बलभद्र
सुधीर सुमन और सुमन कुमार से पता चला कि 15 जनवरी 2015 को आरा में भोला जी की स्मृति में 2 बजे से एक कार्यक्रम आयोजित है। मैं भोला जी के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ । वे हमलोगों के एक प्रिय साथी थे। वे हिंदी और भोजपुरी में कवितायेँ लिखते थे और उनकी पतली सी काव्य- पुस्तिका 'भोला के गोला' की कुछ काव्य-पंक्तियाँ मुझे अब भी याद हैं । वे पान की दूकान पर बैठे-बैठे तुकबन्दियाँ किया करते थे और उन तुकबंदियों में वे कभी सरकार, कभी पुलिस, कभी तथाकथित रंगदारों पर व्यंग्य के जरिये उन की तीखी आलोचना करते थे ।
उनके कुछ स्थायी ग्राहक थे और वे पान के साथ साथ भोला जी की तुकबंदियों के भी मजे लिया करते थे। मेरे कुछ सहपाठी भी भोला जी के पान के साथ-साथ उनकी तुकबंदियों के मुरीद हो गए थे और बनाही, बिहियां से चलकर वे भोला जी के पान और तुकबंदियों के साथ कॉलेज परिसर में पहुँचते थे । वे एक केंद्र थे। भोला जी सबको उनके नाम से पुकारते थे, सबको जानते थे। वे एक ऐसे केंद्र थे जहाँ से हमलोग जान जाते थे कि कौन शहर में है, कौन नहीं है। वे मेरे आरा के डेरे पर भी आते थे और कई बार हमलोगों ने साथ- साथ खाना खाया हैं । मेरी माँ और बड़ी माँ सब भोला जी को जानती थी और उनको प्रेम से बैठाती-बतियाती थी|
भोला जी को मैं 1984 से जानता हूँ। तब छात्र संगठन ए. बी. एस. यू. था और जब मैं उससे जुड़ा तो पाया कि इससे और इस तरह के संगठनों और मिज़ाज के लोग भोला जी के पास जाते थे, बतियाते थे और चाय-पान करते थे । भोला जी भाकपा (माले) से जुड़े थे और कई बार जसम के राष्ट्रीय अधिवेशन में भी शरीक हुए थे । वे अक्खड़-फक्कड़ मिज़ाज के आदमी थे और इसी मिज़ाज के कवि भी थे ।
वे कुछ इस तरह के व्यक्ति थे जिनको खासकर वे लोग जो सभ्य- भव्य मन-मिज़ाज वाले थे, पचा नहीं पाते थे। जैसे कि चाय में खैनी मिला कर पी जाना, जैसे कि जूठ-काँठ के भेद भाव को न मानना जैसे कि लठमार तरीके से अपनी बात कहना ।
वे जिस मिज़ाज के थे, उसी मिज़ाज के साथ हमलोगों के मित्र थे, साथी थे। उनके खिलाये पान की लाली मेरे व्यक्तित्व का अविभाजित हिस्सा हैं । उनकी कविताएं बहुत कलात्मक न होते हुए भी एक आम आदमी की सामाजिक प्रतिक्रिया के तौर पर बहुत मायने रखती हैं।
हिंदी कवितायेँ
लहू किसका
सोचता था,
मुझे फिर से सोचना पड़ रहा है
कारण,
मेरे समक्ष मौत जो खड़ी है,
दिन रात सदा भूख के रूप में
जिसे चाहता हूं खत्म करना
हर राह चुनी नाकामयाब रहा
मिली है आजादी संघर्ष कर रहा हूं
एक सोच है यही
कविता कर रहा हूं
बह रहा है आज लहू किसका
यही प्रश्न कर रहा हूं
आओ, बात करें
बात ज्ञान और विज्ञान की करें
बात जमीं और आसमान की करें
बात मजदूर किसान की करें
और की नहीं बात मात्र इंसान की करें
न हिंदू न इसाई मुसलमान की करें
जाति-धर्म नहीं बात इंसान की करें
बात रोटी और बेटी के अरमान की करें
बात साथी सम्मान की करें
आओ बात ज्ञान विज्ञान की करें
आदमी
मैं आदमी हूं
भर दिन मेहनत करता हूं
देखने मेें जिंदा लाश हूं
लेकिन.....
मैं लाश नहीं हूं
मैं हूं दुनिया का भाग्य विधाता
जिसके कंधों पर टिकी हैं
दैत्याकार मशीन
खदान, खेत, खलिहान
जी हां, मैं वहीं आदमी हूं
जिसके बूते चलती है
ये सारी दुनिया
जिसे बूते बैठे हैं
ऊंची कुर्सी पर
कुछ लोग
जो पहचानते नहीं
इस आदमी को
समझते नहीं
इस आदमी को
नहीं, नहीं,
ऐसा हरगिज नहीं
मैं होने दूंगा
अपनी पहचान मिटने नहीं दूंगा
क्योंकि
मैं आदमी हूं
हां, हां,
मैं वही आदमी हूं।
आखिर कौन है दोषी?
जब से होश हुआ तब से लड़ रहा हूं
कारण सबसे कह रहा हूं
यह सारी मुफलिसी बेबसी की देन है।
सुनो समझो तुम्हारे अरमानों को अपने साथ देख रहा हूं
साफ है दिल जिसका, उसी के पीछे लगा हत्यारा देख रहा हूं
आॅफिसरों और नेताओं में लूटखसोट का रोजगार देख रहा हूं
जनवितरण प्रणाली से जल रहा बाजार देख रहा हूं
गंदगी में गंदगी से रोग बढ़ते हाल देख रहा हूं
कुछ घर में रोगियों को दवा के बिना मरते बेबस लाचार देख रहा हूं
कुछ ही शिक्षा के रहते, बेशुमार बेरोजगार देख रहा हूं
कर्ज पर कर्ज से दबी जिंदगी सरेआम देख रहा हूं
चलचित्र के द्वारा सेक्स का प्रचार देख रहा हूं
पास पड़ोस में बढ़ते लुच्चे-लफंगों की कतार देख रहा हूं
तिलक दहेज की ज्वाला में
बहनों को जिंदा जलाते-मारते घर से निकालते अखबार देख रहा हूं
बिजली के पोल तार अधिकारी और कर्मचारी के रहते
घर गांव शहर में अंधकार देख रहा हूं
कब कौन मरेगा उनके इशारे पर
लाश को छिपाते अखबार देख रहा हूं
कान में तेल डालकर बैठी राज्य और केंद्र सरकार देख रहा हूं
कब तक साधेगी खामोशी जनता, उनके बीच मचा हाहाकार देख रहा हूं
अब नहीं बचेगी जान भ्रष्ट नेताओं और आॅफिसरों की
जनता के हाथ में न्याय की तलवार देख रहा हूं
अभी नजर नहीं आ रहा है, लेकिन बम और बारूद के धुएं को तैयार देख रहा हूँ
हम लड़ रहे हैं
हम लड़ रहे हैं
हम किनसे लड़ रहे हैं?
हम लड़ रहे हैं
सामंती समाज से
रूढि़वादी समाज से
पूंजीवादी समाज से
अंधविश्वासी समाज से
आखिर क्यों ल़ड़ रहे हैं इनसे?
समता लाने के लिए
समाजवादी व्यवस्था लाने के लिए
पूंजीवाद के सत्यानाश के लिए
सांप्रदायिकता को समूल नष्ट करने के लिए
ब्राह्मणवाद को उखाड़ फेंकने के लिए
अंधविश्वास को दूर भगाने के लिए
क्योंकि-
इसी से गरीबी मिटेगी,
गरीबों को मान-सम्मान मिलेगा,
अब तक ये जो सिर झुका कर चलते थे
सिर उठाकर चलेंगे
इसी क्रांति से
अमन, चैन, शांति मिलेगी
सापेक्ष चेतना जगेगी
इसी चेतना के जगने से होगी क्रांति।
क्रांति का मतलब गुणात्मक, मात्रात्मक नहीं।
मात्रात्मक यानी पानी का भाप, भाप का पानी,
अर्थात पूंजीवादी सरकार का आना-जाना
फिर फिर वापस आना
गुणात्मक-
जैसे दूध का दही बनना
फिर कोई उपाय नहीं
दही का फिर से दूध बनना
अर्थात् पूंजीवादी सामंतवादी आतंकवादी सरकार का जाना
समाजवादी सरकार का आना।
अब तक के आंदोलन से
ऊपरी परिवर्तन होते रहे
अंतर्वस्तु नहीं बदली
अब गुणात्मक क्रांति होगी
अंतर्वस्तु भी बदलेगी
परिणाम
अब धरती पर पूंजीपति नहीं रहेगा
न जंगल में शेर रहेगा
न शेर वाला कोई विचार रहेगा
गरीबों की सरकार रहेगी
हम रहेंगे, हमारी जय-जयकार रहेगी
हमारा अब यही नारा रहेगा
न कोई हत्यारा रहेगा
न सामंती पाड़ा रहेगा
क्योंकि,
हम बढ़ रहे हैं, बढ़ रहे हैं...
स्रोत: http://jansahity.blogspot.in/
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