Monday 30 November 2015

मैं मर के अमर हो जाता हूँ- अली सरदार जाफ़री

(२९ नवम्वर - अली सरदार जाफरी का जन्म दिवस) 
अरविंद कुमार यादव 

न्‌ 29 नवम्बर 1913 ई. को जन्म लेने वाले प्रसिद्ध शायर अली सरदार जाफ़री के लिए निश्चित ही नवम्बर एक यादगार महीना रहा होगा। बकौल अली सरदार जाफ़री
नवम्बर, मेरा गहंवारा है, ये मेरा महीना है
इसी माहे-मन्नवर में
मिरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रौशनी देखी
मिरे कानों में पहली बार इन्सानी सदा आयी ।
सरदार जाफ़री का जन्म गोंडा ज़िले के बलरामपुर गाँव में हुआ था और वहीं पर हाईस्कूल तक उनकी शिक्षा-दीक्षा भी हुई थी। घर का वातावरण उत्तरप्रदेश के मध्यवर्गीय मुस्लिम घरानों कि तरह ख़ालिस मज़हबी था और चूँकि ऐसे घरानों में ‘अनीस’ के मरसियों को वही महत्व प्राप्त है जो हिन्दू घरानों में गीता के श्लोकों और रामचरितमानस  की चौपाइयों को, अतः अली सरदार जाफ़री पर भी घर के मज़हबी और अदबी (साहित्यिक) वातावरण का गहरा प्रभाव पड़ा और अपनी छोटी सी आयु में ही उन्होंने मर्सिए (शोक काव्य) कहने शुरू कर दिए और 1933 ई. बराबर मर्सिए कहते रहे। उनका उन दिनों का एक शेर देखिये-
अर्श तक ओस के क़तरो की चमक जाने लगी
चली ठंडी जो हवा तारों को नींद आने लगी ।
आगे की पढा़ई के लिए उन्होंने अलीगढ़ की मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। यहाँ पर उनको उस समय के मशहूर और उभरते हुए शायरों की संगत मिली जिनमें अख़्तर हुसैन रायपुरी, सिब्ते-हसन, जज़्बी, मजाज़, जाँनिसार अख़्तर और ख़्वाजा अहमद अब्बास जैसे अदीब भी थे। उनकी संगत में वे भी विद्यार्थियों के आन्दोलन में भाग लेने लगे। विद्यार्थियों कि एक हड़ताल (वायसराय की एक्जक्यूटिव काउंसिल के विरोध में) करने के सम्बन्ध में विश्वविध्यालय से निकल दिया गया तो उनकी शायरी का रुख मरसियों से राजनैतिक नज्मों कि ओर मुड़ गया। अपनी पढा़ई आगे जारी रखते हुए उन्होंने एँग्लो-अरेबिक कालेज, दिल्ली से बी.ए. पास किया और बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय से एम.ए. की डिग्री हासिल की। फिर भी, छात्र-आंदोलनों में भाग लेने का उनका जज़्बा कम नहीं हुआ। परिणामस्वरूप उन्हें जेल जाना पडा़। इसी जेल में उनकी मुलाकात प्रगतिशील लेखक संघ के सज्जाद ज़हीर से हुई और लेनिन व मार्क्स के साहित्य के अध्ययन का अवसर मिला। यहीं से उनके चिंतन और मार्ग-दर्शन को ठोस ज़मीन भी मिली।
वह आग मार्क्स के सीने में जो हुई रौशन
वह आग सीन-ए-इंसाँ में आफ़ताब है आज
वह आग जुम्बिशे-लब जुम्बिशे-क़लम भी बनी
हर एक हर्फ़ नये अह्द कि किताब है आज।
इसी प्रकार अपनी साम्यवादी विचारधारा के कारण वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुडे़ जहाँ उन्हें प्रेमचन्द, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, फैज़ अहमद फ़ैज़’ , मुल्कराज आनंद जैसे भारतीय सहित्यकारों तथा नेरूदा व लुई अरांगा जैसे विदेशी चिंतकों के विचारों को जानने - समझने का अवसर मिला।
यही सलीक़ा है बस हर्फ़े-बद से बचने का
कि अपनी ज़ात को इतनी बुलंदियाँ दे दो
किसी का संगे-मलामत वहाँ तक आ न सके
चिरागे़-इल्म-ओ-हुनर को कोई बुझा न सके।
कई आलिमों की संगत का यह असर हुआ कि सरदार एक ऐसे शायर बने जिनके दिल में मेहनतकशों के दुख-दर्द बसे हुए थे।
ऐजाज़ है ये इन हाथों का / रेशम को छुएँ तो आँचल है
पत्थर को छुएँ तो बुत कर दें / कालिख को छुएँ तो काजल है
मिट्टी को छुएँ तो सोना है / चाँदी को छुएँ तो पायल है
इन हाथों की ताज़ीम करो..........
            मेहनतकश चाहे खेत के खुले वातावरण में काम करनेवाला किसान हो या मिल की कफ़स में कार्यरत मज़दूर, शोषण तो उसका हर जगह होता है।  सब से अधिक दुख तो इस बात का है कि बाल श्रमिक भी इस शोषण से नहीं बच पाया है।
यह जो नन्हा है भोला-भाला है
सिर्फ सरमाये का निवाला है
पूछती है यह उसकी ख़ामोशी
कोई मुझको बचानेवाला है?
            उनके समस्त कविता- संग्रहों परवाज़’ (1944), नई दुनिया को सलाम’ (1947), ख़ून  की लकीर’ (1949), अमन का सितारा’ (1950), एशिया जाग उठा’ (1950), पत्थर की दीवार’ (1953), एक ख़्वाब और' (1965),लहु पुकारता है’ (1978) का अध्ययन करने से जो चीज बड़े स्पस्ट रूप में हमारे सामने आती है और जिससे हमें सरदार कि कलात्मक महानता का पता चलता है वह यह है कि उन्हें मानवता के भविष्य पर पूर्ण विश्वास है। यही कारण है कि हमें सरदार जाफ़री के यहाँ किसी प्रकार की निराशा और थकन, अविश्वास और करुणा का चित्रण नहीं मिलता, बल्कि उनकी शायरी हमारे मन में नई उमंग जगाती है ।
यही सलीक़ा है बस हर्फ़े-बद से बचने का
कि अपनी ज़ात को इतनी बुलंदियाँ दे दो
किसी का संगे-मलामत वहाँ तक आ न सके
चिरागे़-इल्म-ओ-हुनर को कोई बुझा न सके।
सरदार जाफ़री जिस दौर में अपना लेखन कर रहे थे , वह दौर पूरे विश्व में अशांति का दौर था। एक ओर भारत अंग्रेजी साम्राज्य की ज़ंजीरों से मुक्त होने के लिए संघर्ष कर रहा था तो दूसरी ओर साम्राजी शक्तियाँअपने खुनी जबड़े खोले नये-नये देश निगलने को आतुर थीं। एक ओर दूसरे विश्वयुद्ध के भयानक परिणाम संसार को आर्थिक संकट कि चपेट में ले रहे थे और चारो ओर बेगारी और बेरोज़गारी का भूत तांडव कर रहा था तो वहीँ दूसरी ओर सोवियत रूस की साम्यवादी जीवन-व्यवस्था मनुष्य- मात्र के कल्याण के लिए नए आयाम खोल रही थी और सारी दुनिया के श्रमजीवी उस जीवन-व्यवस्था से प्रभावित हो रहे थे। आज के समय में फिर पूरी दुनिया तीसरे महायुद्ध के भय से भयभीत है । इस प्रकार के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में किसी शायर या लेखक के लिए चुप रहना या
अपना कोई अलग काल्पनिक संसार बसा लेना किसी प्रकार संभव न था। बग़ावत, फ़रेब, तलंगाना, सैलाब-ए- चीन, जश्ने- बग़ावत इत्यादि नज़्मों के शीर्षक देखने भर से पता चल जाता है कि शायर की उंगली हर समय बदलती हुई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों की नब्ज़ पर रही है। सरदार जाफ़री ने केवल परिस्थितियों की नब्ज़ सुनने तक ही स्वयं को सीमित नहीं रखा, बल्कि उन धनकणों के साथ-साथ उनका अपना दिल भी धड़कता रहा। अपनी शायरी को सामयिक स्वीकार करते हुए सरदार जाफ़री कहते हैं कि “ हर शायर कि शायरी वक़्ती (सामयिक) होती है। मुमकिन है कि कोई और इसे न माने लेकिन मैं अपनी जगह यही समझता हूँ। अगर हम अगले वक़्तों के राग अलापेंगे तो बेसुरे हो जायेंगे। आने वाले ज़माने का राग जो भी होगा, वह आने वाली नस्ल गायेंगी। हम तो आज का ही राग छेड़ सकते हैं।” (‘पत्थर की दीवार’ की भूमिका से )
सज्जाद ज़हीर अली सरदार जाफ़री की शाइरी को एक संकल्प और संघर्ष के युग की पहचान के रूप में देखते हैं। सज्जाद ज़हीर आगे बताते हैं कि सरदार ज़ाफ़री के युग में मुझ-सा व्यक्ति जब उनके बारे में इन अनुभूतियों के साथ लिखने बैठता है तो  चेतन और अवचेतन दोनों स्तरों पर अन्दर-अन्दर एक संबंध सक्रिय रहता है। यहाँ सम्बद्धता व तटस्थता और निर्वेयक्तिक अध्ययन जैसे किताबी नुस्ख़े अप्रासंगिक हो जाते हैं। यों तो हर शाइर के बारे में विभिन्न और अन्तर्विरोधी रायें होती हैं। मगर सरदार जाफ़री के बारे में परस्पर विरोधी रायें इसलिए लाज़िम हैं कि उनका सर्जनात्मक व्यक्तित्व वैचारिक स्तर पर साम्यवादी आन्दोलन से सम्बद्ध है और इस आन्दोलन से एकमेक हो गया है। इस सम्बद्धता ने उनकी शाइरी और व्यक्तित्व को अगर विवादग्रस्त बना दिया है तो कोई हैरत की बात नहीं। अगर ऐसा न होता तो हैरत की बात होती।
सरदार जाफ़री की शायरी का यह मैदान इतना विस्तृत है कि अगर इसमें एक तरफ़ ललित लेखन की क्षमता है, जिस तरह चित्र कला में छोटे-छोटे सूक्ष्म लघुचित्रों की; तो दूसरी तरफ़ बड़े-बड़े कैनवास पर मोटी-मोटी रेखाओं और चमकीलें रंगों के सम्मिश्रण से बनाये गये चित्रों की भी है। मैक्सिको की जनता के क्रान्तिकारी संघर्ष का एक परिणाम यह भी हुआ कि वहाँ चित्रकारों ने भवनों की दीवारों पर बड़े-बड़े और जनता के क्रान्तिकारी स्वभाव के अनुकूल बहुत ज़ोरदार और जोशीले भित्ति-चित्र बनाने की कला आविष्कार की और इसे विश्वव्यापी लोकप्रियता प्राप्त हुई। सरदार जाफ़री की बड़ी कविताओं में ऐसी ही बड़ी-दीवारी चित्रकारी का आनन्द है। उनके शब्द स्पष्ट और शक्तिशाली हैं, उनकी लय ऊँची और जोश से भरी हुई है; निश्चित रूप से उनकी शैली उपदेशकों जैसी है, इसलिए कि वे जनसमूह में सुनाने के लिए भी कही गयी हैं। और यह उनका गुण है, अवगुण नहीं। क्या मौलाना रूम की मसनवी का, मीर अनीस के मरसियों का, इक़बाल के शिकवे का, शेक्सपियर ने नाटकों का अन्दाज़ उपदेशकों जैसा नहीं है ? ये सब रचनाएँ जनसमूह को सुनाने के लिए कही गयी थीं; जाफ़री की लम्बी कविताएँ इसी विधा की हैं, इनमें सरलता, प्रवाह और सत्यता है और वे सुननेवालों पर सीधा प्रभाव डालती हैं और कामयाब हैं।
मेरे हाथों में है सूरज का छलकता हुआ जाम
मेरे अश’आर में है इशरते-फ़र्दा का पयाम। 
ज़िन्दगी के आखिरी पड़ाव में जाफ़री ने दुनिया में अमल फ़ैलाने को अपना मकसद बना लिया। मई,1998 में भारत में पोखरण परमाणु परीक्षण से खिन्न सरदार जाफ़री ने खुले तौर पर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपनी नाराज़गी जाहिर की थी। वक़्त गुज़रने के साथ सरदार जाफ़री ने खुद को सियासत से दूर कर लिया और अदब के प्रति समर्पित हो गए। 1998 में सरदार जाफ़री को भारत के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया। इससे पूर्व उन्हें 1965 में सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार, 1967 में पद्मश्री, 1977 में उ.प्र. उर्दू अकादमी पुरस्कार और 1978 में पाकिस्तान सरकार के ग़ालिब स्वर्ण पदक से सम्मानित किया जा चुका था।
 इस अज़ीम शायर ने अपने पूरे जीवन में मज़लूम और मेहनतकश ग़रीबों की समस्याओं को उजागर करने के लिए अपनी क़लम चलाई जिसके लिए उन्हें निजी यातनाएँ भी झेलनी पडी़। 86 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते अपने जीवन के अंतिम दिनों में ब्रेन-ट्यूमर से ग्रस्त होकर कई माह तक मुम्बई अस्पताल में मौत से जूझते रहे।
मैं सोता हूँ और जागता हूँ
और जाग कर फिर सो जाता हूँ
सदियों का पुराना खेल हूँ मैं
मैं मर के अमर हो जाता हूँ।
अंततः 1अगस्त 2000 को इस फ़ानी दुनिया को यह वचन देकर अली सरदार जाफ़री ने अलविदा कहा:-
फिर इक दिन ऐसा आयेगा
आँखों के दिये बुझ जायेंगे
यादों के हसीं बुतखाने से
हर चीज़ उठा दी जाएगी
फिर कोई नहीं पूछेगा
सरदार कहाँ है महफिल में
लेकिन मैं यहाँ फिर आऊँगा॥
सन्दर्भ :
1.    जाफ़री, अली सरदार (2005), मेरा सफ़र , नई दिल्ली : भारतीय ज्ञानपीठ।
2.    जाफ़री, अली सरदार (1972), नयी दुनिया को सलाम, नई दिल्ली : नेशनल बुक ट्रस्ट। 
3.    पंडित, प्रकाश (संपा) , उर्दू के लोकप्रिय शायर ‘अली सरदार जाफ़री’ , नई दिल्ली: राजपाल एंड संस।
4.     Rais, Qamar, (1978), October Revolution- Impact on Indian Literature, New Delhi, Sterling Publishers.
5.    रईस, क़मर (2008), भारतीय साहित्य के निर्माता: सज्जाद ज़हीर, नई दिल्ली: साहित्य अकादमी।  
    
              लेखक  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडी में डाक्टरल फेलो है 
           संपर्क: arvindyadu@gmail.com   

1 comment:

  1. बहुत ही उम्दा ! मुबारकबाद ! साझा करने के लिए शुक्रिया, सर !

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