Thursday, 12 November 2015

गाय : ब्राह्मणवाद और फासीवाद

चंद्रसेन कुमार 

"अम्बेडकर तो यहाँ तक कहते हैं कि ब्राह्मण गाय को इतनी मात्रा और सामूहिक रूप से मारते थे कि इन्हें कसाई कहना ज्यादा सटीक होगा । हिंदू देवता अग्नि, मारुत, आश्विन, और इंद्र गाय- बैल बड़े चाव से खाते थे । हिन्दू राजाओं द्वारा किए जाने वाले बिभिन्न यज्ञों जैसे, अश्वमेघ आदि में इन जानवरों का मांस सामूहिक रूप से सेवन किया जाता था ।"
न 2002, जब अटल बिहारी वाजपेयी की केंद्र सरकार थी तब हरियाणा में गौकशी के शक में पांच दलितों की हत्या कर दी गयी। जब से नरेंद्र मोदी की सरकार आई है ( मई 2014) तब से गाय, पाकिस्तान, मुस्लमान और दलितों के ऊपर हिन्दू ओं का अटैक, इनका प्रिय कार्य-क्षेत्र रहा है । दादरी में भीड़ द्वारा बीफ के शक में अख़लाक़ की हत्या, कश्मीर में हिन्दू गुंडों द्वारा ड्रक ड्राइवर जाहिद की गौ-मांस रखने के शक में हत्या, केरला रेस्टारेंट (दिल्ली) में गाय-मांस खिलाये जाने के शक में इन्हीं लोगों का उत्पात, मणिपुर में एक मुस्लिम युवक की ऐसी ही जघन्य हत्या, साथ ही कर्णाटक के मुख्यमंत्री द्वारा बीफ खाए जाने की स्वीकृति में उनका सर काटने की धमकी, ये घटनायें क्या दर्शाती हैं ? दुनिया में सबसे बड़े लोकतांर्त्रिक देश का ढोंग रचने वाले के हर कोने से संघ का आतंकवाद । इसके निशाने पर न सिर्फ अल्पसंख्यक, दलित बल्कि वो लोग भी आज शामिल हो चुके हैं जो राज्यों के मुख्यमंत्री, मंत्री और सेलेब्रिटीज़ हैं । सब धमकियों, हत्याओं के पीछे एक ही जवाब- गाय हमारी माता है, ये हिन्दू धर्म का मामला है ।ये हिन्दू ओं की आस्था का सवाल है। 
आखिर ऐसा क्यों ? क्या वास्तव में गाय ऐतिहासिक रूप से इतनी श्रद्धेय थी या समय के साथ ये माता और आस्था बनी ? क्या गाय का मांस यहां के हिन्दू ओं, खास कर सवर्णो ने कभी भी नहीं खाया ? या फिर इसमें ब्राह्मणवाद, जातिवाद और अश्पृश्यता का कोई सम्बन्ध भी है ? इसी सवाल को इस तरह से भी पूछा जा सकता है कि -गाय और उसके मांस की जो राजनीति हो रही है उसका इतिहास क्या है ? एवं गाय का हिन्दूकरण तथा ब्राह्मणीकरण कब और कैसे हुआ ? 

गाय और हिंदू धर्म 
अम्बेडकर के अनुसार ब्राह्मण जो आज सबसे बड़े पुजारी और गौ रक्षक बने हुए हैं, वे गाय के मांस को सर्वोत्तम भोज्य पदार्थ मानते थे । यहां तक कि किसी भी अतिथि का सत्कार बिना गाय के मांस के अधूरा माना जाता था । अम्बेडकर तो यहाँ तक कहते हैं कि ब्राह्मण गाय को इतनी मात्रा और सामूहिक रूप से मारते थे कि इन्हें कसाई कहना ज्यादा सटीक होगा । हिंदू देवता अग्नि, मारुत, आश्विन, और इंद्र गाय- बैल बड़े चाव से खाते थे । हिन्दू राजाओं द्वारा किए जाने वाले बिभिन्न यज्ञों जैसे, अश्वमेघ आदि में इन जानवरों का मांस सामूहिक रूप से सेवन किया जाता था । वेदों से लेकर ब्राह्मण ग्रंथों, गृहसूत्र, धर्मसूत्र, तैत्रीय ब्राह्मण और मनुस्मृति में गौ-वध और उसके मांस सेवन का विशेष उल्लेख है ।
प्रसिद्ध इतिहासकार डी. एन. झा ने न सिर्फ उपर्युक्त कथन का समर्थन किया है अपितु गाय मांस खाए जाने के अवशेष हड़प्पा काल से भी मिलते हैं, ऐसा चिन्हित किया है । इनके अनुसार महाभारत के पांडवों और कौरवों ने गाय मांस का सेवन किया है। यहां तक कि पांडवों ने अपने वनवास काल में इन्हीं सब भोज्य पदार्थों का सेवन कर के जीवित रहे । वाल्मीकि रामायण में राम जन्म-उत्सव के दौरान राजा दशरथ ने ऐसे कई पशुओं की बलि दी थी जो धर्मशास्त्रों में मान्य थे ।
हिन्दू कट्टरपंथी नेताओं के साथ-साथ शंकराचार्यों ने गाय को पवित्र घोषित कर उसे माता का नाम दे दिया है । गाय, उसके गौबर-मूत्र को लेकर आज अन्धविश्वास पूरे समाज में फैला दिया गया है । ऐतिहासिक रूप से हिन्दू धर्म-ग्रंथों में ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता है । मजेदार बात तो यह है कि इन्हीं के कानूनविदों और धर्माचार्यों ने गाय की पवित्रता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं । मनु महराज ने तो यहाँ तक लिख डाला है कि यदि गाय किसी भोज्य पदार्थ को सूंघ ले तो उसे पवित्र करना चाहिए क्योंकि वह अपवित्र हो जाती है। ऐसे ही विचार पुराने कानूनविद यज्ञवलक्य, विष्णु, परासर, व्यास ने भी व्यक्त किए हैं । 

गाय अश्यपृश्यता और ब्राह्मणवाद
क्या गाय की पवित्रता और अश्यपृश्यता में कोई सम्बन्ध है ? ब्राह्मणों और उसके बाद गैर-ब्राह्मण हिन्दू ओं द्वारा गाय के मांस को त्यागना क्या परिलक्षित करता है ? उपर्युक्त सवालों का जवाब डॉ. अम्बेडकर ने विस्तार से दिया है । अश्यपृशता का जन्म और गौ-मांस पर पाबन्दी हिन्दू धर्म और बौद्ध-धर्म के संघर्षों का परिणाम है । चूँकि बौद्ध-धर्म ने हिन्दू-धर्म. जातिवाद और ब्राह्मणवाद पर जोरदार प्रहार किया था । लोगों को बौद्ध-धर्म की समतावादी सोच पसंद आने लगी थी इसलिए हिन्दू-धर्म का ह्रास होना लाजिमी था । बौद्ध-भिक्षु और उसके अनुयायी गौ-मांस के साथ-साथ अन्य मांस का सेवन कर रहे थे । 

डॉ. आंबेडकर के अनुसार ब्राह्मणों ने रणनीति के तहत गौ-मांस का सेवन बंद कर दिया । इस प्रकार बौद्ध भिक्षुओं पर नैतिक पतन का अरोप लगाने लगे । गैर-ब्राह्मण हिन्दू भी धीरे-धीरे शाकाहार की तरफ मुड़ गए । ब्राह्मणों ने गाय को मारने और उसका मांस खाने वालों को अश्यपृश्य कहना शुरू कर दिया । चूँकि समाज के एक बड़े भाग के पास अपनी कोई संपत्ति नहीं थी इस कारण से वे मरा हुआ जानवर ही खा कर जिन्दा रहने को मजबूर रहे । गाय और राजनीति आज जिस तरह से पूरे भारत में गाय को लेकर बहस, हत्याएं और दक्षिणपंथी राजनैतिक पार्टियां राजनीति कर रहीं हैं उसका इतिहास पुराना है । आर्यों और बौद्धों के बीच जो संघर्ष चला आज भी वह बड़े स्तर पर चल रहा है । 
बीजेपी सहित आरएसएस ने मुसलमानों को इस बात के लिए टारगेट किया की उनके आने से यहां गौ-हत्या होने लगी । लेकिन इतिहास हमें बताता है कि बाबर, अकबर, जहांगीर और यहाँ तक कि औरंगजेब ने अपने राज्य में गौ-हत्या पर रोक लगायी थी । इन्होंने इसे हिन्दूओं की आस्था का सवाल मानते हुए गौ-हत्या को जुर्म माना । गाय का महत्त्व हिन्दूओं के लिए इतना बढ़ चुका था कि मंगल पांडे जैसे ब्राह्मण ने १८५७ में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया । यह विद्रोह इस बात पर हुआ था कि करतूस में गाय की चर्बी का इस्तेमाल होता है ।
१८८२ में दयानंद सरस्वती ने गाय रक्षक दल बना कर इसे सांप्रदायिक रूप दे दिया। प्रोफेसर झा के अनुसार, दयानंद सरस्वती ने मुसलमानों के खिलाफ हिन्दूओं को गाय पर ही मोबलाइस किया, जिसके चलते १८८० और १९९० के दशकों मे कई दंगे हुए । १९९३ में हुए दंगे में कई लोग मरे गए । ये सिलसिला आज बाबरी से होते हुए दादरी तक पहुँच चुका है । आज हिंदुस्तान में ‘बैन-बैन’ खेला जा रहा है । गाय-मांस से लेकर वो हर चीज आज निशाने पर है जो बहुसंख्यक हिन्दूओं को पसंद नहीं है । स्वतंत्र भारत के कुछ दिनों बाद ही इसकी नींव पड़ चुकी थी । १९६६ में ही देश की लगभग प्रत्येक राजनीतिक पार्टियां गौ-हत्या की पाबन्दी पर एकमत हो चुकी थी । इससे मजेदार बात क्या हो सकती है कि महात्मा गांधी के प्रिय- विनोवभावे ने तो मोरारजी देसाई सरकार से इस बात पर सहमति बनाने के लिए पांच दिन भूख हड़ताल भी की थी । 
गौ-मांस और उससे उपजे राजनीतिक परिदृश्य ने आज हिंदुस्तान में कई विरोधाभासों को जन्म दे दिया है । गौ-मांस यहाँ के बहुसंख्यकों का सदियों से भोज्य पदार्थ रहा है । हिंदुस्तान की बहुसंख्यक आबादी इस तरह की सोच और राजनीति को समय- समय पर ख़ारिज करती आई है । खाना एक ब्यक्तिगत और सामूहिक अधिकार है जिसे हर हाल में हर सरकार को मानना चाहिए । अगर जोर जबरजस्ती होती है, बहुसंख्यकों पर शाकाहार लादा जाता है तो उसका पुरजोर विरोध होना लाजमी है । प्रोफेसर कांचा इल्लैया के अनुसार ये 'फूड फसिस्म' है और तथाकथित ऊँची जातियों का निचले तबके पर 'ब्राह्मणवाद' थोपना है । जिसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता ।

                 लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के अन्तर्राष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में शोधार्थी है 
                 संपर्क: chandrasen10@gmail.com

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