Monday 7 December 2015

उत्पादन-प्रजनन का वितर्क

 रजनी देसाई
अनुवादः अनुराधा गांधी

कॉमरेडो,  यह एक संक्षिप्त नोट है, समग्र लेख नहीं।

आज यहाँ हम सब, क्रान्तिकारी परिवर्तन में नारी शक्ति को प्रभावी तरीके से स्थापित करने के लिए इकठ्ठा हुए हैं। इसी प्रक्रिया में उसकी मुक्ति भी निहित है। यह प्रक्रिया अपनी शक्ति के लिए, संगठन के लिए है न कि विद्वतापूर्ण तर्क-विर्तक चलाने के लिए।अपनी शक्ति प्रभावी तरीके से स्थापित करने और संगठन दो प्रक्रियाएँ हैं। हम क्या चाहते हैं, उसका निर्माण करना और हम क्या नहीं करना चाहते हैं, उसकी स्पष्ट विभाजन रेखा खींचना। जनसंख्या का आधा हिस्सा हम महिलाएँ हैं। हम जिस समाज में जाती हैं, उसमें परिवार का दर्जा सम्पत्ति से तय होता है और हमारा दर्जा हमारे परिवारों से तय होता है। अधिकतर परिवार तीव्रतम शोषण में जीते हैं। उन्हें न नौकरी की सुरक्षा है और न ही कोई ज़मीन और निर्वाह के साधन। देहातों में और शहरों में दोनों जगह सभ्य जीवन गुजारने के लिए साधनों का अभाव है। हममें से अधिकांश ऐसे ही परिवार के सदस्य हैं। साथ में, यह भी सत्य है कि हज़ारों सालों से, इन परिवारों में हमें हीन समझा गया है। लेकिन अब हमारी अभिलाषा इन दबे-कुचले परिवारों में समानता प्राप्त करने तक ही सीमित नहीं है। हाँ, विद्यमान परिवारों में हम समान स्थान भी चाहते हैं, पर यह इसलिए कि हम उस अन्तिम समाज में, जिसमें शोषण और निजी सम्पत्ति की उत्पीड़नकारी व्यवस्था से मुक्ति मिलेगी, पुरुषों के साथ बराबरी का रिश्ता चाहते हैं। हम मुक्ति चाहते हैं, मुक्त समाज स्थापित करने के लिए चल रही सामाजिक लड़ाई में समान हिस्सा लेने के लिए। हम जानते हैं कि इस दीर्घ संघर्ष के दौरान, इसमें हिस्सा लेने से, हम महिलाएँ भी जनवादी अधिकार हासिल करेंगी, कदम-ब-कदम। सिर्फ महिला होने भर से नहीं, बल्कि पुरुषों की बराबरी में इंसान की हैसियत से हमारे अधिकार स्थापित करने के लिए हम इस संघर्ष में शामिल हैं। अगर हममें वह दूरगामी आकांक्षा नहीं रही कि पुरुषों के साथ मिलकर शोषण और उत्पीड़न से मुक्त दुनिया बनानी है, तो फिर समानता की संकल्पना का कोई गंभीर आयाम नहीं रहेगा। पुरुषों से हमें ज़्यादा टुकड़े नहीं चाहिए। जैसे ‘फैज’ अपनी कविता में कहते हैं, ‘‘एक खेत नहीं, एक देश नहीं, हम सारी दुनिया माँगेंगे।’हमें सबके लिए अधिक चाहिएः हमें अपनी उत्पादकता बढ़ाने की आजादी चाहिए ताकि उससे जो अतिरिक्त निर्माण होगा, उसका अपने दूरगामी हितों के अनुरूप निवेश किया जाए; यही आजादी हम अपने पुरुषों के लिए भी चाहते हैं। इस मुद्दे पर हमारा हित हमारे पुरुषों (के हित) के साथ समान है; पर हमारा उनके साथ अंतर्विरोध भी उजागर होता है, जब वे यह नहीं समझते कि हमें भी आज़ादी और सम्मान की ज़रूरत है; क्योंकि संगठित होकर उनके साथ हम भी ज़मीदार, साहूकार, मालिक, ठेकेदार, राजस्व अधिकारी, कोर्ट, पुलिस और सेना के चगुंल से मुक्त हो जाना चाहते हैं। इसलिए ज़मींदार, साहूकार, मालिक इत्यादि के खिलाफ अपनी लड़ाई ही प्रधान है। यही हमारी मुख्य लड़ाई है। वह शत्राुतापूर्ण लड़ाई है, क्योंकि हमारी परिस्थिति सुधर ही नहीं सकती, जब तक उनकी प्रतिष्ठा, उत्पादन के साधनों पर उनका एकाधिकार, और इनके जरिये हमारे जीवन पर उनके नियंत्राण को ध्वस्त नहीं किया जाता। एक साथ जीवन बिता रहे और उपरोक्त लड़ाई में शामिल पुरुषों के साथ हमारा संघर्ष शत्राुता का नहीं है। चूँकि इस संघर्ष से महिलाओं की स्थिति सुधर सकती है, अगर वे उनके कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की अधिक आज़ादी प्राप्त करें, तो स्त्राी और पुरुष, दोनों का फायदा होगा।

इस फर्क और अतर्सबंध को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। हमारी मुख्य लड़ाई शोषकों के खि़लाफ है और उसका स्वरूप शत्राुतापूर्ण है। इसी लड़ाई का एक हिस्सा पितृसत्तावादी संस्कृति का विरोध है, जिसे सत्ताधारी वर्ग हमें कुचलकर रखने के लिए इस्तेमाल करता है। इस लड़ाई के अतिरिक्त अपने वर्ग के उन स्त्राी और पुरुषों के खिलाफ भी लड़ना है जो इस पितृसत्तावादी संस्कृति को हथियार के रूप में इस्तेमाल करते जा रहे हैं। उनके खिलाफ संघर्ष करना निहायत जरूरी है। व्यक्तिगत मामलों में यह संघर्ष कठोर और तीव्र रूप धारण कर सकता है, लेकिन सामान्यतः यह शत्राुता का नहीं है; क्योंकि हम सब शोषित व पीड़ित हैं, जिनको इस दूसरे संघर्ष में विजय के हर कदम के साथ फायदा है यह दूसरी लड़ाई दोयम है, शत्राुता की नहीं है, पर वह अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए कि यह संघर्ष मेहनकश जनता के आधे हिस्से को मुख्य लड़ाई में शामिल होने के लिए आज़ाद करेगी।
नारी प्रश्न एक जनवादी सवाल है। (संघर्ष के) वर्तमान स्तर में उसकी माँगे हैं लोक जनवाद का, उत्पादन के साधनों पर समान अधिकार, आंदोलन के भीतर अभिव्यक्त और मतदान का समान अधिकार तथा उत्पीड़न से बचने का अधिकार। मैं यह मानती हूँ कि यहाँ एकत्रित सभी महिलाएँ सर्वहारा दृष्टिकोण स्वीकारती हैं, मार्क्सवादी हैं और अपने समाज को समाजवाद और उससे भी आगे बढ़ाने के लिए वचनबद्ध हैं। यह दूर दृष्टि हम पर ज़्यादा ज़िम्मेदारी रखती है क्योंकि इस दीर्घ सफर में हम भटक न जाएँ, अपना आधार छोड़ने न दें, यह हमारा कर्तव्य है। अपने पास उपलब्ध सभी साधनों का वैचारिक, राजनीतिक और व्यावहारिक विरासत का हमें मूल्यांकन करना है और इसे आगे कैसे बढ़ाया जा सकता है, यह भी सीखने की ज़रूरत है।
व्यावहारिक योगदान को अलग रखने के बाद, मार्क्स और एंगेल्स के वैचारिक कार्य (ग्रंथ संपदा) को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता हैः पहला हिस्सा है द्वंद्वात्मक भौतिकवाद या ज्ञान के सिद्धान्त को उनका योगदान; दूसरा हिस्सा है इस सिद्धान्त की मदद से मानव समाज के गति के नियमों की खोज; और तीसरा हिस्सा है पूँजीवादी समाज का विशेष विश्लेषण। उन्होंने नारी सवाल पर विस्तृत और विशेष रूप से नहीं लिखा, पर उन्होंने नारी उत्पीड़न को मूलरूप से निर्धारित किया और नारी-मुक्ति का मूलभूत रास्ता भी स्पष्ट किया। (वैसे देखा जाए तो समाजवादी और साम्यवादी सवालों पर बहुत संक्षेप में इस तरह के अन्य महत्वपूर्ण सवालों पर बहुत संक्षेप में ही उन्होंने अपना मत पेश किया है) फिर भी वे हमको महत्वपूर्ण आधारभूत संकेतक और विश्लेषणात्मक संकल्पनाएँ देते हैं। खासकर, ‘‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’’ नामक किताब में उन्होंने नारी की परतंत्राता की जड़ें खोजीं, ‘‘वेतन, श्रम और पूँजी’’ तथा ‘‘पूँजी’’ में उन्होंने विश्लेषणात्मक स्तर पर उस श्रम का वर्णन और स्थान पेश किया है, जो सच देखें तो महिला का श्रम है। इससे नारी मुक्ति के लिए ज़रूरी रणनीति और व्यूहरचना के संकेत भी मिल जाते हैं; ‘‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्रा’’ तथा ‘‘कम्युनिज़्म के मूलतत्व’’ (जो 1848 में ही लिखे गये थे) में उन्होंने नारी मुक्ति के लिए आवश्यक नारे दिये हैं। (इसके बाद, लेनिन ने इस सवाल पर विचारों को विकसित किया है। उन्होंने अपने पत्रा व्यवहार और मुलाकातों में, व्यावहारिक अनुभव के आधार पर कई योग्यतापूर्ण स्पष्टीकरण दिये है। लेकिन नारी आंदोलन में उभरे विशेष सवालों पर लेनिन ने जो महत्वपूर्ण योगदान किया है, उसका हम अभी स्पर्श नहीं करेंगे। वे एक अलग नोट का विषय बनते है क्योंकि उन्होंने जिन विवादों के संदर्भ में लिखा था आज भी उन्हीं विवादों से नारी आंदोलन त्रास्त है।) ‘‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’’ ने नारी शोषण का सार रेखांकित किया है, विद्यमान उत्पादन व्यवस्था में घर के बाहर जो विशाल अतिरिक्त उत्पादन होने लगा उससे उस अतिरिक्त उत्पादन के उत्तराधिकारियों को सामाजिक सत्ता मिलने लगी, उससे गृहकार्य में फँसी नारी के उत्पीड़न और परतंत्राता की उत्पत्ति हुई; गृहकार्य का सामाजिक पतन ही नारी के उत्पीड़न और पराधीनता के लिए ज़िम्मेदार है। परिवार की दमनकारी और निरोधात्मक भूमिका इस दृष्टिकोण से हमें दिखने लगती है; इसी व्यवस्था में अपने अस्तित्व को कायम करने तथा उसे सुधारने के लिए, परिवार का प्रमुख अपने परिजनों को उन सामाजिक नियम और रिवाजों के नियंत्राण में लाता है, जो नियम और रिवाज़ उसके और उसके परिजनों के शोषण के हथियार हैं। समाज की प्रारम्भिक अवस्थाओं में नारी अपने घर में अकेली रही। उसने अपने श्रम से खुद उसके तथा परिवार का शोषण करने वाली समाज व्यवस्था को परिवार के उपभोग या फिर फुटकर विनियम के लिए गृहोपयोगी वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करके, टिकाने में मदद की।
‘‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’’ यह भी स्पष्ट करता है कि सभी उत्पादन व्यवस्थाओं में परिवार, निजी संपत्ति और राज्य इन तीनों संस्थाओं की भूमिका शोषणकारी रही है; हर उत्पादन व्यवस्था में इस सामाजिक विभाजन से प्रमुख रूप से कौन सा वर्ग शोषण करने में सफल रहा; और आखिर में, ‘‘परिवार, निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति’’ ने भविष्य का रास्ता भी प्रस्तुत किया है; महिला के श्रम का तथा शारीरिक शोषण का अंत लाने के लिए प्रमुख कदम कौन से हों और किस उत्पादन व्यवस्था में नारी की सम्पूर्ण मुक्ति सम्भव है यह भी दिखाया है। 
इन लेखों में, कहीं भी, विविध शोषणकारी समाज व्यवस्थाओं में स्त्राी-पुरुष सम्बन्धों को सौन्दर्यीकृत करने की कतई कोशिश नहीं की गयी है। विवाह को ‘‘संस्थाबद्ध वेश्याव्यवस्था’’ कहा गया है, नारी की ‘‘आर्थिक निर्भरता’’ उसकी सामाजिक और व्यक्तिगत अधीनता का प्रत्यक्ष और तात्कालिक कारण बताया गया है। मार्क्स और एंगेल्स ने गृहकार्य में निहित नारी के जीवन का एकाकीपन और उसका अलगाव स्पष्ट रूप से देखा। उन्होंने यह तर्क पेश किया कि, ‘‘नारी मुक्ति तब सम्भव होगी, जब महिला सामाजिक स्तर पर व्यापक तौर पर उत्पादन में भाग लेगी और बहुत ही अल्पमात्रा में उसका ध्यान घर की ज़िम्मेदारियों पर रहेगा।’’ इस भौतिक सच्चाई को नकारने का मतलब होगा- गृहकार्य के अलगावपन, उसके रोजमर्रा के परिश्रम और दास्यवृत्ति को महिमामंडित करना।
तथापि, सामाजिक तौर पर शाब्दिक स्तुति परन्तु वस्तुतः तुच्छ और तिरस्कृत उस घरेलू सेवाएँ उपलब्ध कराने वाली और प्रजननकारिणी की भूमिका के माध्यम से, शोषक द्वारा नारी के परोक्ष शोषण की सही स्थिति को मज़दूर को दिये जानेवाले वेतन के संदर्भ में देखा जा सकता है। मार्क्स ने इसी स्थापना को ‘‘पूँजी’’ तथा ‘‘वेतन, श्रम और पूँजी’’ में रेखांकित किया है। उनमें मार्क्स ने दिखाया है कि वेतन श्रम शक्ति का मूल्य है, जैसे अन्य क्रय वस्तुओं को पूँजीपति खरीदता है वैसे श्रमशक्ति को भी उसके उत्पादन खर्च के हिसाब से ही खरीदता है। उन्होंने दिखाया कि श्रमशक्ति के उत्पादन खर्च में निम्नलिखित पहलुओं का समोवश हैः (1) प्रशिक्षण का मूल्य, (2) उपजीविका (निर्वाह) के साधनों का मूल्य तथा (3) पुनरुत्पादन (प्रजनन) का मूल्य। इससे मज़दूर वंश का निर्माण होता है और क्षीण हो चुके मज़दूरों की जगह लेने, नये मज़दूर तैयार होते हैं। ये तीनों पहलू मिलकर ‘‘आवश्यक श्रम’’ बनता है, जिसे श्रमशक्ति का उत्पादन मूल्य कहा जा सकता है। मज़दूर की श्रमशक्ति का प्रजनन। वंश निर्माण में लगने वाला श्रम, बाज़ार में उसकी जगह खड़ा रहने को नये मज़दूरों को तैयार करने में जुटाया गया श्रम, इन दोनों प्रकार के श्रम को आप जितना कुचलकर रखें, (जीवन की आवश्यकताओं की दर घटाना) उनका आप जितना अवमूल्यन करें, उतना ही आवश्यक श्रम (श्रम का उत्पादन खर्च) घटाया जाता है। नारी शोषण के संदर्भ में महत्वपूर्ण तत्वों को समझने के लिए यह विश्लेषण नींव तैयार करता है। वह यह कि पूँजीपति, नारी के गृहकार्य का शोषण कर रहा है, जिसे उक्त दो परवर्ती अंशों (निर्वाह और पुनरुत्पादन(प्रजनन) के अन्तर्गत गिन लिया गया, मज़दूर के माध्यम से, उसके द्वारा मज़दूर के शोषण के जरिए। वह केवल ‘‘आवश्यक श्रम’’ का मूल्य ही मज़दूर को अदा करता है और अतिरिक्त खुद के लिए रख देता है; अदृश्य और बगैर हिसाब का घरेलू मज़दूर (मज़दूर के दैनिक जीवन में महिला) का श्रम जितना ही ज़्यादा होगा, कारखाने के मजदूर को अदा किये गये जरूरी श्रम का मूल्य उतना ही घटता जाएगा। श्रम के बाजार में श्रमिकों के बीच नौकरी पाने की होड़ के चलते इस अंश को घटाया जा सकता है, और इसका समर्थन करने के लिए सामाजिक मान्यताएँ भी मौजूद हैं। महिला को दी जाने वाली बेहद निचले दर्जें की शिक्षा, आहार, महिलाओं में प्रोत्साहित किये जाने वाले आत्मत्याग के चरित्रा आदि इस परोक्ष और कपटपूर्ण शोषण के जीते जागते क्रूर स्मारक हैं।
इस शोषण के अप्रत्यक्ष, अदृश्य होने तथा महिला की परिवार सम्बन्धी भूमिका की नैतिकता की चाशनी में लिपटे प्रचार की मदद की वजह से यह शोषण और भी आसान हो जाता है...महिला का बिना वेतन श्रम वास्तव में पूँजीपति के लिए बिना वेतन का काम है। श्रमिक तो एक अनजान माध्यम मात्रा है। (तत्काल वह कितना ही दमनकारी क्यों न हो) इसलिए मज़दूर वर्ग को स्त्राी और पुरुषों-दोनों का इस शोषण के बारे में सचेत होना निहायत ज़रूरी हो जाता है।

यह चेतना सिर्फ वर्ग संघर्ष के दौरान लायी जा सकती है जिसके लिए सबसे उचित वातावरण है महिला का खुद भी श्रम बाजार में उतरना। महिला अधिक शोषण सहती है (अधिक इसलिए कि उसका ‘‘आवश्यक श्रम’’ और भी कम है तथा उनकी सामाजिक परतंत्राता का प्रमाण और भी ज्यादा है)। इस प्रक्रिया में, पूँजीपति वर्ग अतिरिक्त धन कैसे संचित करता है उसका प्रत्यक्ष अनुभव उसे मिलता है (थोडे़ अंश में आर्थिक स्वतंत्राता का अनुभव चखने से परिवार के भीतर रोज के जीवन में उसकी सामाजिक स्थिति भी सुधरती है)। पूँजी के साथ का अंतर्विरोध प्रत्यक्ष सामाजिक श्रम से उसके सामने खुलकर दिखने लग जाता है। लेकिन सिर्फ यह अनुभव अपने आप, स्वतःस्फूर्त रूप से उसे मुक्त नहीं करायेगा- यह सिर्फ वर्ग संघर्ष के दौरान ही सम्भव है। पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजी और वेतनश्रम (फिर वह पुरुष, स्त्राी या बाल श्रमिक का हो) के बीच का अंतविरोध शत्राुता का है, यह समझते हुए ही, एक दोयम, अप्रधान, पूर्वानुबंधित अंतर्विरोध के अस्तित्व को भी- जो स्त्राी-पुरुष के बीच है- हमें स्वीकारना होगा। यह दूसरा अंतर्विरोध दोयम होने के कारण कुछ कम मर्मभेदी या कम कठोर नहीं बनता। उसे दोयम कहने के पीछे कारण इतना ही होता है कि प्रधान अंतर्विरोध का निवारण के बिना सम्भव नहीं...द्वितीय अंतर्विरोध के निवारण की शर्तें प्रधान अंतर्विरोध का निवारण सम्भव नहीं...द्वितीय अंतर्विरोध के निवारण की शर्तें प्रधान अंतर्विरोध के निवारण के संघर्ष में अंतर्निहित और शामिल हैं (वह भी वर्ग संघर्ष और पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष के जरिये ही)।
हम जानते हैं कि रोज़ के जीवन में नारी शोषित है। मार्क्स और एंगेल्स के पहले ही, कई पुरुषों ने नारी के शोषण और परतंत्राता के बारे में लिखा है। विशेष रूप से यह कैसे और क्यों होता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण दिया- पूँजीवादी व्यवस्था (एंगेल्स ने अन्य शोषण व्यवस्थाओं में यह कैसे होता है और इसकी रूपरेखा दी) अतिरिक्त मूल्य पर अपना कब्ज़ा करने के साथ-साथ अपनी पकड़ महिला के श्रम तक फैलाती है और इस प्रक्रिया के दौरान स्त्राी और पुरुष के बीच का अंतर्विरोध अधिक तीव्र करती है। दोनों एक ही वेतन को बाँटने से पिसे जाते हैं, शोषक-शासक वर्ग सांस्कृतिक उत्पीड़न के लिए पुरुष को अपना माध्यम बनाता है और इस तरह शोषित, उत्पीड़ित विभाजित होता जाता है। मार्क्स ने रणनीतिगत निवारण की दृष्टि से इन समस्याओं का क्रम तैयार किया। 1948 में ही, ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्रा में’, नारी की गुलामी की जड़- गृहकार्य का बोझ और बच्चों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी पर प्रहार किया गया। घोषणापत्रा ने गृहकार्य के समाजीकरण का नारा दिया और बच्चों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी भावी समाजवादी राज्य पर सौंप दी। अन्य शब्दों में कहें तो नारी की पराधीनता के लिए ज़िम्मेदार पितृसत्ता और ‘परिवार’ के विनाश का कार्यक्रम घोषण-पत्रा ने दिया।

इस कार्यक्रम पर अमल करने के लिए जो भौतिक नींव तैयार हो रही है और जिस पर नारी निर्भर रह सकती है, घोषणापत्रा उसे सामने लाता हैः परम्परागत सामंतवाद के बिल्कुल विपरित पूँजीवाद खुद नारी मुक्ति की भौतिक नींव बनाता है- एक पूँजी और श्रम के बीच सभी संबंधों को पैसों के संबंध के रूप मंे घटाकर; फिर, पारिवारिक संबंधों का भावनात्मक पर्दाफाश कर, तथा पारिवारिक रिश्तों को भी सिर्फ पैसों का रिश्ता बनाकर; और ज़्यादा से ज्यादा संख्या में महिलाओं को रोज़गार के लिए पूँजी के हवाले उन्हें सामाजिक श्रमिक शक्ति में शामिल करके। इस तरह, सामाजिक उत्पादन में भाग लेकर महिलाएँ भी पूँजी के शोषण का सीधा अनुभव प्राप्त करती हैं। इस तरह शोषक और शोषित को आमने-सामने लाकर, नारी की चेतना और शोषण के खिलाफ संघर्ष की भौतिक नींव तैयार होती है। इस प्रक्रिया से वे मुक्त नहीं होते, पुरुषों की मुक्ति की तरह ही, महिलाओं की मुक्ति की चाबी वर्ग संघर्ष है और रहेगी।
यह मूलभूत दृष्टिकोण स्वीकारते हुए, हमें इस विरासत को विशेष परिस्थिति में अपने व्यवहार से समृद्ध करना होगा। अगर आंदोलन आज तक नारी के सवाल को महत्व देने में असफल रहा है तो इस पर ध्यान देना हमारा कर्तव्य बनता है, नारी मुक्ति के सवाल पर द्वंद्वात्मक भौतिकवादी वर्गीय दृष्टिकोण छोड़ना यह हमारा काम नहीं। अगर हम मुख्य अंतर्विरोध और दोयम अंतर्विरोध को एक ही स्तर पर लाते हैं, समान समझते हैं तो इससे हम दोयम अंतर्विरोध को सुलझाने की सम्भावना को कार्य में कम करते तो हैं ही, पर उससे भी बुरा करते हैं। हम मज़दूर और पूँजीपति को ‘‘शोषक’’ के रूप में समान मानते हैं। हम उस छोटे वेतनधारी, दीन मज़दूरों पर इन संबंधों को बदलने की शक्ति आरोपित करते हैं जबकि उसके पास न वे साधन हैं न शक्ति, और ऐसा करने से हम उस प्रधान शोषक शत्राु से- महिलाओं का जिससे कोई समान हित जुड़ा नहीं है ध्यान अलग कर देते हैं। प्रमुख शत्राु पर हमला करने की मुख्य शक्ति का एक हिस्सा बाँट देते हैं। पुरुष- मेहनतकश पुरुषों को अपनी महिलाओं के सवाल पर खुद को मुक्त करना है। पर वे यह तब कर सकेंगे जब उनमें, वर्ग संघर्ष के जरिये, वह समझ आएगी कि खुद को पितृसत्तावादी सत्ताधारियों के पारिवारिक नियमों से मुक्त कराना है ताकि वे और उनकी महिलाएँ दोनों मिलकर, सत्ताधारी वर्गांे से और विश्व साम्राज्यवाद से सीधा टक्कर ले सकें।
                                                                                          (‘भोर’ पत्रिका अंक 4 के सौजन्य से )



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