महेश पुनेठा उत्तराखण्ड के सीमांत जनपद पिथौरागढ़ के रहने वाले जनकवि हैं। जिनकी कविताएं आमजन को काफी प्रभावित करती है। पुनेठा जी अध्यापन के दौरान भी अपनी लेखनी के माध्यम से जनसंघर्षो का हिस्सा रहे हैं। उनकी प्रकाशित कवितायें हैं ‘भय अतल मे’ और ‘पंक्षी बनती मुक्ति की चाह’। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में नया प्रयोग कर बच्चों की रचनात्मकता को निखारने का बेहतरीन प्रयास किया है। इससे पहले यह प्रयास हम जाॅन होल्ट कि मशहूर किताब ‘बच्चे असफल कैसे होते हैं’ में देख सकते हैं। पुनेठा जी ने ‘दीवार पत्रिका' की शुरूआत करके बच्चों की रचनात्मकता को ही नहीं निखारा बल्कि शिक्षा के बंधे-बंधाए ढर्रे को भी तोड़ने का प्रयास किया है। यही ‘दीवार पत्रिका’ बाद में एक किताब के रूप में हमारे सामने आती है। उनके द्वारा लिखी गई ‘दिवार पत्रिका’ में हम उन बच्चों की रचनात्मकता के बारे में पड़ सकते हैं।
1-अन्धविश्वास
इतने वर्षों से
पत्थर मारते आ रहे हैं
शैतान है कि मरता ही नहीं
फिर भी मारे जा रहे हैं
मारे जा रहे हैं .....
एक पत्थर अन्धविश्वास को
मारा होता
शैतान तो मरता ही मरता
आज इतने लोग भी
मरने से बच जाते .
न मिना
न कुम्भ
और न केदार होता.
2- दिक्कत की जड़
जब तक उसके निशाने
तुम्हारे दुश्मन को जा लग रहे थे
तब तक तुम
उसकी निशानेबाजी के मुरीद थे
जगह-जगह
उदाहरण दिया करते थे उसके
जब से निशाने के
केंद्र में तुम आने लगे हो
तिलमिलाने लगे हो बेहिसाब
तब से वह तुम्हें
दुनिया का
सबसे ख़राब निशानेबाज लगने लगा है
अब भला क्या कहूं
तुम्हारी निशानेबाजी की समझ के बारे में
कभी मैं तुम्हारी बौखलाहट को देखता हूँ
और
कभी उसकी निशानेबाजी को
समझ में आने लगता है
कि दिक्कत की जड़ कहाँ है.
3- मार दिया जाएगा
मार दिया जायेगा महेश पुनेठा
सरे आम भरे बाजार
मार दिया जाएगा
कोई विरोध की हिम्मत भी नहीं करेगा
हत्यारा कोई अकेला नहीं होगा
घेर कर मारा जाएगा
सब ठहाके लगायेंगे
अपराध होगा -
शिखा न रखना
तिलक न लगाना
जनेऊ न धारण करना
या
गाय को मात्र गाय मानना
गंगा को मात्र नदी
या
भगत सिंह के शहादत दिवस पर
उनके विचारों पर चर्चा करना
पाश की जयंती मानना
‘मुजफ्फरनगर अभी बाकी है‘ फिल्म देखना
आरोप होगा -
भावनाओं को चोट पहुंचाना
और धर्म को हानि
पुलिस को फोन करेगा तू
लाश उठाने को पहुँच जायेगी
मार दिया जायेगा महेश पुनेठा
सरे आम भरे बाजार मार दिया जाएगा
अंतिम सांसें गिनते हुए
रघुवीर सहाय का रामदास याद आएगा.
४- हस्तक्षेप ही बचाव है
यह कहना गलत है
कि अख़लाक़ को
भीड़ ने मारा
यह
असली हत्यारों को
बचाना है
इसे भीड़ की
तात्कालिक प्रतिक्रिया मानना
अपने समय की
गलत समझ रखना है
उन बमों को
नजरंदाज करना है
वर्षों से जो
लोगों के दिलों-दिमागों में
भरे जाते रहे हैं
जो कभी
गुजरात
कभी मुजफ्फरनगर में
तो कभी
दादरी में फटते रहे हैं .
और कभी
बिलकुल आपके पास भी
फट सकते हैं .
एक बटन दबाने भर की देर है
समझना होगा
इन बमों की निर्माण प्रक्रिया को
और
निष्क्रिय करना होगा निरंतर
अपने छोटे-बड़े हस्तक्षेप से.
हस्तक्षेप ही बचाव है.
५-प्रतीक बदलने होंगे
भूल जाओ
वो गये जमाने की बात है
जब तुम पेड़
और मैं बेल हुआ करती थी
अब जमाना बदल गया
तुम लोहा
तो मैं सीमेंट हूँ.
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