Friday, 23 October 2015

कत्लगाह में कविता

अंजनी कुमार

इतनी हरियाली के बावजूद/अर्जुन को नहीं मालूम उसके गालों की हड्डी क्यों/उभर आई है। उसके बाल/सफेद क्यों हो गए हैं।/ लोहे की छोटी-सी दुकान में बैठा हुआ आदमी/सोना और इतने बड़े खेत में खड़ा आदमी/मिट्टी क्यों हो गया है। (धूमिल)।। कविता की समकालीनता शब्द से जन की एकजुटता को बनाने में है। धूमिल के शब्दों में ‘‘ इस तरह कविता में शब्दों के जरिये एक कवि/अपने वर्ग के आदमी को समूह की साहसिकता से/भरता है जब कि शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु को/समूह से विच्छिन्न करता है। यह ध्यान/रहे कि शब्द और शस्त्र के व्यवहार का व्याकरण/ अलग-अलग है शब्द अपने वर्ग-मित्रों में कारगर/होते हैं और शस्त्र अपने वर्ग-शत्रु पर।’’ कविता के ताने बाने में सिर्फ शब्द ही नहीं होते। शब्द और लय के साथ साथ वह चीख होती है जिसके ठीक बाद कविता शुरू होती है। इस चीख को कविता में ढाल लेना जरूरी नहीं है। धूमिल के शब्दों में ‘‘कविता के कान हमेशा चीख से/सटे रहते हैं!/नहीं; एक शब्द बनने से पहले/मैं एक सूरत बनना चाहता हूं/मैं थोड़ी दूर और-और आगे/जाना चाहता हूं।’’ यह कवि और कविता के बीच के संबंध सिर्फ लिखने भर का नहीं है। कविता का संदर्भ उस हालात से है जिससे कवि जूझ रहा है। धूमिल अपने समय के ऐसे ही हालात के बारे में लिखते हुए पत्रकार नहीं हो जाते बल्कि उसे कविता में दर्ज करा जाते हैं ‘‘दोपहर हो चुकी है/हर तरफ ताले लटक रहे हैं/दीवारों से चिपके गोली के छर्रों/ और सड़कों पर बिखरे जूतों की भाषा में/एक दुर्घटना लिखी गई है/हवा से फड़फड़ाते हिन्दुस्तान के नक्षे पर/गाय ने गोबर कर दिया है।’’ जिस समय यह कविता लिखी जा रही थी देश को एक बार फिर कत्लगाह में बदल देने की तैयारी चल रही थी। जिस समय यह कविता लिखी जा रही थी देश  के सबसे दबे कुचले लोग अपने हालात से बेसब्र हो रहे थे और युवा समुदाय इतिहास के पन्नों से आजादी के सिलसिले को खोजकर गांव की तरफ निकल जाने के लिए बेचैन हो रहे थे। इस बेचैनी और बेसब्री को अराजकता और अस्तित्ववाद की नाम पट्टी से नवाजा गया। लेकिन कविता में जो आ चुका था वह रास्ता तलाशते हुए खेत, जंगल, घाटी होते हुए शहर की उन गलियों, नुक्कड़ों तक आ गया जहां मेहनतकश समुदाय दो जून की रोटी की खातिर पामाल था, जहां इज्जत की जिंदगी मयस्सर होना इतिहास के गर्त में फंसा हुआ था।

1967। नक्सलबाड़ी। इसके बाद जन का स्वप्न और जीवन का सलीका जिस तरह बदला उससे देश होने का अर्थ बदल गया। देश भक्ति और देश द्रोह की परिभाषा बदल गया। आलोक धन्वा ऐसे ही समय को परिभाषित करते हैंः ‘‘यह उन्नीस सौ बहत्तर की बीस अप्रैल है या/किसी पेशेवर हत्यारे का दायां हाथ या किसी जासूस/ का चमड़े का दस्ताना या किसी हमलावर की दूरबीन पर/ टिका हुआ धब्बा है/जो भी हो-इसे मैं कवेल एक दिन नहीं कह सकता!’’ और ‘‘क्या इस आकस्मिक चुनाव के बाद/मुझे बारूद के बारे में/सोचना बंद कर देना चाहिए?/क्या उन्नीस सौ बहत्तर की इस बीस अप्रैल को/मैं अपने बच्चे के साथ/एक पिता की तरह रह सकता हूं?/स्याही से भरी दवात की तरह-/एक गंदे की तरह/क्या मैं अपने बच्चों के साथ/एक घास भरे मैदान की तरह रह सकता हूं?‘‘। यह मोहभंग नहीं एक तैयारी की भाषा है जिसमें शब्द आदमी होने की तमीज के साथ आ रहे थे। अब ‘‘जो कफ्र्यू के भीतर पैदा हुआ,/जिसकी सांस लू की तरह गर्म है/उस नौजवान खान मजदूर के मन में/एक बिल्कुल नयी बंदूकी की तरह याद आती है मेरी कविता।‘‘ इसलिए ‘‘यह कविता नहीं है/यह गोली दागने की समझ है/ जो तमाम कलम चलाने वालों को/तमाम हल चलाने वालों से मिल रही है।’’ पूरा देश कविता की नई समझदारी के साथ खड़ा हो रहा था। वरवर राव के शब्दों में ‘‘कविता/वह सच् है जिसे छिपाया नहीं जा सकता/वह जनता है जिसे सरकार की जरूरत नहीं/वह जीवन है जिसे अमृत की जरूरत नहीं।’’ इस दौर ने कविता और कवि के बीच बन अटूट संबंध को नये सिरे से परिभाषित कियाः ‘‘जब एक डरा हुआ बादल/न्याय की आवाज का गला घोंटता है/तब खून नहीं बहता/आंसू नहीं बहते/बल्कि रोशनी बिजली में बदल जाती है/और बारिश की बूंदें झंझावात बन जाती हैं।/जब एक मां अपने आंसू पोछती है/तब जेल की सलाखों से दूर/एक कवि का उठता स्वर/सुनाई देता है(वरवर राव)।’’ जेल की सलाखों से लेकर शहर के बाहरी या जंगल के किसी भीतरी इलाकों में एनकाउंटर, कोवर्ट एक्शन  से लैस सरकारों के पास कार्यवाई को वैध बना लेने का इंडियन पीनल कोड और संविधान और उसका मनमाना संशोधन था। जबकि मरने वालों के पास बयान के सिवा बचा ही क्या था? अनिल ओझा ने ऐसे ही हालात में फंस गये थे ‘‘नरसिम्हा राव/मैं और तुम/दोनों धारा 120बी के अभियुक्त हैं/धारा 120बी के अंतर्गत होने वाले षडयंत्र को/तुमने देष के खिलाफ रचा/और मैंने तुम्हारे खिलाफ/मैं जेल में हूं/तुम्हारे ऊपर संसद में बहस हो रही है।’’ यह द्वैधता देश  की नशों में जहर की तरह फैल रहा था। ‘‘इकहत्तर की लड़ाई के वक्त/पैदा हुआ मैं/स्कूल गया/इमरजेंसी में,/मस्जिद गिरने के साथ/गया विश्यविद्यालय /नई आर्थिक नीति के साथ/बाहर आ गया वहां से/फिलहाल बेरोजगार हूं/और किसी बड़ी राजनीतिक घटना में/रोजगार तलाश रहा हूं (अंशु मालवीय।)’’ यह 1990 का समय था जब कविता में शहरी जिंदगी में अकेलापन बढ़ रहा था और अवसाद प्रेम पर आसन्न खतरे से फैल रहा था। उसे डर था कि जब प्रलय आ जायेगा तब कौन बचायेगा प्रेमपत्र, गिद्ध नोच नोच खायेगा के बिंब से डर रहा था। जब यह बिंब रचा जा रहा था गिद्ध डाइक्लोफेनाक की आमद से मर रहे थे। इसी दशक में नक्सलबाड़ी ने देश के नक्शे पर एक राजनीतिक मानचित्र के साथ उतरा। देश की मेहनतकश जनता भूख, इज्जत और आजादी के साथ एक नये समाज को गढ़ रही थी। यह एक गहन लड़ाई थी ‘‘पर अंत में लोहे को/पिस्तौलों, बंदूकों और बमों की/शक्ल अपनानी पड़ी/तुम लोहे की चमक में चुंधियाकर/अपनी बेटी को पत्नी समझ सकते हो/पर मैं लोहे की आंख के साथ/मित्रों का नकाब पहने हुए दुश्मन /भी पहचान सकता हूं/क्योंकि मैंने लोहा खाया है/और तुम लोहे की बात करते हो(पाश )।’’ नक्सलबाड़ी कविता में बयान नहीं रह गया। यह अपने मानचित्र के साथ आने लगा, ‘‘मैं यहां चट्टान के एक टीले पर बैठा/फसलों को देख रहा हूं/फसलें रौंदी जा चुकी हैं/मेरे बदन से लहू रिस रहा है/रात होने को है और/मेरे बच्चे, मेरी औरत/घर पर मेरा इंतजार कर रही हैं/मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूं/अपने भूखे बच्चे और औरत को देखता हूं/पर मुझे अफसोस नहीं होता/मुझे विश्वास है कि/वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन जरूर पहुँचेंगे।’’ यहां तक पहुंचना इतना आसान नहीं था। उसे बनाने के लिए कत्लगाह से होते हुए जन को गुजरना पड़ा और गुरिल्लों को अपने साथियों की खून से लथपथ देह को हाथ में उठाये हुए सुकून की जगह तक पहुंचने का रास्ता तय करना पड़ा। ‘‘जेलखानों का मुल्क/जेलखानों के भीतर इंसान/जेल के भीतर जेल/उसके भीतर इंसान/जेल के भीतर कत्ल/हवालात तोड़ने की आवाज/जेल के भीतर जेल, उसके अंदर कत्ल/हवालात तोड़ने की आवाज/चारों ओर हवालात तोड़ने की आवाज। (सत्येन बंद्योपाध्याय)।’’

कविता समय को अभिव्यक्त करती है, समय को संबोधित करती है और अपने समय को आगे ले जाती है। विज्ञान की भाषा में कहें तो समय पदार्थ के साथ आता है और कविता उसी पदार्थ की चेतना है; इसीलिए कविता, समय और पदार्थ के बीच का रिश्ता प्रकृति, जीवन और चेतना का रिश्ता है। इसीलिए कविता कत्लगाह में पैदा होकर उसे खत्म करने का आह्वान हो जाती है। कविता उस चुप्पी को तोड़ देती है जिसके नीचे त्रासदी बर्फ की तरह जमी होती है। कविता अपने साथियों को पुकारते हुए एक लंबे अलाप की तरह फेफड़े और सांस के बीच सूत्र की तरह रच जाती है। यह हृदय की गर्म नमी को आंखों से उतारते हुए हम सभी को भिगा जाती है। एक उलझाव भरे दृश्य में हम अपने खड़े होने की जगह के औचित्य पर सोचने लगते हैं। जिन्होंने अंग्रेजी अखबार द हिन्दू के 16 सितम्बर 2015 के हैदराबाद संस्करण में दो युवा नक्सल कार्यकर्ताओं की ग्रेहाउंड द्वारा निर्मम हत्या के बाद उन्हें वारंगल के एक अस्पताल में देखने पहुंचे क्रांतिकारी कवि वरवर राव के फूट कर रो पड़ने का फोटाग्राफ देखा होगा उन्हें कत्लगाह में खड़े उन कवियों की याद जरूर आयेगी जिन्होंने हत्यारों की मुखालफत की और कविता और जीवन के बीच के अटूट संबंध की पक्षधरता में खड़े हुए। यह संयोग है कि युवा नक्सल श्रुती एक कवि और गायक की बेटी है। कवि वरवर राव तेलगांना से लेकर नक्सबाड़ी के उस समय में खड़े हैं जो उन्हें उन गुरिल्लों तक ले जाता है जिनका जन्म 1980-90 के बाद हुआ है। ये गुरिल्ले उस जगह मारे जा रहे हैं जहां, ‘‘तानाशाह मुस्कराता है, भाषण देता है और भरोसा दिलाने की कोशिश करता है कि वह एक मनुष्य है, लेकिन इस कोशिश में उसकी मुद्राएं और भंगिमाएं उन दानवों-दैत्यों-राक्षसों का रूप लेती रहती हैं जिनका जिक्र प्राचीन ग्रंथों-गाथाओं-धारणाओं-विश्वासों में मिलता है। वह सुंदर दिखने की कोशिश करता है, आकर्षक कपड़े पहनता है। बार बार सज धज बदलता है, लेकिन इस पर उसका वश नहीं कि यह सब एक तानाशाह का मेकअप बनकर रह जाता है/इतिहास में तानाशाह कई बार मर चुका है लेकिन उस इस बात का कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि उसे लगता है उससे पहले कोई नहीं हुआ।-(मंगलेश  डबराल)’’।

‘‘यही समय है कविता लिखने का/इश्तहार पर, दीवार पर, स्टेंसिल पर/अपने खून से, आंसूओं, हड्डियों से कोलाज-शैल में/अभी लिखी जा सकती है कविता/तीव्रतम यत्रणा से क्षत-विक्षत मुंह से/आतंक के रू-ब-रू वैन की झुलसाने वाली हेड लाइट पर आंखें गड़ाये/अभी फेंकी जा सकती है कविता/36 बोर पिस्तौल या और जो कुछ हो हत्यारों के पास/उन सबकों दरकिनार कर/अभी पढ़ी जा सकती है कविता।’’ यह कविता नवारूण भट्टाचार्य ने नक्सलबाड़ी की उस दहलीज पर लिखी थी जब सरकार और चुप्पी का अर्थ मौत और किसान, छात्र-युवा, आदिवासी का अर्थ विद्रोह हो गया था। उन्होंने अपने समय के बारे में लिखा, ‘‘जो पिता अपने बेटे की लाश को शिनाख्त करने से डरे/मुझे घृणा है उससे/जो भाई अब भी निर्लज्ज और सहज है/मुझे घृणा है उससे/जो शिक्षक, बुद्धिजीवी, कवि, किरानी/दिन-दहाड़े हुई उस हत्या का/प्रतिशोध नहीं चाहता/मुझे घृणा है उससे।’’ कवि साफ शब्दों में कहता है, ‘‘यह मृत्यु उपात्यका नहीं है मेरा देश /यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश /यह विस्तिर्ण श्मशान नहीं है मेरा देश /यह रक्तरंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश ।’’ यह कवि 2014 की जुलाई तक प्रतिरोध और गुरिल्लों की बात करता रहा। कत्लगाह के खिलाफ एक बार फिर गोलबंदी दिखने लगी है। अकादमी और सरकार से पाये हुए सम्मान की वापसी और इनकी आलोचना उन हदबंदियों को निश्चय ही तोड़ दिया है जिसमें लंबे समय से कवि फंसा हुआ था। इन हदबंदियों को तोड़कर देने का अर्थ रचना के नये संसार को खोलना है। मुझे उम्मीद है इस कत्लगाह में मारे जा रहे दलित, आदिवासी, मुसलमान, स्त्री और नक्सल गुरिल्लों की दुनिया कविता के संसार में पसीना, भूख और जिंदगी के साथ उतरेंगे और निश्चय ही ’’सौंदर्यबोध’’ के धनी कवियों को यह अश्लील नहीं लगेगा; चिरायंध गंध को खोजते हुए कवि उस कत्लगाह के बारे में जरूर लिखेगा जिसे देश घोषित किया जा रहा है।



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