Thursday 22 October 2015

अदम गोंडवी को उनके जन्मदिवस पर याद करते हुए........




(२२ अक्टूबर १९४७ -२८ दिसम्बर २०११)

अदम गोंडवी का मूल नाम रामनाथ सिंह रहा है, उनका जन्म २२ अक्टूबर १९४७ में आटा ग्राम, गोंडी जिला, उत्तर प्रदेश में हुआ। सामान्य शिक्षा -दीक्षा , स्वभाव में काफी सरल और दिखने में ठेठ देहाती जैसे होने के कारण उनके बहुआयामी व्यक्तित्व, सूक्ष्म सामाजिक समझ को पकड़ पाना काफी मुश्किल है। हालांकि उनका जन्म देश आजादी के समय हुआ था पर सदैव उनकी कलम देश के गुणगान करने के स्थान पर उसकी समस्याओं पर चली जिसने उन्हें एक जनवादी और बगावत के कवि बना दिया। यह बगावत की धार उनकी कविता और शायरी में बरबस ही दिखाई पड़ती है. फिर चाहे वह देश में भष्टाचार, घूसखोरी व देश की बदहवाली को बयां उनकी कविता

सौ में सत्तर आदमी
फिलहाल जब नाशाद है
दिल पे रखकर हाथ कहिये
देश क्या आजाद है..
या फिर सांप्रदयिकता के आड़ में राजनीति कर रहे नेताओं के मंसूबे का पर्दाफाश करती कविता,
हिन्दू मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये
अपने कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये
हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है
दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालत को मत छेड़िये
गलतियाँ बाबर की थी ,जुम्मन का घर क्यों जले
ऐसे नाज़ुक वक़्त में हालत मत छेड़िये।

में साफ उजागर होता है. वर्तमान में चल रहे साम्राज्यवादी, हिंदूवादी ताकतों द्वारा एक व्यवस्थित दमन और शोषण के खिलाफ अदम की बेबाक़ व जनसरोकारों विषयों पर लेखन के कारण न केवल उनकी रचनाएँ धरती की सतह पर, समय में मुठभेड़ काफी लोकप्रिय रही बल्कि २००८ में मध्य प्रदेश दुष्यंत कुमार पुरस्कार से भी नवाजा गया है। ऎसे जनवादी कवि को आह्वान उनके जन्मदिवस पर याद कर रहा है।

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे
ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे
सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे।

आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
आँख पर पट्टी रहे और अक़्ल पर ताला रहे
अपने शाहे-वक़्त का यूँ मर्तबा आला रहे
तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे
आए दिन अख़बार में प्रतिभूति घोटाला रहे
एक जनसेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छ: चमचे रहें माइक रहे माला रहे।

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है
लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है
तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है।
सोर्स -http://kavitakosh.org

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