। जैसे 1891 में शादी की उम्र से संबंधित कानून। 

रूढ़िवादी ब्राम्हणों ने इन सुधारों का हर कदम पर विरोध किया और उदार सुधारकों को सामाजिक बहिष्कार से लेकर हिंसात्मक प्रताड़नाओं तक का शिकार होना पड़ा। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दो दशकों में महाराष्ट्र में इन समाज सुधारकों पर बाल गंगाधर तिलक के नेतृत्व में हमले हुए। जिसने उन्हें धर्मविरोधी व राष्ट्रविरोधी करार देते हुए कहा कि कोई भी स्वाभिमानी भारतीय अपने समाज व धर्म को बदलने के लिए विदेशी शासकों की मदद नहीं लेगा। इसके बाद सुधार आंदोलन में ब्राम्हण वर्ग द्वारा तय एक नई प्रवृत्ति ने जन्म लिया, वह थी राष्ट्रीयता की भावना और हिन्दू पुनरुत्थान। आरंभिक उदार सुधारक चूंकि ऊँची जाति व उच्च वर्ग से थे इसिलए वे हिन्दू विचारधारा की जाति प्रथा व पितृसत्तात्मक परम्पराओं का विरोध करने में हिचकिचाते थे। परिणामतः पुनरुत्थानवादियों ने उन्हें अपनी चपेट में ले लिया। नव पुनरुत्थानवादियों ने खुद को मज़बूत संस्थाओं में संगठित किया। जैसे, दयानन्द सरस्वती का आर्य समाज (1875), विवेकानन्द का रामकृष्ण मिशन (1897) और कुछ हद तक एनी बेसेंट की मद्रास हिन्दू एसोसिएशन (1904)। यद्यपि उन्होंने हिन्दू सुधारकों का विरोध किया फिर भी कुछ सुधारों का समर्थन भी बदले रूप में इन लोगों ने किया। उदाहरण के लिए पुनरुत्थानवादियों ने बाल विधवा के पुनर्विवाह को तो उचित ठहराया लेकिन बड़ी उम्र की विधवा के विवाह को नहीं। उन्होंने उसी हद तक नारी शिक्षा को उचित ठहराया कि वे अच्छी गृहणी सिद्ध हो सके। 

सुधार आंदोलन में उदार नारीवादी प्रवृत्तियाँ पूर्णतः खत्म न ही हुई बल्कि उन्होंने 1927 में राष्ट्रीय स्तर के एक महिला संगठन ‘‘ऑल इण्डिया वुमेंस कांफ्रेंस के रूप में अपने आपको एकीकृत रूप में जन्म दिया। पहले की क्षेत्रीय संस्थाओं, जैसे ब्रम्हका समाज, आर्य नारी समाज आदि से हटकर थी। इसे चलाने के लिए महिलाएँ खुद आगे आईं, नेतृत्व दिया और औरत के अधिकारों के प्रति ज़्यादा क्रान्तिकारी रुझान दिखाया। इन्होंने हिन्दू पर्सनल ला को पूर्णतः बदलने की माँग उठाई। 1943-44 में गांधी की सलाह के विपरीत इस संगठन ने हिन्दू कोड बिल के प्रचार में सक्रिय योगदान किया और इसके सदस्य सरकार द्वारा नियुक्त राऊ कमेटी के समक्ष ‘टेस्टीमनी’ के लिए भी पेश हुए। जबकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इसका बहिष्कार कर रही थी। लेकिन वुमेंस कांफ्रंेस की उच्च जातीय, उच्च वर्गीय उदार नारीवादी प्रवृत्ति तब बेनकाब हो गई जब उन्हें रूढ़िवादी हिन्दुओं द्वारा बिल के विरोध का सामना करना पड़ा। कांफ्रेंस की राजनीति का ढंग केवल बंद कमरों की सभाओं और प्रस्ताव पास करने तक सीमित रहा। कभी लोगों को लामबंद करने या अल्पसंख्यकों, नीची जाति की महिलाओं तक पहुँचने की कोशिश नहीं की गई। पुनरुत्थानवादियों द्वारा स्थापित ढाँचे को गांधी ने थोड़े परिष्कृत रूप में अपनाया जिसने रामराज्य के रूप में आदर्श भारत और भारतीय नारी के आदर्श के रूप में सीता को सामने रखा। यद्यपि गांधी ने पति द्वारा पत्नी की अत्यधिक अधीनता का विरोध किया लेकिन हिन्दू समाज की परम्परागत पारिवारिक संरचना का प्रतिरोध नहीं किया। आज़ादी के संघर्ष के शुरू में गांधी ने पुरुषों को सार्वजनिक विरोध करने का और राजनीतिक संगठन बनाने को प्रेरित किया जबकि औरतों को घर में रहकर खादी कातने को प्रेरित किया गया। शुरू में गांधी ने औरतों के सड़कों पर आने के प्रति हिचकिचाहट दिखाई। यह तो महिलाओं के सतत प्रयासों का परिणाम था कि वे देशभक्तिपूर्ण गीत गाते हुए व प्रचार करते हुए प्रभात फेरियाँ निकालने लगीं और विदेशी कपड़े व विदेशी शराब की बिक्री की दुकानों पर धरना देने लगीं। फिर भी महिलाओं का योगदान आंदोलन को मात्रा समर्थन देने व सहायता देने तक ही सीमित रहा।  गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन महिलाओं को सार्वजनिक जिंदगी में लाने में कामयाब तो हो सका लेकिन उन में से ज्यादातर उच्चवर्गीय या मध्यम वर्गीय हिन्दू महिलाएँ ही थीं। यद्यपि इसका प्रभाव समाज के बाकी हिस्सों पर भी पड़ा लेकिन गांधी ने भारतीय हिन्दू समाज में औरत की स्थिति में वास्तविक बदलाव लाने के लिए कोई प्रेरणा नहीं दी। इसके ठीक विपरित जाति-विरोधी आंदोलनों और कम्युनिस्टों द्वारा संचालित आंदोलनों ने नीची जाति की शोषित जनता, मज़दूरों व किसानों को व्यापक स्तर पर लामबंद किया। महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले का आंदोलन, तमिलनाडु में पेरियार का आंदोलन, अम्बेडकर का दलित आंदोलन ब्राम्हणवाद व जाति व्यवस्था की पूरी संरचना के साथ-साथ पितृसत्तात्मक व्यवस्था को ललकारने में कामयाब रहा। 1849 में ही फूले ने रूढ़िवादी ब्राम्हणों के जबर्दस्त विरोध के बावजूद अछूत महार व मांग जाति की लड़कियों के लिए स्कूल शुरू किया। फुले की संस्था सत्यशोधक समाज के सदस्यों के लिए अपने बेटे व बेटियों दोनों को पढ़ाने की शपथ लेना जरूरी होता था। फुले ने हिन्दू बाम्हण विधवाओं के बच्चों के लिए घर बनाए। उन्होंने खुद एक ऐसे बच्चे को गोद लिया और विधवाओं पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ पूना में नाइयों की हड़ताल भी आयोजित की। फुले ने औरत की गिरती हालत पर काफी भाव प्रवण होकर लिखा। भाषा के मामले में भी फुले जागरूक थे। उन्होंने हर क्षेत्रा में स्त्राी को बराबर का स्थान देने के लिए उचित शब्द का इस्तेमाल किया।

दशकों बाद तमिलनाडु में पेरियार इससे भी आगे बढ़े। उन्होंने मंगलसूत्रा का परित्याग करने की बात की, औरतों और पुरुषों की एक जैसी वर्दी हो, लड़कियों को लड़कों वाले नाम देने का सुझाव रखा, पुरुषों को घर के कामकाज में मदद देने और बच्चों की देखभाल में बराबर की जिम्मेवारी निभाने को कहा। फुले और पेरियार दोनों ने ब्राम्हण पुजारियों और परम्परागत रीतियों को मानने से इंकार कर जाति-व्यवस्था को ललकारा और इस प्रकार की शादी का सुझाव रखा जिसमें स्त्राी-पुरुष को बराबरी का अधिकार हो। उनकी विचारधारा जनवादी थी। आरंभिक सुधार आंदोलनों की उदार नारीवादी नीति से यह आगे बढ़ी। चूँकि उनका नजरिया ऐतिहासिक भौतिकवादी नहीं था, उन्होंने नारी उत्पीड़न व जाति उत्पीड़न का स्रोत सामंती अर्थव्यवस्था में न खोजकर हिन्दू धर्म व संस्कृति में खोजा। यही वजह है कि कुछ समाजविज्ञानियों ने इस प्रवृत्ति को सामाजिक नारीवादी प्रवृत्ति कहा है। कम्युनिस्ट पहले थे जिन्होंने औरत के शोषण के प्रश्न पर ऐतिहासिक भौतिकवादी व्याख्या का सहारा लिया और उनकी संपूर्ण मुक्ति का मुद्दा उठाया। उन्होंने समाज सुधारकों के मुकाबले गुणात्मक रूप में अलग ढंग से संगठन बनाया। उन्होंने लड़ाकू संघर्षों में किसानों व कामगारों को लामबंद किया। कम्युनिस्टों ने शुरू से ही महिला कामगारों को यूनियन का काम करने के लिए प्रेरित करना शुरू किया और यह बात बम्बई व शोलापुर की सूती मिलों की एटक की यूनियनों में औरतों की हिस्सेदारी से देखी जा सकती है। कम्युनिस्टों ने सर्वप्रथम महिलाओं के अपने संगठन बनाए जैसे कि बंगाल में महिला आत्मरक्षा समिति, आन्ध्र महिला संघ और पंजाब वुमैन सेल्फडिफेंस लीग- ये सारी की सारी संस्थाओं ने जन-कार्यों में लगीं औरतों और छात्राओं को लामबंद किया। इनकी सदस्य संख्या पहले 3,000 फिर 20,000 फिर 1944 तक 43,000 तक पहुँच चुकी थी। यद्यपि बाद में इन संस्थाओं ने सांप्रदायिकता, अकाल के समय जमाखोरी और बढ़ती कीमतों के खिलाफ संघर्ष किए। हिन्दू कोड बिल के प्रचार के दौरान केवल कम्युनिस्टों ने ही महिला-पुरुषों के प्रदर्शन इस बिल के समर्थन में किए ताकि रूढ़िवादी विरोधियों का मुकाबला किया जा सके।

कम्युनिस्टों ने औरतों को तेलंगाना व तेभागा, केरल के पुनाप्रावायलार विद्रोह में सीधे लड़ाकू गतिविधियों में शामिल किया। तेलंगाना व तेभागा आंदोलन में औरतें वास्तव में सशस्त्र गतिविधियों में शामिल थीं। तेभागा आंदोलन के अंतिम चरण में जब किसान सभा के कार्यकर्ताओं को भूमिगत होना पड़ा और पुरुषों को गाँव छोड़-छाड़ भागना पड़ा तो औरतों ने ही उस समय मोर्चा संभाला। अपने गाँव व खेतों की रक्षा के लिए हिन्दू, मुस्लिम, दलित व आदिवासी औरतों ने खुद अपनी मिलिशिया नारी वाहिनियाँ बनाई। तेलंगाना में महिलाओं को सशस्त्रा दलों का सदस्य बनाया गया। बहुत सी महिलाएँ दलों में शामिल होना चाहती थीं।महिलाओं के लिए
कानूनी सुधार आंदोलनों को छोड़कर कम्युनिस्टों ने कभी भी विस्तृत रूप में औरतों के मुद्दों को नहीं लिया। महिलाओं ने खुद, शराब पीकर पत्नियों को पीटने वाले पतियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की। भाकपा के दस्तावेज में भी औरतों के उत्पीड़न की तरफ बहुत कम ध्यान दिया गया है। कम्युनिस्टों ने महिला कामगारों को केवल बड़े वर्गीय मुद्दों पर जोड़ा और तब भी उनका नजरिया पुरुषवादी था- ‘‘हम कामगार औरत को एक कामगार की तरह देखते हैं, एक औरत की तरह नहीं।’ इसका परिणाम यह हुआ है कि औरत केवल दोयम दर्जें की कामगार बनी रही और यौन आधार पर मेहनत के बँटवारे में औरत केवल पत्नी और माँ के रूप में देखी जाती रही। संपत्ति के अधिकार के लिए यद्यपि कम्युनिस्ट औरत के उत्तराधिकार के लिए कानूनी परिवर्तन का समर्थन कर रहे थे फिर भी भाकपा के नेतृत्व में हुए भूमि संघर्षों में औरत को भूमि देने का मुद्दा कभी नहीं उठा। ज़मींदारों से छीनी गयी जमीन सदैव भूमिहीन किसान परिवारों के पुरुष मुखिया के नाम पर ही बाँटी गई।


समकालीन आंदोलन 


नारी आंदोलन मृतप्रायः हो गए। इसके कई कारण हैंः

1. विभिन्न राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन भी खत्म हो गए। तेलंगाना व्रिदोह के बाद कांग्रेस से भाकपा तक सभी राजनीतिक पार्टियाँ वोट की राजनीति में उलझ गई। जिन औरतों को पहले के आंदोलनों में लामबंद किया गया था, वे वापिस घरों में चूल्हे-चौके पर चली गईं। केवल कुछ अपवाद मात्रा ही इस राजनीतिक व्यवस्था में बची।

2. नेहरू सरकार ने समाज की भलाई के लिए नीतियों की घोषणा की और राजसत्ता सामाजिक सुधारों की एजेंसी के रूप में दिखाई गई। न्यायपालिका ने (काफी देरी और हिचकिचाहट के साथ) हिन्दू औरतों को संपत्ति, उत्तराधिकार, शादी, तलाक जैसे मुद्दों पर कुछ अधिकार देते हुए यह दिखाने की कोशिश की कि नारी मुक्ति के लिए कानूनी बदलाव ही मुख्य रास्ता है। इसके अतरिक्त सक्रिय महिलाओं को सरकारी संस्थाओं में नियुक्त कर दिया गया।

समकालीन नारी आंदोलन उस जबर्दस्त सामाजिक राजनीतिक हलचलों से पैदा हुआ जिन्होंने 1960 के अंत व 70 के दशक के शुरू में भारत को हिलाकर रख दिया। अकाल, महंगाई, बढ़ता भ्रष्टाचार, चुनावी राजनीति में अस्थिरता और तीव्र होते सामाजिक अंतर्विरोधों ने स्वतः स्फूर्त व्रिदोहों व संघर्षों को जन्म दिया। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने सामंतवाद विरोधी आंदोलन को एक क्रान्तिकारी उभार दिया और बड़ी संख्या में महिलाओं सहित छात्रों व नौजवानों को आकर्षित किया। इस क्रान्तिकारी उभार ने औरतों को पारंपरिक सीमाओं को तोड़कर राजनीतिक गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रेरित किया। जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रेरित छात्रा आंदोलन ने बड़ी संख्या में छात्राओं को लामबंद किया जिन्होंने साहसपूर्वक सामाजिक बंधनों का मुकाबला किया। महंगाई के विरोध में हुए आंदोलनों ने पहली बार शहरी महिलाओं को सक्रिय कर उन्हें सड़कांे पर उतारा गया। महाराष्ट्र में लम्बे समय तक पड़े सूखे में हजारों किसान औरतें अकाल राहत कार्यों में लगीं और बराबर मज़दूरी व काम के लिए आंदोलित हुईं।

अन्तर्राष्ट्रीय घटनाओं का प्रभाव भी पड़ा। पश्चिमी जगत के मुक्ति आंदोलनों ने शहरी पढ़ी-लिखी औरतों में नई चेतना का विकास किया। इस आंदोलन के दबाव के कारण संयुक्त राष्ट्रसंघ को 70 का दशक अन्तर्राष्ट्रीय महिला दशक के रूप में मनाना पड़ा। इससे विश्व भर की महिलाओं की दयनीय स्थिति पर ध्यान केन्द्रित हुआ। औरतों पर उद्योगीकीकरण के कारण हुए नकारात्मक प्रभावों का प्रतिबिम्ब ईशर बोसर्ग के महत्वपूर्ण शोध कार्यों में मिलता है। ऐसे हालतों में 1975 में स्टेट्स आफ वुमेन कमेटी द्वारा जारी रिपोर्ट ने 1947 के बाद से लगातार औरत की गिरती स्थिति पर बड़ी दुखद सच्चाई बयान की है। 

आपातकाल के बाद के जनवादी अधिकारों के लिए हुए आंदोलनों ने महिलाओं के मुद्दों को और बड़ा आधार दिया। औरतों की स्थिति व उत्पीड़न के प्रश्न पर चर्चा करने के लिए भारत के मुख्य शहरों में अनौपचारिक नारी समूह बने जो सैद्धान्तिक व आंदोलनकारी दोनों पहलुओं पर ध्यान रखते थे। बहुत सी महिलाओं के विचार माओवादी या ट्राटस्कीवादी थे और वे भारत के उत्पीड़न के स्रोत परिवार की प्रकृति, औरत के ऊपर विकास का प्रभाव जैसे मुद्दों के विश्लेषण पर गंभीर थीं। इनके बहुत से समूहों ने झोपड़ पट्टी की औरतों, कामगार औरतों, छात्राओं के बीच भी काम किया। इनमें सबसे पहला समूह 1974 में हैदराबाद में नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रभावित होकर मध्यमवर्गीय महिलाओं द्वारा प्रोग्रेसिव ऑर्गेनाइजेशन आफ वुमैन (पी.ओ.यू.) बनाया गया।

आपातकाल के बाद जनवादी अधिकारों के लिए हुए आंदोलनों ने महिलाओं के मुद्दों को और बड़ा आधार दिया। विभिन्न ग्रामीण संघर्षों ने औरत के अधिकारों के प्रश्न को खड़ा किया। जमींदारों के खिलाफ भोजपुर के किसान संघर्ष में ज़मींदारों द्वारा किसान महिलाओं से बलात्कार जैसे मुद्दे को उठाया गया। बोधगया संघर्ष ने औरत के नाम जमीन के पंजीकरण के प्रश्न को उठाया। जमींदारों के खिलाफ लामबंद हुई आदिवासी औरतों ने शराब के खिलाफ आंदोलन किया। इस प्रकार गाँव व शहरों में महिलाओं से जुड़े मुद्दे प्रकाश में आए। मथुरा-बलात्कार मामले पर कोर्ट के फैसले पर और इसके खिलाफ हुए आंदोलनों ने नारी आंदोलन को शहरी इलाकों में और आगे बढ़ाया। इस बलात्कार विरोधी आंदोलन के कारण केवल बड़े शहरों में ही महिला संगठन नहीं बने बल्कि छोटे शहरों व कस्बों में भी महिला संगठनों की स्थापना हुई। यद्यपि इस आंदोलन को प्रभावित करने वाली महिलाएँ क्रान्तिकारी राजनीतिक विचारों से ओतप्रोत थीं लेकिन यह आंदोलन स्वतः स्फूर्त था। कोई भी राजनीतिक दल इसका नेतृत्व करने में या पहलकदमी करने में सक्षम नहीं था। भाकपा और माकपा अपनी संशोधनवादी राजनीति, सोवियत सामाजिक साम्राज्यवाद से मिलीभगत और स्थानीय कर्मियों के कारण उस दशक में किसी भी जनसंघर्ष को उठाने में आगे नहीं रही। चारु नेतृत्व में बनी भाकपा (मा.ले) भी जबर्दस्त सरकारी दमन और बिखराव के कारण राजनीतिक या संगठनात्मक रूप से इस स्थिति में नहीं थी कि महिला आंदोलन पर पहलकदमी कर सके।

मथुरा बलात्कार मामले पर आंदोलन 1980 में शुरू हुआ और इससे बलात्कार संबंधी कानून के संशोधन के लिए भूमिका तैयार हुई। शुरू में यह आंदोलन सत्ता के खिलाफ था। पुलिस द्वारा किए अनेक बलात्कार लोगों की जानकारी में लाए गए, जैसे माया त्यागी, रमीजा बी केस आदि। इस संघर्ष ने यौन हिंसा को एक सामाजिक मुद्दा बना दिया और इस पर एक समझ पैदा करने में मदद दी। यह स्पष्ट कर दिया गया कि बलात्कार मात्रा कामवासना या अनैतिकता का प्रश्न नहीं है बल्कि यह औरत के खिलाफ ताकत का इस्तेमाल है। इसे उत्पीड़न के रूप में देखा जाना चाहिए। 1981 तक दहेज के कारण होने वाली मौतें मुख्य मुद्दा बनीं जिसका कारण उन परिवारों के विरूद्ध प्रचार था जिन घरों में महिलाएँ जिंदा जला दी गई थीं। इसके परिणामस्वरूप परिवार के अन्दर होने वाली हिंसा व शोषण पर ध्यान केन्द्रित हुआ। संपत्ति को लेकर महिलाओं के अधिकारों, विभिन्न पर्सनल कानूनों के तहत महिलाओं के साथ होने वाले अन्यायों का विश्लेषण और आलोचना की गई। चूँकि विभिन्न संगठन मध्यम वर्गीय व शहरी थे अतः इस मुहिम व विश्लेषणों को मीडिया से काफी प्रचार मिला। इस प्रचार का प्रभाव कहीं ज़्यादा हुआ लेकिन औरतें उतनी लामबंद न हो पाईं। इन संगठनों ने नारी आंदोलनों के रूप में पहचान बनाई जिन्हें राजनीतिक पार्टियों व पुरुषों से स्वतंत्रा रखने पर जोर दिया गया। अक्टूबर 1980 में बम्बई में स्वायत्त महिला संगठनों की ओर से एक सम्मेलन किया गया।

1982 के बाद विभिन्न क्षेत्रों व जनसंगठनों में महिलाओं के संगठित होने की प्रक्रिया को स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। बीड़ी मज़दूर, घरेलू कार्य में लगे झोपड़पट्टी में रहने वाले लोग बड़ी संख्या में अपनी-अपनी माँगों को लेकर सड़कों पर उतर आए। कामगार औरतों की एक राष्ट्रीय समन्वय समिति स्थापित हुई। जिसने सार्वजनिक क्षेत्रा में काम कर रही औरतों को इकठ्ठा किया। इस समिति की दो बैठकें हो चुकी हैं जिनमें काम करने के स्थान पर औरतों के साथ होने वाली समस्याओं पर ध्यान केन्द्रित किया गया। सीटू इस समिति के विकास में पहलकदमी कर रहा था। स्वायत्त नारी आंदोलन के प्रभाव में विभिन्न राजनीतिक पार्टियों ने महिला मोर्चे बनाए। जनता दल, एस.एस.पी. और विभिन्न दलित दलों ने अपने राजनीतिक दिशा के समर्थन में महिलाओं को लामबंद करने के लिए महिला जन संगठनों को फिर से सक्रिय किया है। अन्य कामों के साथ-साथ मुस्लिम औरतों से संबंधित प्रोटेक्शन बिल के खिलाफ माकपा ने एक मोर्चा संगठित किया। समस्त भारत में अनेक महिला संगठन, स्वतंत्रा, तो कुछ संशोधनवादी पार्टियों के बाहर, वामपंथ और क्रान्तिकारी विचारधारा को समर्थन देते हुए कस्बों व शहरों में बने हैं। 

कई महिला संगठनों ने इसी समय विपत्ति में पड़ी महिलाओं की सहायता के लिए संस्थाएँ बनानी शुरू की। इन सहायता संस्थाओं के अभाव में दहेज के कारण मौत के केस, बलात्कार के केस व परिवार में होने वाली हिंसा के केस अब तक अनदेखे रह जाते थे। सरकारी वित्तीय सहायता या विदेशी सहायता से सलाह केन्द्र व आत्मनिर्भरता के लिए केन्द्रों की स्थिति व उत्पीड़न को लेकर शोधकार्यों में लग गए। इतिहास को नारीवादी दृष्टिकोण से देखने की कोशिश की गई, नारी संघर्षों का इतिहास व सामाजिक संघर्षों में नारी की भूमिका खोजी जाने लगी। 1986 के बाद से ग्रामीण महिलाओं में भी जागृति दिखाई देती है। किसान संगठनों ने, चाहे उनका नेतृत्व धनी किसान कर रहे हों या क्रान्तिकारी ताकतंे, महिलाओं के मुद्दे उठाए और महिला संगठनों की स्थापना की। 1980 में चंदावा में शेतकरी संगठन के नेतृत्व में 20,000 किसान औरतों का लामबंद होना और शेतकारी महिला अगाड़ी की स्थापना इस बात की सूचक है। टिकैत के नेतृत्त्व में भारतीय किसान यूनियन ने अपने सबसे मज़बूत दिनों (1989-90) में औरतों से संबंधित विशेष मुद्दे (जैसे दहेज) उठाए। इसी प्रकार मार्क्सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में बिहार और आन्ध्र प्रदेश में किसानों और खेतिहर मज़दूरों के संगठनों ने भी महिला मोर्चे की स्थापना की। पिछले दो वर्षों में भाकपा (माले) ने पीपुल्स वॉर नेतृत्व में आदिलाबाद और गढ़चिरोली जिलों में पारंपरिक रूढ़ियों के खि़लाफ़, जो औरत को दूसरा दर्जा देती है, और पुलिस दमन के खि़लाफ़ आदिवासी औरतों ने सम्मेलन आयोजित किए हैं। आंध्र प्रदेश की ग्रामीण महिलाओं द्वारा विस्तृत स्वतः स्फूर्त शराबबन्दी का आंदोलन ग्रामीण महिलाओं की ताकत को दिखाता है जो सुप्तावस्था से धीरे-धीरे जाग रही है। 


राजसत्ता का स्वरूप 


भारतीय शासकवर्ग ने नारी आंदोलन से सरोकार इसे सहयोजित करने की ख़ातिर, ख़त्म और दमन करने खातिर रखा है। नारी आंदोलनों की बदौलत जन्मी चेतना की वजह से, विशेषरूप से शिक्षित मध्यवर्गीय महिलाओं ने उन व्यवसायों, शासकीय एवं प्रबंधन पदों पर प्रवेश किया, जो अभी तक पुरुषों के कब्ज़े में थे। इन वर्गों की नारियाँ स्वायत नारी आंदोलनों में अग्रणी रही हैं। इसकी महत्ता पहचानते हुए शासकवर्ग नारियों में कैरियर निर्माण को प्रोत्साहन करने का काम, अपने प्रचार (माध्यमों) से करता रहा है। इस तरह वे शिक्षित मध्यमवर्गीय नारियों की कुंठित आकांक्षाओं को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं और इस तरह नारी आंदोलनों में बराबरी के प्रश्न को इस पूँजीवादी व्यवस्था में बराबरी तक सीमित कर देते हैं। फलस्वरूप ये नारी आंदोलनों को इस शोषक व्यवस्था को चुनौती देने से रोक देते हैं। सत्ता पक्ष की प्रतिक्रिया और ज्यादा महत्वपूर्ण रही है। यह प्रभाव पैदा करने के लिए कि सत्ता नारी प्रश्नों व स्वायत्त नारी आंदोलनों के अगुआ वर्गों को सहयोजित करने के प्रति सचेत हैं। उन्होंने अनेक कदम उठाए गए हैं। उठाए गए कदमों में ये हैंः 

1. महिला आयोग की स्थापना और नेतृत्व में भी नारीवादियों को इस में लेना,

2. नारी पुलिस दल संगठित करना और उस में महिला कार्यकर्ताओं को लेना,

3. स्त्राी संबंधी अध्ययन व शोध के काम के लिए दिल खोल कर धन देना,

4. नारी समर्थक उद्यमों को राहत एवं सहायता देना जिससे वे सत्ता के नियंत्राण व निगरानी में आ जाएँ,

5. नारी संबंधित मुद्दों से ताल्लुक रखने वाले नए कानून बनाना या उनमें संशोधन करना।

नारियों को राजनीतिक गलियारे में लाने की ख़ातिर उन्होंने पंचायतों, जिला परिषदों व पालिकाओं में उनके लिए आरक्षण लागू किया। इसलिए वे ऐसी छवि पैदा कर रहे हैं जैसे पैसे वालों व प्रतिक्रियावादियों द्वारा कब्जाया यह गै़र जनवादी ढाँचा नारी हितों से वास्तव में सरोकार रखता हो। केन्द्र सरकार व कई राज्य सरकारों ने विदेशी एजेंसियों से कोष लेकर ग्रामीण महिलाओं के लिए कई विकास योजनाएँ शुरू की हैं। इन कार्यक्रमों का उद्देश्य नारी को शिक्षा, ज्ञान एवं तकनीकी कुशलता देना है ताकि वे सरकारी आर्थिक योजनाओं में हिस्सेदारी कर सकें। कर्नाटक और राजस्थान सरकार ने अपनी विकास-योजनाओं में महिला कार्यकर्ताओं व शोधकर्ताओं को मुखिया बनाया है। जबकि एक तरफ सरकार व शासक वर्ग ने गाँव में वर्ग संबंध बदलने व जातीय दीवार तोड़ने के हर प्रयत्न का दमन किया है, वहीं स्त्राी की छवि हीन व दासी जैसी बनाने में व्यावसायिक फिल्मों, टी.वी. धारावाहिकों के जरिए प्रचार माध्यमों का जानबूझ कर इस्तेमाल किया है। न्याय व्यवस्था को स्त्राी-विरोधी बनाकर रखा एवं मज़बूत किया गया। पर अलग-अलग योजनाओं द्वारा अपने को प्रगतिशील छवि देने की कोशिश में लगे हैं। इसी समय सत्ता ने उन नारियों पर जो किसान आंदोलनों व राष्ट्रीयता आंदोलनों में हिस्सा लेती हैं या उनका समर्थन करती हैं घोर दमन किया है। भारी संख्या में महिलाओं की गिरफ़्तारी और उन्हें यातना का शिकार बनाया गया है। वे विशेष पुलिस बल व अर्द्धसैनिक बलों द्वारा बलात्कार का शिकार भी बनी हैं। महिलाओं को फर्जी मुठभेड़ में या यातनाएँ देकर मारा गया है। बलात्कार दमन का एक मुख्य हथियार उन क्षेत्रों में रहा है जहाँ आंदोलन तेज़ हैं। जैसे कश्मीर, तेलंगाना। महिलाओं को आंदोलन में भाग लेने से रोकने वाली दमन की सरकारी  नीति का यह पहलू जनता के सामने नहीं आने दिया गया। सरकार ने साम्राज्यवादियों के लिए अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोल दिए हैं और वह भारी अंतरिम  ऋण, जटिल तकनीक एवं निजीकरण पर आधारित विकास रणनीति में कूद पड़ी है। यह नीति एकाधिकारी पूँजीपति एवं अंतर्राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के बहुत अनुकूल है एवं उसका अर्थ है शहरी और ग्रामीण जनता की बर्बादी और गरीबी। इस नीति का परिणाम मंहगाई के रूप में पहले ही अनुभव किया जा रहा है। इसीलिए सरकार ने अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष व विश्व बैंक के निर्देश पर कुछ विशेष समूहों ख़ासकर गरीब महिलाओं को राहत देने की योजनाएँ चालू की हैं। यह साफ तौर पर उस रोष को ख़त्म करने के लिए है जिसे आर्थिक नीति पैदा कर रही है। अन्तर्राष्ट्रीय प्रायोजित यह रणनीति, जिसे भारतीय सत्ता ने अपनाया है, महिलाओं के सवालों को किस तरह ठंडे बस्ते में डाल रहा है, यह एन.जी.ओ. के कार्य विश्लेषण से समझा जा सकता है।  भारत में नारी आंदोलन के विकास एवं राज्य के रुख के इस संक्षिप्त विवरण के बाद आइए समकालीन नारी आंदोलन में विभिन्न झुकावों पर एक नज़र डालें। ये झुकाव काम करने के यथार्थवादी ढंग और वर्ग संघर्ष व सत्ता से अपने संबंधों के आधार पर दृष्टिगोचर होते हैं। कई नारी-संगठन गैर राजनीतिक होने का बखान करते हैं पर राजनीतिक विचारधारा हर नारी संगठन में देखी जा सकती है। इसलिए हम विभिन्न झुकावों तथा उस में निहित राजनीतिक विचारधाराओं का विश्लेषण करेंगे।


प्रतिक्रियावादी प्रवृत्ति


हिन्दू कट्टरवाद एक स्पष्ट प्रतिक्रियावादी धारा है, जिसने पिछले दशक में महिलाओं को लामबंद करना शुरू किया है, जिसका नेतृत्व भाजपा करती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मातहत महिला शाखा, राष्ट्रीय सेविका काफी वर्षों से काम कर रही है। फिर भी नारी मुक्ति आंदोलनों के प्रभाव के बावजूद यह महिलाओं को आंदोलनों में नहीं ला पाया था। वे उच्च मध्यम वर्गीय, उच्च जातीय महिलाओं को अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए हिन्दू राष्ट्रवाद के नारे केे तहत इकठ्ठा करने में सफल रहे। उनकी सफलता अयोध्या में कारसेवकों में व किराया वृद्धि के खिलाफ संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी से ज़ाहिर है। 

दुर्गावाहिनी की स्थापना उनका नया प्रयत्न है। जहाँ महिलाओं को हिन्दू उद्देश्यों की रक्षा करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। दुर्गावाहिनी सेवा, संस्कृति और संस्कार के सिद्धांतों पर आधारित बताई जाती है। अपने आप में इस सिद्धांत में पितृसत्तात्मक मत निहित है कि नारियों को यह भ्ूामिका अदा करनी चाहिए। राजनीतिक मंच पर महिलाओं को इकठ्ठा कर लेने के बावजूद इस झुकाव का दर्शन महिलाओं को परम्परागत गृहकार्य में सीमित रखने के बात का समर्थन करता है। यह ब्राम्हणवादी संस्कारों को मज़बूत करता है। संघ और भाजपा की नेत्राी विजयाराजे सिंधिया के बयान से यह स्पष्ट रूप से सामने आ गया, जब उन्होंने साफ शब्दों में सती का समर्थन किया। जनवादी नारी मुक्ति आंदोलनों के विकास के लिए इस प्रतिक्रियावादी झुकाव का सीधे जड़-मूल से ख़ात्मा करना होगा।


उदार नारीवादी प्रवृत्ति


पहले के उदारवादी झुकाव को समझते हुए महिलाओं का एक वर्ग कल्याण कार्यक्रमों को चला रहा है, जैसे सिलाई छात्रावास। उनका नजरिया सामाजिक कार्य के द्वारा महिलाओं के उत्थान का  है। शासकवर्ग से इनके संबंध हैं व उनके अनुदान पर निर्भर हैं।  इस उदारवादी झुकाव का ही एक और वर्ग जो आज नारी आंदोलनों पर हावी है वह ग़रीब और असंगठित महिलाओं के बीच काम में लगा है। इस तरह का एक काम ‘सेवा’ ने शहरी ग़रीब महिलाओं को स्वयं रोजगार में संगठित कर लिया है। इनके लिए ऋणदायी संस्थाएँ आदि समर्थन ढाँचे खड़ा करने में दिशा दी है। दूसरे तरह का काम गाँव में विदेशी पैसे की मदद से चलाई जा रही योजनाएँ हैं जो गैर सरकारी संस्थाओं की हैं। इन्होंने गाँवों में विकास योजनाओं का श्रेय लिया है। उनमें से कई योजनाएँ सरकारी योजनाओं की लागू करवाने का काम करती हैं। खासकर ग्रामीण महिलाओं के लिए योजनाओं को एक दशक पहले इनका मुख्य काम रोजगार योजनाओं को लागू करवाना था। अब ये जटिल हो गई हैं। अब इनका मतलब है महिला संगठन बनाकर उन्हें कानून एवं नौकरशाही तरीकों की जानकारी देना ताकि वे खुद रोजगार के लिए सरकार की नीतियों का इस्तेमाल कर सकें। कुछ ज्यादा जटिल संस्थाओं ने शुद्ध रूप से स्थानीय स्तर पर भ्रष्ट अफसरों व ग्रामीण नेताओं के खिलाफ संघर्षों को भी लिया है। जिस भाषा में ये संगठन अपना नजरिया पेश करते हैं वह क्रान्तिकारी लगता है। सरकार के विकास की वर्तमान नीति पुरुषों को फायदा पहुँचाने वाली बताकर उसकी निन्दा की जाती है। वे सामाजिक न्याय, बराबरी, गरीबों व महिलाओं के अधिकार की बात करते हैं और फैनलो तिरेरे से लेकर गांधी जैसे चिंतकों से प्रेरणा लेते हैं। जब वे नीचे आधारभूत संगठनों के विकास की बात करते हैं, वे स्थानीय परिवर्तन को पूरे आर्थिक ढाँचे के बदलाव से नहीं जोड़ते। असल में उनकी विकास की धारणा अस्पष्ट है व मुश्किल से पूरी विकास नीति पर प्रश्न उठाती है। वे महिलाओं और गरीबों को लाभ देने की बात करते हैं लेकिन संपत्ति-संबंधों, असमान भूमि संबंधों व मौजूदा विकास की साम्राज्यवाद-परस्त रुझान की रणनीति को छुए बगैर ही। इसलिए उनका काम केवल सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों को बखूबी लागू करवाना रह जाता है। शासक वर्ग की साम्राज्यवादी प्रायोजित रणनीति के अंदर ही इस कार्य को करने के कारण वे ‘हिंसा से कुछ नहीं होने वाला’ तथा ‘वर्ग दृष्टिकोण यांत्रिक’ है जैसे सिद्धांत बघारते हैं। समस्या को समझाने के लिए वे विकास की ज़रूरत पर बल देते हैं।

इनमें से ज्यादा समूह चुनावी राजनीति या राजनतिक पार्टियों का विरोध करने के नाम पर महिलाओं को राजनीतिक लामबंदी से दूर रखते हैं। राजनीति का विरोध करते हुए ये महिलाओं को उन आंदोलनों से, और उन राजनीतिक सवालों को कार्यसूची से, या ऐसे कार्य से बाहर रखते हैं जो सत्ता व सरकार को चोट पहुंचाएँ। इस तरह वे महिलाओं को उनके फायदे की राजनीति समझने से दूर रखते हैं और प्रतिक्रियावादी सांप्रदायिक पार्टियों के लिए मैदान खुला छोड़ देते हैं ताकि महिलाओं को प्रभावित कर वे उन्हें अपने हित के लिए इस्तेमाल कर सकें।

ये समूह राजनीतिक पार्टियों व वाम पार्टियों की निन्दा करते हुए इन्हें नौकरशाह व ‘कार्यकर्ताओं पर आधारित’ बताते हैं। नौकरशाही कार्य की तर्ज की निंदा करना एक बात है पर संगठन का विरोध करना बिलकुल दूसरी। वे राजनीतिक संगठनों का विरोध करते हैं और स्थानीय स्वतःस्फूर्त आंदोलनों की पैरवी करते हैं। जनता की पहलकदमी विकसित होने देने के नाम पर तथा जनता को खुद ब खुद अपने आंदोलनों को दिशा देने के नाम पर ये किसी भी रणनीति और बड़ी राजनीतिक संस्थाओं को नकारते हैं। 

इस प्रकार की पहुँच गैर सरकारी संस्थाओं में आजकल काफी लोकप्रिय है, जैसे लोकायन। जन आंदोलनों को समर्थन देने का नाटक करते हुए यह पहुँच असमान, अन्यायी व शोषक व्यवस्था को बदलने की कार्यनीति व रणनीति के बजाय स्वतःस्फूर्तता के पीछे धकेल देती है। वास्तव में यह शासक वर्ग के हाथ में खेलती है। अंतर्राष्ट्रीय पूँजी एक उच्च संगठित शक्ति है। भारतीय शासक वर्ग के पास एक केन्द्रीय सत्ता उपकरण है। इस मशीनरी द्वारा वे इस मौजूदा व्यवस्था व प्रतिक्रियावादी विचारधारा जैसे सांप्रदायिकता एवं पितृसत्ता को मज़बूत बनाते हैं। पर इस विचारधारा के अनुसार महिलाओं सहित जनता अपने अत्याचारियों से स्वयं निपट लेगी और सफलता प्राप्त कर लेगी। शासक वर्ग के पास भाजपा व कांग्रेस जैसी सुसंगठित धनी पार्टियाँ हैं जो उनकी आज्ञा मानने को तैयार रहती हैं। इन संगठनों के खिलाफ महिलाओं को इनकी विचारधारा व राजनीति से अकेले अपने स्वतःस्फूर्त, आधारभूत संगठनों से लड़ना चाहिए। इन स्वतंत्रा संगठनों के बीच तालमेल अखिल भारतीय पार्टियों का जवाब मुश्किल से बन सकता है। चुनावी पार्टियों व इनके नौकरशाही कार्यपद्वति की निंदा करना एक बात है लेकिन आधारभूतवाद की पैरवी करना दूसरी बात। यह आधारभूतवाद भ्रम पैदा करता है कि स्थानीय स्तर पर कार्यरत महिलाओं के छोटे समूह व्यवस्था को बदल सकते हैं। यह भ्रम महिलाओं के सही राजनीतिकरण को और दोस्त-दुश्मन की पहचान को रोकता है। ऐसी पहुँच केवल लोगों को निहत्था बनाकर उनकी युद्ध क्षमता के विकास को रोकती है। महिलाओं को दूसरे गरीब व दलितों की भाँति शासक वर्ग की व उनकी नीतियों, विचारधारा और जोड़तोड़ का मुकाबला करने के लिए परिपक्व रणनीति चाहिए। इसके लिए सूचना स्रोतों व युद्धशक्ति की ज़रूरत है जो एक बड़ा संगठन ही दे सकता है। नारीमुक्ति की राह पर आगे बढ़ने के लिए देश के स्तर की कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत है जो उन्हें संघर्षों में शक्तिशाली बनाए।

इस उदारवादी झुकाव में कई दल सीधे और परोक्ष रूप से गांधीवाद की पैरवी करते हैं। महिला मुद्दे को सामान्य सामाजिक एवं आर्थिक मुद्दों से जोड़कर गांधीवादी पहुँच द्वारा उस मुद्दे को हल करने की पैरवी करते हैं। इसलिए मौजूदा विकासनीति पर प्रश्न खड़ा करते हुए वे संपूर्ण विउद्योगीकीकरण एवं अहिंसात्मक गांधीवादी संघर्षों का समर्थन करते हैं। जबकि इन उदारवादी पूँजीवादियों के पास शासक वर्ग की साम्राज्यवाद परस्त नीतियों व उसकी संगठित हिंसा का कोई जवाब नहीं है। इसलिए ये इस व्यवस्था में विश्वास जमाने और स्त्राी को क्रान्तिकारी बदलाव के रास्ते से भटकाने में विचारधारात्मक भूमिका अदा करते हैं। 


मूलभूत नारीवादी प्रवृत्ति


इस प्रवृत्ति ने समाज में मुख्य अंतर्विरोध स्त्राी व पुरुष के बीच में माना है। इसके अनुसार स्त्राी की अधीनता पुरुष द्वारा लैंगिक शोषण है। वर्ग-भिन्नता और भिन्न सामाजिक-आर्थिक संरचनाओं के होने के बावजूद, पितृसत्तात्मक तंत्रा के अंदर पुरुष द्वारा स्त्राी का दमन ही मुख्य अंतर्विरोध है और बाकी सब इसका फैलाव मात्रा है- ऐसा उनका मानना है। इस प्रवृत्ति ने पुरुष और स्त्राी के बीच स्वाभाविक जैविक भिन्नताओं पर ज़ोर दिया है। यह ज़ोर देता है कि स्त्रिायों में कुछ गुण निहित हैं जैसे- प्रकृति से निकटता, पालन पोषण करने का गुण, जनवादी और इकठ्ठे रहने की भावना व शांति बनाए रखना। इस प्रकृति के अनुसार पुरुष के निहित गुण हिंसा और दूसरों पर हावी होने के लिए जिम्मेदार हैं। मूलभूत नारीवाद कुछ व्यक्तियों या छोटे समूहों को छोड़कर अपनी शुद्ध अवस्था में भारत में नहीं दिखाई देता। पर ये विचार दूसरी प्रवृत्तियों को प्रभावित करते हुए देखे जा सकते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक नारीवाद, जो अभी उभरा है, मूलभूत नारीवाद के निकट कहा जाता है। प्राकृतिक नारीवाद, जो कि नारीवाद को पर्यावरण मुद्दों से जोड़ने का एक प्रयत्न है, इस तरह से वर्णित किया जाता हैः ‘‘प्राकृतिक नारीवाद नारी सिद्धांतों, जैसे दूसरे की देखभाल करना, पालन पोषण करना, सहारा देना आदि के महत्व को स्वीकारता है और इसे पर्यावरण से जोड़ता है। नारीवाद ने पृथ्वी पर पितृसत्तात्मक प्रभुत्व के वर्णन द्वारा पर्यावरण की एक राजनीतिक समझ पैदा की है।’’ (वूमेंस एनवायरनमेंटल नेटवर्क-मई, 1991)। यह आंदोलन पर्यावरण, नारीवाद और स्त्राी आध्यात्मिक आंदोलन के एक केन्द्र बिन्दु के रूप मंे देखा जा सकता है। हालांकि इस झुकाव ने पर्यावरण को नष्ट करने वाली योजनाओं के विरुद्ध आवाज उठाई है और ऐसी योजनाओं के खिलाफ लोगों के आंदोलनों का समर्थन किया है, फिर भी यह संकीर्ण है। पुरुष और स्त्राी के बीच जैविक भिन्नता पर बल देकर और सांस्कृतिक, मानसिक गुणों को जैविक भिन्नताओं की वजह मानकर पुरुष स्त्राी की खाई को सामाजिक और परिवर्तनीय मानने के बजाय प्राकृतिक एवं स्थायी बना देता है। यह रुख नारी आंदोलनों के लिए हानिकारक है। नारीवादी सिद्धांत पर बल देने का मतलब है कि वर्तमान शोषक ढाँचे में पुरुष की जगह केवल स्त्राी को समाज में भर देने से सारी बुराइयाँ जैसे- हिंसा, भ्रष्टाचार आदि हल किए जा सकते हैं; ऐसी समझ जो आर्थिक और राजनीतिक संरचना को व उसके ऐतिहासिक संदर्भ को नकारती है, नारी मुक्ति आंदोलन के लिए जरूरी कदम नहीं उठा सकती। इसके अलावा यह पहुँच नारी की प्रकृति के साथ रुमानी नजरिया रखती है। यह कहना कि महिलाएँ स्वभाव से ही प्रकृति को बचाकर रखती हैं, तथ्यों के आगे से उड़ने जैसा है। भारतीय उच्च वर्ग की महिलाएँ उपभोक्तावादी, साम्राज्यवादी पर्यावरण- विरोधी संस्कृति की समर्थक है। संभ्रात जीवन इसी नीति पर आधारित है। इसलिए महिलाओं में वर्ग भेद जरूरी है, जिसे नकारा नहीं जा सकता और यह झुकाव उसे नकारने की कोशिश करता है। 


समाजवादी नारीवादी प्रवृत्ति


इस तीसरी प्रवृत्ति ने भारत के नारी आंदोलन पर एक गहरा प्रभाव डाला। पश्चिमी समाजवादी-नारीवादी लेखों से प्रभावित इस पर अधिकतर नेतृत्वकारी किसी न किसी पार्टी या समूह के कार्यकर्ता रही हैं जो मार्क्सवाद का झण्डा थामें थीं। लाल निशान पार्टी से लेकर माओवादियों के प्रति झुकाव (एल.एल झुकाव) तक समाजवादी-नारीवादी बड़े पैमाने की गतिविधियों में लगे रहे हैं जिनमें अध्ययन व शोध से लेकर जन आंदोलन तक हैं। वे बल देते हैं कि जरूरत वर्ग संबंधों और स्त्राी-पुरुष संबंधों दोनों से लड़ने की है, क्योंकि दोनों शोषण पर आधारित हैं। इसलिए वे वर्ग शोषण व पितृसत्ता से लड़ने को बराबर महत्ता देते हैं। व्यवहार में उसका मतलब हुआ पितृसत्ता पर ज़ोर जैसा कि सामाजिक संबंधों और राजनीतिक पार्टियों, समूहों व संगठनों मंे अभिव्यक्त होता है। समाजवादी नारीवादियों ने नारी आंदोलनों की स्वतंत्राता की गुहार लगाई है और क्रान्ति की ज़रूरत के प्रचार से हट गये हैं ताकि नारी को संसदीय राजनीति की मुख्यधारा में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। 

परिवार में महिलाओं की मातहत स्थिति, परंपरागत लिंगभेद, पूँजीपतियों द्वारा नारी का शोषण करके मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति, घरेलू काम का विश्लेषण और पूँजीवाद के लिए इसका महत्व पितृसत्तात्मक शील और नारी उत्पीड़न इन सबको समाजवादी नारीवादियों ने बखूबी विश्लेषित किया है। दूसरी ओर समाजवादी नारीवादियों के अपने कुछ सार्थक विश्लेषण करने और सिद्धांत गढ़ने की क्षमता और प्रचार माध्यमों को प्रभाव पैदा करने के लिए इस्तेमाल करने की क्षमता को महत्व देते हैं। वे खुद जन लामबंदी की ज़रूरत को नकारते हैं। लेकिन दूसरांे जन आंदोलनों के और उनमें भागीदारी को महत्व देते हैं। उनमें से काफी छोटे समूहों से संबंध रखते हैं जो जन आंदोलनों के समर्थक हैं। वे राजनीतिक पार्टियों की ओर बड़ा आलोचनात्मक रुख रखते हैं, खासकर वामपंथी पार्टियों की ओर। वाम राजनैतिक पार्टियों द्वारा महिला मुद्दों को गंभीरता से न लेने की निंदा की जाती है। लेकिन संसदीय और क्रान्तिकारी वाम पार्टियों में वे उनकी कार्यविधि और उपलब्धियों में फर्क नहीं करते। संशोधनवादियों और क्रान्तिकारियों में घालमेल करने की यह प्रवृत्ति स्वयं मार्क्सवाद पर एक हमला है। स्त्राी-हित के नाम पर ये क्रान्ति के गंभीर सवालों पर चर्चा करने को रोक देते हैं। 

समाजवादी नारीवादी नारी आंदोलनों के स्वतंत्रा होने पर ये बड़ा ज़ोर देते हैं। इस स्वतंत्राता का मतलब राजनीतिक पार्टियों, सत्ता एवं पुरुषों से स्वतंत्राता। राजनीतिक पार्टियों से स्वतंत्राता तकनीक के तौर पर ठीक हो सकती है कि यह चुुनावी राजनीति से निरर्थक समझौतों से संबंध नहीं रखेगी। पर एक मुक्तिदायी राजनीतिक विचारधारा मार्क्सवाद से इसे स्वतंत्रा रखना दूसरी बात है। परिवार और राजनीतिक संगठनों में पितृसत्ता को ठीक करने की महती इच्छा रहती है और यह संघर्ष का मुख्य पहलू हो जाता है। बिना उनकी सामाजिक आर्थिक स्थितियों की परवाह किए, जिसमंे वे रह रहे हैं, नारी उत्पीड़न को इस ढ़ाचे के विस्तृत अंतर्विरोधों से जोड़े ही। नारी शोषण और वर्ग शोषण को बराबर महत्ता देना सिद्धांततः गलत है। यह नारी मुद्दे को गैर ऐतिहासिक बना देती है और इस झुकाव को समाज को ही पूरी तरह से बदल देने की रणनीति अख्तियार करने से लगातार रोकती रही है। इसने उन्हें सत्ता के विरूद्ध एक सतत प्रतिरोध करने से भी रोका है। जो कि शासक वर्ग का इस अन्यायी, शोषक ढाँचे को बनाए रखने का मुख्य जरिया है। 

हालांकि नारी आंदोलन खासकर समाजवादी नारीवादी अभी तक आंदोलन द्वारा उपलब्ध नकारात्मक पहलू व सीमाओं को स्वीकार करते हैं फिर भी वे सत्ता के खिलाफ और इस ढाँचे को पूरी तरह बदल देने के लिए अटल नहीं रहे हैं। वे मानते हैं कि महिलाओं के लिए आर्थिक मौकों की कमी उनकी लड़ने की क्षमता को घटाती है। वे मानते हैं कि कानूनी सुधारों ने पुलिस की ताकत को ही बढ़ाया, जबकि आंदोलन इतना ताकतवर और व्यापक नहीं है कि पुलिस पर नियंत्राण रखा जा सके। वे नारी आंदोलन की जनवादी चेतना के प्रति राज्य के वैरीपूर्ण रुख से भी वाक़िफ हैं, जैसा कि राजस्थान में एक साथिन के साथ बलात्कार की घटना के उदाहरण से स्पष्ट है। फिर समाजवादी नारीवादियों के कई समूह सत्ता और विदेशों से अपने काम के लिए पैसा लेते हैं। सत्ता द्वारा खड़े किए गए फोरमों में भी वे भाग लेते हैंः जैसे कमीशन व पुलिस सेल। वे महिलाओं की राजनीतिक, स्थानीय, स्वयंशासी संस्थाओं में भागीदारी की पैरवी भी कर रहे हैं। वास्तव में इनके एक नेतृत्वकारी समर्थक के शब्दों में ‘‘हमारे सामने बड़ा चुनौती भरा सवाल है- मुख्य राजनीतिक धारा में, कानूनी व्यवस्था में, सरकारी नीति निर्धारण में, विशिष्ट सामाजिक राजनीतिक आंदोलनों में महिलाओं के लिए स्थान बढ़ाना।’ समाज बदलने के लिए महिला आंदोलनों से उन्हें अधिकार दिलाना और जनवादी समाज की स्थापना के लिए जरूरी रणनीति की कमी रखते हुए वे अब नारी के लिए इसी आर्थिक सामाजिक ढाँचे में भ्रष्ट चुनावी राजनीतिक भागीदारी से अधिकार दिलाने की बात करते हैं। इनमें से काफी लोगों का समय सरकार के पीछे सुधारों को प्राप्त करने के लिए लगने में ही गुजर जाता है। यह पूँजीवादी राजनीति है जो सर्वाेत्तम स्थिति में सुधारवादी मानी जा सकती है और यह हमारे समाज में या महिलाओं की स्थिति में कोई भी सार्थक परिवर्तन नहीं ला सकती।  समाजवादी नारीवादी बाकी दलितों और शोषितों से नाता जोड़ने के पक्षधर हैं लेकिन राजनीतिक पार्टियों के, यहाँ तक कि क्रान्तिकारी पार्टियों के भी विरोध में हैं और फिर भी जनसंगठनों से तालमेल की बात करते हैं। उनके अनुसार सरकार से, यूनियनों से, संघर्षों से तालमेल की ज़रूरत है। यह समझ उसी उदार-नारीवादी जैसी है। जो इस घोर शोषक और उत्पीड़क राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष को स्वतःस्फूर्तता की गोद में छोड़ देती है। संघर्ष में भाईचारे की ज़रूरत है लेकिन वह भारत में पूर्ण बदलाव लाने के लिए उपयुक्त रणनीति और सही संगठन का विकल्प नहीं है। वास्तव में समाजवाद की ज़रूरत बताने वाले इन समूहों के समर्थक अब गर्मजोशी से पैरवी करने लगे हैं कि वर्तमान सरकारी संस्थाओं को लिंग युद्धों के प्रति ज्यादा सचेत बनाने की राजनीति अपनाई जाए। सत्ता पर पैसे के लिए किस हद तक निर्भरता, उच्च वेतनभोगी व्यवसायिक पदों की स्वीकृति एवं आवश्यकता, वजीफा लेना, इन सबके द्वारा ही क्रान्ति की ज़रूरत को छोड़ देने की चाल है।


संशोधनवादी प्रवृत्ति 


1940 तथा 1950 के शुरुआती दौर की कम्युनिस्ट परम्परा के संघर्षों से, जिन में सैकड़ों महिलाओं खासकर किसान महिलाओं को लामबंद किया गया था, उसका फायदा उठाते हुए संशोधनवादी पार्टियों ने कामगार महिलाओं के एक हिस्से से अपना जनाधार बनाया, जो अब भी उनके साथ हैं। टेªड यूनियन आंदोलन का इस में विशेष योगदान रहा। पर भाकपा की राजनीतिक दिशा जो पूँजीवादी शासक वर्ग को प्रगतिशील और साम्राज्यवाद-विरोधी मानती थी, महिलाओं में काम करने के उनके दृष्टिकोण को नेहरू सरकार द्वारा नारी कल्याण के लिए चलाई जा रही गतिविधियों के दायरे तक सीमित कर दिया गया। स्वायत्त नारी आंदोलनों से प्रभावित होकर, संशोधनवादी पार्टियों ने अपने महिला मोर्चों को फिर से सक्रिय किया है और दहेज, बलात्कार, पति द्वारा पत्नी को छोड़ना व मुस्लिम महिला बिल का विरोध करना आदि मुद्दे लिये हैं। आश्रय स्थलों की स्थापना करना, सिलाई सिखाना व औरतों के लिए कुछ लघु उद्योगों की स्थापना करना आदि जैसी कार्रवाईयाँ भी उन्होंने की हैं। इन पार्टियों की जो संशोधनवादी राजनीतिक व वैचारिक दिशा है, उसका प्रभाव नारी आंदोलन के प्रति उनके दृष्टिकोण पर भी पड़ा है। मार्क्सवाद के उन्होंने अंधवादी मतलब निकाल कर जो दिशा अपनाई है, उसके अनुसार समाजवाद आने से नारी-मुक्ति अपने आप ही आ जाएगी। आधार व ऊपरी ढाँचे के बीच संबंधों के इस यांत्रिक अर्थ या समझ से वास्तव में निष्क्रियता को बढ़ावा मिलता है व यह तात्कालिक वैचारिक तथा व्यवहारिक संघर्षों की कीमत कम आँकता है तथा नए उठने वाले मुद्दों को एक नए ढंग से सामना करने से रोकता है। इसके कारण पूँजीवादी नारीवादी प्रवृत्ति को भी जगह मिल जाती है। इसके अलावा संशोधनवादियों ने कभी भी सामंतवाद को आर्थिक या सांस्कृतिक क्षेत्रा में संघर्ष या हमले का निशाना नहीं बनाया है। उन्होंने भारत में महिलाओं को पीड़ित करने के यंत्रों पर कोई ठोस समझ नहीं दी है। यह बात जाहिर हो जाती है जब वे परिवार रूपी संस्था को छूने में या जनवाद के लिए संघर्ष करने व यौन के आधार पर काम करने के परंपरागत विभाजन को अपनी पार्टियों के भीतर चुनौती देने में वे लोगों को लामबंद करने में अनिच्छा दिखाते हैं। 

माकपा व इसके महिला मोर्चे ने पश्चिमी बंगाल में बढ़ते बलात्कारों के मुद्दे पर तथा एक विरोधी संगठन की महिला से अपने पार्टी कार्यकत्ताओं द्वारा बलात्कार के मुद्दे पर जो कार्यवाहियाँ की हैं व जो विचार व्यक्त किये हैं उससे माकपा किस हद तक पितृसत्तात्मक विचारधारा व सांगठनिक मौकापरस्ती का शिकार है, उसका दहला देने वाला जीता जागता उदाहरण है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने न केवल मुद्दे के प्रति लापरवाही दिखाई बल्कि अपने कैडर के पितृसत्तात्मक महिला विरोधी रवैये को भी बनाए रखा है। इससे बुरी बात तो यह है कि धानू के बलात्कार के केस में जिन कार्यकर्ताओं को दोषी ठहराया गया था, उन्हें भी बचाया गया व राजनीतिक व सामाजिक सिद्धांत से ऊपर तात्कालिक सांगठनिक फायदे को रखा गया। भाकपा और माकपा के महिला संगठन आर्थिक सहायता के माध्यम से व सरकार द्वारा चलाई गई गतिविधियों से सहयोग के जरिए राजसत्ता (सरकार) के साथ जुड़े हुए हैं। स्वायत्त महिला आंदोलन की विघटनकारी नीति की आलोचना इसलिए नहीं की जाती है कि वे सरकार से जुड़ी हुई हैं, बल्कि इसलिए की जाती है कि वे संसदीय राजनीतिक दलों से स्वतंत्रा हैं। पार्टियों के बीच नारी आंदोलन के ऊपर एकाधिकार के लिए, राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय कई मंचों पर नारी आंदोलन का प्रतिनिधित्व करने के लिए व महिलाओं को अपनी राजनीतिक दिशा पर लामबंद करने के लिए संघर्ष चलता रहता है। मौजूदा संसदीय प्रणाली के दायरे में काम करते हुए संशोधनवादी पार्टियों ने महिलाओं को अपनी राजनीतिक दिशा पर एक हद तक लामबंद किया है। जैसे शांति व बढ़ती मंहगाई के मुद्दों पर। मगर मौजूदा राजनीतिक ढाँचे में एक विरोधी गुट बने रहने की सहूलियत को बनाए रखते हुए व क्रान्तिकारी उद्देश्य को छोड़ देने के कारण उनमें न केवल शोषण करने वाले अर्द्ध-सामंती, अर्द्ध-उपनिवेशी ढाँचे को उखाड़ फेंकने वाली क्रान्तिकारी ताकत की कमी है बल्कि उन्होंने अपनी वोट की राजनीति की आवश्यकता के अनुसार नारियों की जरूरत को भी इसके अधीन कर दिया है। 


गैर-ब्राम्हणवादी दलित प्रवृत्ति


महिलाएँ खासकर अनुसूचित जातियों से, काफी संख्या में कई ऐसे संगठनों में लामबंद की गई हैं जो दलित या अम्बेडकर की राजनीति को मानती हैं। शुरू में महिलाओं को जाति-उत्पीड़न के विरुद्ध अधिकारों के लिए विशेषकर छुआछूत के विरुद्ध लामबंद किया गया। इन जातियों की महिलाओं के जीवन की परिस्थितियों, उनके मज़दूरी करने के लिए सामान्य भागीदारी से यह अर्थ निकाला गया कि ऊँची जातियों द्वारा अपनायी
गयी रीतियों द्वारा जो सामंती उत्पीड़न होता है, उससे वे प्रभावित नहीं होती, न ही अपने उत्तराधिकार के बारे में चिंता प्रकट करती हैं। सैद्धान्तिक रूप से गैर-ब्राम्हणवादी राजनीति जाति-उत्पीड़न (व औरतों के उत्पीड़न) का कारण हिन्दू धर्म में ढूँढती है। इसलिए यह धारा उन तरीकों का भण्डाफोड़ करने में सक्रिय रही है, जिन से हिन्दूवाद नारी की गुलामी को उचित मानती है और अंधविश्वासों को बढ़ावा देती है। इस धारा ने मनुस्मृति पर ज़ोरदार हमला किया है। फिर भी, समाज के भौतिकवादी विश्लेषण की कमी के कारण उत्पीड़न का सा्रेत उन्होंने धार्मिक संस्कृति में ढूँढा है और इस संस्कृति के आर्थिक आधार को नजरअंदाज किया है। चूँकि हिन्दूवाद का बोझ अधिकतर ऊँची जाति व ऊँचे वर्ग की महिलाओं पर पड़ा है। (जैसे पर्दा प्रथा, सती प्रथा, विधवापन, दहेज आदि) अतः वे उसके प्रभाव को अस्वीकार करते हैं और उनमें एक रुझान ऐसा है कि अनुसूचित जातियों की महिलाओं की उससे मुक्ति की आवश्यकता नहीं है। वैसा उत्पीड़न जो निचली जाति की महिलाओं को झेलना पड़ता है, जैसे परिवार में हिंसा, शराब पीकर पत्नी की पिटाई, पत्नी को छोड़ देना, सामंतों द्वारा रखैल के रूप में रखा जाना आदि को इस धारा के संगठनों ने अभी भी पूरी सक्रियता से नहीं उठाया। एक शोषित जाति के लिए, जिसे अपने परंपरागत शोषकों का सामना करना पड़ रहा है, आत्मालोचना एक जटिल प्रक्रिया है, जिसकी भारत में हाल ही में शुरुआत हुई है। 


शेतकरी संगठन प्रवृत्ति


शेतकरी संगठन ने नारी मोर्चे की शुरुआत के साथ नारी शोषण का एक विश्लेषण रखा है। शरद जोशी ने ज़ोर दिया है कि हिंसा इस पितृसत्तात्मक, आर्थिक तौर पर शोषण करने वाली व्यवस्था के लिए जिम्मेदार है। इसलिए 1988 में चांदवड कैंप में व 1989 में अमरावती सम्मेलन में सांप्रदायिक हिंसा, नारी हिंसा व असुरक्षा मुख्य मुद्दे थे। इस समझ में यह बात छिपी है कि महिलाएँ कम भ्रष्ट होती हैं व अहिंसाप्रिय होती हैं। इस समझ को उनके धनी किसानों के उस विश्लेषण के साथ, जिसमें कृषि अर्थव्यवस्था में वर्ग अंतर्विरोध को नजरअंदाज किया गया, देखा जा सकता है। जब वे इस बात का प्रचार करते हैं कि पंचायती राजनीति में हिंसा व भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जा सकता है, बशर्ते पंचायत में सभी महिलाएँ चुनी जाए। गैर-बराबर ज़मीन की मिल्कियत के प्रभाव को कम करके आँकना व सरकारी अनुदान तथा दूसरे साधनों के लिए लड़ाई में हिंसा का प्रयोग करना गाँव की राजनीति की आम बात है। परिणामस्वरूप शेतकरी संगठन ने महिलाओं को पंचायती व जिला परिषद की राजनीति में सक्रिय रूप से उतारा है पर उन्हें किसान संघर्षों व उनके संगठन में आगे नहीं ले आए। संगठन ने महिलाओं की शक्तिहीनता व निर्भरता के दो महत्वपूर्ण सवालों पर किसानों को अपनी जमीन का एक छोटा हिस्सा अपनी पत्नियों के नाम करवाने की बात रखी है। जनजीवन में महिलाओं के हिस्सा लेने और आर्थिक साधनों पर नियंत्राण न होने के सवाल पर शेतकरी संगठन कृषि अर्थव्यवस्था व राजनीति को पूरी तरह बदलने के स्थान पर सुधारवादी हल प्रस्तुत करता है। 


क्रान्तिकारी प्रवृत्ति


देश के कई भागों में कई मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी संगठन लोगों में अपना आधार बनाने में सफल हुए हैं। उन्होंने ग्रामीण गरीब महिलाओं को काफी संख्या में लामबंद किया है। इसलिए पिछले दशक में ज़्यादा से ज्यादा ग्रामीण महिलाएँ क्रान्तिकारी राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं। सामंतवाद
के विरूद्ध संघर्षों में और राजसत्ता के विरूद्ध लड़ाई में क्रान्तिकारी झुकाव महिलाओं की लड़ाकू प्रवृत्ति को पैदा करने में कामयाब रहा। आंध्रप्रदेश और दण्डकारण्य में महिलाएँ सशस्त्रा दस्तों में आई हैं और 1969 से आज तक इस इलाके में 64 महिलाएँ शहीद हुई हैं। जिन्हें या तो गोली से उड़ा दिया गया या पुलिस द्वारा यातना देकर मार डाला गया। इस आंदोलन के परिणामस्वरूप अब महिलाओं के लिए विशेष जनसंगठन बनाए गए हैं- जैसे क्रान्तिकारी आदिवासी महिला संगठन। यह संगठन वर्ग दुश्मन और राजसत्ता के विरुद्ध संघर्ष में व आदिवासी महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों के विरूद्ध संघर्ष में महिलाओं की भागीदारी में एक केन्द्रिय भूमिका निभा रही हैं। उन्होंने आदिवासी लड़कियों और महिलाओं का गैर-आदिवासियों द्वारा यौन शोषण के विरोध में, उन आदिवासियों के रिवाजों का विरोध करने जो कि महिलाओं के विरूद्ध है, जैसे वधू की कीमत लगाना, शादी-शुदा औरतों के ब्लाउज पहनने पर प्रतिबंध लगाना, एक सफल संघर्ष किया। उन्होंने अधंविश्वासों के विरूद्ध भी अभियान छेड़े हैं। 

बिहार में भी आदिवासी, गरीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों के घरों से औरतें सामंतों के विरुद्ध संघर्ष में उत्साहपूर्वक भाग ले रही हैं। परिणामस्वरूप नारी मुक्ति संघ और नारी मुक्ति संघर्ष समिति का गठन हुआ है। क्रान्तिकारी संगठनों के बढ़ते हुए प्रभाव को इस बात से देखा जा सकता है कि इस वर्ष अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस की रैली पर नारी मुक्ति संघ ने 15000 से ऊपर महिलाओं को लामबंद किया। आन्ध्र प्रदेश और बिहार में क्रान्तिकारी किसान संघर्षों ने सामंतवादी पितृसत्तात्मक रिवाजों, खास तौर पर सामंतों के छोटी जाति और वर्ग की महिलाओं के श्रम और यौवन पर परंपरागत अधिकारों के विरूद्ध ज़ोरदार संघर्ष किया। इन रिवाजों को ख़त्म करना और कामगार वर्ग की महिलाओं के सम्मान को फिर से स्थापित करना इस संघर्ष की एक उपलब्धि रही है। इसके अलावा बराबर काम के लिए बराबर मज़दूरी के लिए संघर्ष किया है। जहाँ-जहाँ आंदोलन मज़बूत था, वहाँ सफलता भी मिली है। छात्राओं को भी लामबंद किया गया है। क्रान्तिकारी नेतृत्व में कई कस्बों और शहरों में संगठन बनाए गए हैं। इस आंदोलन ने गरीब किसान और आदिवासी महिलाओं के नए नेतृत्व को उभारा है, जिन्हें विधिवत कोई शिक्षा भी नहीं मिली है। दुर्भाग्यवश इन संघर्षों व सांगठनिक गतिविधियों को प्रचार माध्यमों के क्रान्तिकारी राजनीति के विरुद्ध रवैये तथा अखिल भारतीय संगठन की कमी के कारण वह प्रचार न मिल सका जो मिलना चाहिए था। 

क्रान्तिकारी धारा पितृसत्ता के विरुद्ध लड़ाई को जमींदारों, विदेशी पूँजीपतियों व भारतीय दलाल पूँजीपतियों के मौजूदा आर्थिक व राजनीतिक शासन को उखाड़ फेंकने की लड़ाई से अच्छी तरह जुड़ा हुआ मानती है। इसलिए नारी आंदोलन को भारत में सामंतवाद-साम्राज्यवाद के शासन को उखाड़ फेंकने के लिए तथा पितृसत्ता का नाश करने के लिए चल रहे सशस्त्रा संघर्ष का रिश्ता बनाना चाहिए। क्रान्तिकारी धारा के अनुसार महिलाओं के आंदोलन की मुख्य ताकत ग़रीब व भूमिहीन किसान औरतें और कामकाजी महिलाएँ हैं। निम्न पूँजीपति वर्ग की महिलाएँ एवं व्यवसायी महिलाएँ इनकी सहयोगी होंगी। नारी मुक्ति के प्रश्न को इस वर्ग की महिलाओं, जो कि महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा बनाती है, के नजरिये से देखा जाना चाहिए। नारी मुक्ति का अर्थ है घरेलू कामकाज की जंजीरों से उनकी मुक्ति। उत्पादन व राजनीतिक ताकत में पूरी व बराबरी की भागीदारी। महिलाओं में ज्यादातर काम इसी समझ के आधार पर किया जा रहा है। फिर भी क्रान्तिकारी धारा ने नारी मुक्ति के प्रश्न को नव जनवादी क्रान्ति से जोड़ते हुए एक पूरी समझदारी वाला दृष्टिकोण नहीं रखा है। इसके साथ क्रान्तिकारी संगठनों में महिलाओं को नेतृत्वकारी भूमिकाओं ने इतना विकसित नहीं किया गया है जितना कि अन्य देशों के संगठनों मंे किया गया। इस कमजोरी के कई कारण हैं जैसे कि पितृसत्तात्मक सामंतवादी रवैया, भूमिगत कार्य के साथ जुड़ी हुई समस्याएँ, वे कठिनाईयाँ जो खासतौर पर शुरू की अवस्था में होती हैं। औरतों की मुक्ति तभी संभव हो सकती है जबकि महिलाएँ पूरी सक्रियता के साथ मौजूदा सामंती ढाँचे और विचारधारा को ख़त्म करने के लिए लड़े। और यह काम एक क्रान्तिकारी आंदेालन ही कर सकता है। इसलिए क्रान्तिकारी आंदोलन को आधी मानवता की मुक्ति के लिए लड़ी जाने वाली लड़ाई के नेतृत्व की राह में आने वाली कमजोरियों को दूर करना चाहिए। 


निष्कर्ष


नारी मुक्ति आंदोलन के विषय में ऊपर जो कुछ लिखा गया है उससे पता चलता है कि इस समय विभिन्न राजनीतिक विचारधाराएँ इस आंदोलन के ऊपर अपना एकाधिकार स्थापित करने में लगी हैं। साम्राज्यवाद का पक्षधर आधारभूतवाद, गांधीवाद, संशोधनवाद और कथित क्रान्तिकारी मार्क्सवाद गुप्त रूप से व खुले रूप से उन महिलाओं को प्रभावित कर रहा है जिन्हें दमन के खि़लाफ लामबंद किया जा रहा है। नारीवाद अपने आप में सुसंगत व सूझबूझवाली विचारधारा नहीं है। नारीवाद के कई मतलब निकाले जाते हैं और इसे इस तरह समझा जा सकता है कि ‘‘महिलाओं’ में एक पीड़ित वर्ग के रूप में बढ़ती हुई चेतना (गेल आमवेट) जो कि भिन्न-भिन्न राजनीतिक विचारधाराओं से जोड़ी जा सकती है। इसलिए नारी आंदोलन राजनीतिक पार्टियों के संगठनात्मक नियंत्राण से स्वतंत्रा हो सकता है पर राजनीकि विचारधारा से यह स्वतंत्रा नही हो सकता। महिलाओं के मुद्दों पर परस्पर सहयोग की काफी गुंजाइश है पर विचाराधारात्मक संघर्षों को नहीं रोका जा सकता।
वर्तमान समय में सुधारवाद व संसदवाद नारी आंदोलन पर हावी हैं। जब तक नारी आंदोलन इससे अपने आप को अलग नहीं करता, यह ठहराव की स्थिति से बाहर नहीं आ सकता। भारत में शासक वर्ग आज साम्राज्यवाद के सहयोग से नारी आंदोलन को व उसकी क्रान्तिकारी जनवादी ताकत को ख़त्म करने की कोशिश कर रहा है। वर्ग संघर्ष के विरुद्ध लिंग-भेद पैदा करके वे लोग नारी आंदोलन को व्यापक क्रान्तिकारी संघर्ष से अलग-थलग करने की कोशिश कर रहे हैं। संशोधनवादी समूहों/पार्टियों की कमज़ोरी पर हमले को वे लोग मार्क्सवादी विचारधारा पर हमले में बदल रहे हैं। एक विदेशी सहायता प्राप्त गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ.) के एक वरिष्ठ व्यक्ति जो कि बंगलूर आई.एस.आई. का अध्यक्ष है, बात स्पष्ट हो जाती है की, ‘‘परम्परागत मार्क्सवादी रुख अपनाने वालों को छोड़कर’ शुरूआती मूलभूत नारीवाद, सांस्कृतिक नारीवाद, प्राकृतिक नारीवाद, नव मार्क्सवादी नारीवाद सभी धाराओं को मज़बूत किया जाना चाहिए तथा हमारे देश के विशेष हालातों के अनुसार ढाला जाना चाहिए।’ हमारे समाज के किसी और हिस्से से संभवतया कहीं ज़्यादा भारतीय महिलाओं को इस अर्द्धसामंती, अर्द्ध-उपनिवेशी भारत से मुक्ति की आवश्यकता है। उन्हें इस तरह की अर्थव्यवस्था चाहिए जो उन्हें रोजगार दे सके। उन्हें पितृसत्तात्मक सामंती पारिवारिक संबंधों व संस्कृति को तोड़ने तथा उन्हें एक जनवादी संस्कृति से बदलने की ज़रूरत है। उन्हें आधारहीन कामुक संस्कृति से भी मुक्ति की जरूरत है। ज़्यादातर महिलाओं को राजनीतिक जीवन मंे आगे आकर भागीदारी करने के अवसरों की ज़रूरत है। इसके लिए एक क्रान्तिकारी बदलाव की ज़रूरत है। यह क्रान्तिकारी आंदोलन के आगे एक चुनौती है कि महिलाओं को क्रान्तिकारी सघर्षों में आगे लाएँ और औरतों की मुक्ति को नव जनवादी क्रान्ति के साथ जोडं़े। मौजूदा नारी आंदोलन में भाग लें और इसे राजसत्ता के विरुद्ध खड़ा करें। मार्क्सवाद को और विकसित करने के लिए महिलाओं के प्रश्न पर जो सैद्धान्तिक विकास हुआ है, उसे मार्क्सवाद में शामिल करें। और न केवल कामगार जनता बल्कि पीड़ित नारियों की मुक्ति के लिए एक अगुआ दस्ते के रूप में खड़े हों। स्त्रियों को क्रान्ति की ज़रूरत है और क्रान्ति को स्त्रियों की। 

2 comments:

  1. बिल्कुल सटीक लिखा है आपने | महिलाओं को हमने उड़ने को पर तो दिया है पर उसे हम उड़ने नहीं देते | हमने उसे क़ैद कर रखा है |

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