Wednesday, 9 December 2015

विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था




विद्रोही नाम से पहचाने जाने वाले जनकवि रमाशंकर यादव का आज दिनांक- 8 दिसंबर 2015 को छात्र आंदोलन में भागीदारी करने के दौरान अकस्मात् निधन हो गया।  विद्रोही जी के जीवन और उनकी कविताओं में ज़्यादा अंतर नहीं था। एक तरफ उनकी कविता में विद्रोह की भाषा अन्यायपूर्ण जीवन के खिलाफ हथियार की तरह है वहीं उनका जीवन एक महत्वकांक्षी  और सुविधाभोगी मध्यम-वर्गीय जीवन शैली का भी विरोध है। उनकी कविताएं न सिर्फ दमित और शोषित समाज के हालात का चित्रण करती हैं, बल्कि वे आगे का रास्ता भी दिखाता हैं। उन्होंने जनता के प्रतिरोध को अपनी कविताओं में पिरो कर अपनी बुलंद आवाज़ से जनता के आंदोलनों को ऊर्जा प्रदान की और छात्र आंदोलनों में अपनी कविताओं को सुनाया।  उनका यह गुस्सा और नफरत न सिर्फ ब्राह्मणवादी-पितृसत्तातमक परम्पराओं और धर्म के खिलाफ था बल्कि इस पूरी व्यवस्था को  भी चुनौती देता  हैं। 

विद्रोही की प्रतिनिधि कवितायेँ

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
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मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा.

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औरतें

कुछ औरतों ने अपनी इच्छा से कूदकर जान दी थी
ऐसा पुलिस के रिकॉर्ड में दर्ज है
और कुछ औरतें अपनी इच्छा से चिता में जलकर मरी थीं
ऐसा धर्म की किताबों में लिखा हुआ है

मैं कवि हूँ, कर्त्ता हूँ
क्या जल्दी है

मैं एक दिन पुलिस और पुरोहित दोनों को एक साथ
औरतों की अदालत में तलब करूँगा
और बीच की सारी अदालतों को मंसूख कर दूँगा

मैं उन दावों को भी मंसूख कर दूंगा
जो श्रीमानों ने औरतों और बच्चों के खिलाफ पेश किए हैं
मैं उन डिक्रियों को भी निरस्त कर दूंगा
जिन्हें लेकर फ़ौजें और तुलबा चलते हैं
मैं उन वसीयतों को खारिज कर दूंगा
जो दुर्बलों ने भुजबलों के नाम की होंगी.
चित्रांकन - हरीश परगनिहा 
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मैं उन औरतों को
जो अपनी इच्छा से कुएं में कूदकर और चिता में जलकर मरी हैं
फिर से ज़िंदा करूँगा और उनके बयानात
दोबारा कलमबंद करूँगा
कि कहीं कुछ छूट तो नहीं गया?
कहीं कुछ बाक़ी तो नहीं रह गया?
कि कहीं कोई भूल तो नहीं हुई?

क्योंकि मैं उस औरत के बारे में जानता हूँ
जो अपने सात बित्ते की देह को एक बित्ते के आंगन में
ता-जिंदगी समोए रही और कभी बाहर झाँका तक नहीं
और जब बाहर निकली तो वह कहीं उसकी लाश निकली
जो खुले में पसर गयी है माँ मेदिनी की तरह

औरत की लाश धरती माता की तरह होती है
जो खुले में फैल जाती है थानों से लेकर अदालतों तक
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मैं देख रहा हूँ कि जुल्म के सारे सबूतों को मिटाया जा रहा है
चंदन चर्चित मस्तक को उठाए हुए पुरोहित और तमगों से लैस
सीना फुलाए हुए सिपाही महाराज की जय बोल रहे हैं.

वे महाराज जो मर चुके हैं
महारानियाँ जो अपने सती होने का इंतजाम कर रही हैं
और जब महारानियाँ नहीं रहेंगी तो नौकरियाँ क्या करेंगी?
इसलिए वे भी तैयारियाँ कर रही हैं.

मुझे महारानियों से ज़्यादा चिंता नौकरानियों की होती है
जिनके पति ज़िंदा हैं और रो रहे हैं

कितना ख़राब लगता है एक औरत को अपने रोते हुए पति को छोड़कर मरना
जबकि मर्दों को रोती हुई स्त्री को मारना भ
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सरफ़रोशि की तमन्ना अब हमारे दिल में है
सरफ़रोशि की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना  बाज़ु-ए-क़ातिल में है

करता नही क्यूं दूसरा कुछ बात-चीत
देखत हुं मं जिसे वोह चुप तेरी मेहफ़िल में है
अए शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत मं तेरे ऊपर निसार
अब तेरी हिम्मत का चर्चा घैर कि मेहफ़िल में है
सरफ़रोशि की तमन्ना अब हमारे दिल में है

वक़्त आने दें बता देंगे तुझे अए आसमां
हम अभी से क्या बताएं क्या हमारे दिल में है
खींच कर लयी है सब को क़त्ल होने किअ उम्मीद
आशीक़ोन का आज जुमघट कूच-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशि की तमन्ना अब हमारे दिल में है

है लिये हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर
और हम तैय्यार है सीना लिये अपना इधर
खून से खेलेंगे होलि गर वतन मुश्किल में है
सरफ़रोशि कि तमन्ना अब हमारे दिल में है

हाथ जिन में हो जुनून कटते ते नहि तलवार से
सर जो उठ जाते हैं वोह झुकते नहि ललकार से
और भड्केगा जो शोला-सा हमारे दिल में है
सर्फ़रोशि की तमन्न अब हमारे दिल मेइन है

हम तो घर से निकले हि थे बान्धकर सर पे कफ़न
जान हथेलि पर लिये लो भर चले है ये क़दम
ज़िन्दगी तो अपनी मेहमॉं मौत कि मेहफ़िल में है
सरफ़रोशि की तमन्ना अब हमारे दिल में है

यूं खडा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार बार
क्य तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है
दिल में तूफ़ानों की टोलि और नसों में इन्क़लाब
होश दुश्मन के उडा देंगे हमें रोको न आज
दूर रेह पाये जो हमसे दम कहां मन्ज़िल में है 

वो जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमे न हो खून-ए-जुनून
तूफ़ानों से क्या लडे जो कश्ति-ए-साहिल में है

सरफ़रोशि की तमन्ना अब हमारे दिल में है.
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए क़ातिल में है.
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राजा की रक्षा 
किसी समय राजा थे अनेक
और अनेक क्रिपाकांक्षी
राजा किया करते थे हत्या राजाओं को
और एक दूसरे के क्रिपाकान्क्शियों की भी
लोकतंत्र मै भी अब हत्याएं होती हैं 
सर्वप्रथम उनकी जो क्रिपाकांक्षी नहीं हैं

राजा के हत्या षड्यंत्र की गौरवमय गाथाएं
लिखते थे कवी और सुनते थे प्रजगन
कीर्ति ग्रंथ बनते थे
साहित्य बढता था

अब कोई मरता है तो लोकतंत्र मै वह 
दरअसल हत्या होती है
राजा अब कहीं अधिक रक्षित है
वे या तो मरे हैं बूढे ही 
या बूढे होकर भी जिए जाया करते हैं

मरते हैं युवा युद्ध क्षेत्र मै जो राजा ने
बहुत दूर-दूर फैलाकर रखा है
अपने से बहुत दूर जनता के बहुत पास
एक घनी बस्ती मै चुन कर गरीब लोग
मार दिए जाते हैं राजा को बनाये रखने के लिए आज
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मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा। 

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