Friday 27 November 2015

अंकिता पंवार की तीन कवितायेँ

तुमसे मिलना एक आखिरी बार






तीस की उम्र में मिलना
चालीस के हो चुके पहले प्रेमी से
बदल चुके हैं सारे समीकरण
सोलह और छब्बीस वाले रूमानी खयाल अब नहीं आते
आज यूं इतने वर्षों बाद मेरे सामने एक छब्बीस वर्षीय प्रेमी नहीं है
एक चालीस वर्षीय आदमी खड़ा है
कुछ पक चुके बालों से झांक रहा है एक लंबा समय
जिसमें कि बहुत कुछ भुलाया जा चुका है
लकीरें कुछ और बढ़ चुकी हैं तुम्हारी हथेलियों की
शायद मेरी भी
ना तो अब तुम्हारे वो लकड़ी चीरते हाथ हैं
ना अब मेरे ओखल में धान कूटते हाथ हैं
ना ही इन हथेलियों से बुझती है प्यास
धारे के ठंडे पानी की जगह
बिसलेरी की बोतल है
ठेठ केमुंडाखाल से लेकर
इंडिया गेट की दूरी सिर्फ भौगोलिक दूरी नहीं रह गयी है
यहां तक पहुंचते पहुंचते हम तुम गंवा चुके हैं एक उम्र
एक वक्त प्रेम का जो कभी लौट ही नहीं सकता
एक सपना जो अब बहुत गहरी नींद सो चुका है
एक फासला जिसमें तुम्हारा एक घर है
एक फासला जिसमें
मैं मिटाती रही बने हुये घरों के नक्शों को
ओ मेरे चुके खो प्रेमी
तुम से मिलना आज मेरी देह की जरूरत नहीं
तुम से मिलना एक आखरी बार
एक धूमिल पड़ चुकी छवि से आश्वस्त हो जाना है
कि अब कोई नहीं है खड़ा मेरे इंतजार में
बांज के उस सूख चुके वृक्ष के पीछे


ना तुम, ना मैं, ना समंदर

लैम्प पोस्ट की लाइट पड़ती है आंखों पर
बीड़ी का एक कश
उतरता है गले से
बिखरा हुआ कमरा और बिखर जाता है
कहीं कुछ भी तो नहीं ना आंसू ना शब्द
बस एक कड़कड़ीती देह है
जो अकड़ती जा रही है
उफ कितनी बड़ी बेवकूफी है
न जाने के क्यों भगवान याद आता है अचानक
और उसी क्रम में एक गाली भी इस शब्द के लिए
उतनी ही गालियां इस लिजलिजे प्रेम के लिए
एक दो तीन
प्यार है या सर्कस का टिकट
मैंने प्रेम किया इसकी तमाम बेवकूफियों के साथ
मैंन सोचा क्या एक स्त्री वाकई में कर लेती है कुछ समझौते
एक चुप्पी जो टूट कर कह सकती थी बहुत कुछ
वह चुप्पी चुप्पी ही बनी रह जाती है
एक निर्मम खयाल आता है पूरी निर्ममता के साथ
दुनिया को कर दूं तब्दील एक पुरुष वैश्यालय में
एक ओर झनझनाता है हाथ
एक खयाल जो जूझता है खत्म हो जाने और फिर से बन जाने के बीच
एक खयाल जो जिंदगी को कह देना चाहता है अलविदा
है ही क्या रखा इन खाली हो चुकी हथेलियों में
ना चांदनी रात
ना खुला आसमान
खेत ना जंगल ना पहाड़
ना तुम ना मैं ना समंदर
ना जिंदगी
बस पीछे छूट चुके घर
के ठीक सामने वाले पहाड़
पर चढ़ने और उतरने की एक तीव्र इच्छा जागती है
एक ऐसी इच्छा जो खत्म हो जाएगी
अपनी पूरी क्रूरता के साथ


मेरा मां बनना

हमारे साझा प्रेम से उपजे
मेरे पेट के भ्रूण को संभालना या उसको नष्ट करना
निर्भर करता है
मेरे होने या न होने की स्थितियों पर
मेरे पेट में बढते भ्रूण का होना
न तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करेगा
ना ही यह तुम्हारी निर्मूल आशंकाओं के अनुरूप
तुम्हें जिंदगी भर बांधे रखने की साजिश है
ना ही ये कोई मां की कोख के होने से उपजा प्रेम है
मेरा मां बनना इस पर निर्भर नहीं करता कि
तुम पिता की जिम्मेदारी लोगे या नहीं
ये निर्भर करता है
अपने शरीर के हिस्से को बचाये रखने की मेरी इच्छा पर
हे मेरे दोस्त हे मेरे प्रेमी
मैं एक नया जीवन जीने की ओर अग्रसर हूं
हमेशा की तरह
क्योंकि मेरा जीवन किसी और का अधूरा हिस्सा नहीं


कवयित्री पेशे से पत्रकार है और वे दिल्ली में रहती है 
संपर्क:  1990ankitapanwar@gmail.com

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