Tuesday, 24 November 2015

मुमुर्षा में बदलती जिजीविषा

जयन्त जिज्ञासु


दमी जन्म लेता है, माँ की गोद से लुढ़ककर चलना सीखता है, फिसलते-फिसलते ज़वान हो जाता है, संभलते-संभलते बूढ़ा, फिर तो लुढ़ककर अलविदा। पर, कुछ लोग इस नैसर्गिक जीवन-चक्र को तोड़कर आत्मघाती निर्णय ले बैठते हैं। ज़िन्दगी तो जूझने का नाम है, न। किसी भी रिश्ते से कहीं महत्वपूर्ण है आपका होना। आप हैं, तभी रिश्ते-नाते, मैत्री, क़ुर्बत, फ़ासले सब हैं। किसी भी संबंध के चिरायुत्व का रहस्य परस्पर सम्मान व विश्वास है। यदि आपकी रूठने की प्रकृति है, तो अपने अंदर मानने की प्रवृत्ति भी विकसित कीजिए। वरना, ज़िन्दगी बोझिल हो जायेगी। महानगरीय जीवन तो ऐसे ही स्वयं में त्रासदी है। तोल्सतोय ने ठीक ही कहा, "शहर में कोई ख़ुद को मृत समझकर बहुत दिनों तक जीवित रह सकता है"।
जीवन के प्रति अटूट श्रद्धा ही नहीं, अपितु आस्था होनी चाहिए, तभी इंसान विषम परिस्थिति में ख़ुद को टूटने से बचा सकता है। एक ऐसे दौर में जबकि संबंधों का घनत्व लगातार घट रहा है और पहचान की स्वायत्तता के लिए ज़द्दोजहद बढ़ रही है; वैसे में वरीय साथी अंशु सचदेवा जैसी जीवन्त व ज़िन्दादिल इंसान का यूँ अचानक साथ छोड़कर जाना स्तब्ध तो करता ही है, साथ ही बोझिल मन से सोचने पर मजबूर करता है कि संवेदनशील-भावुक मन के लिए बेहद ज़रूरी है कि संवादहीनता की स्थिति से बाहर आया जाय, अंदर-ही-अंदर डेरा डाल रहे अकेलेपन के घेरे को तोड़ा जाये व अपनों से संवाद के तार जोड़े जायँ।
अल्पायु में अपनी इहलीला दुःखद ढंग से समाप्त करने से पहले इस निश्छल साथी ने शिक्षण-विधि में कई बुनियादी सुधार की सार्थक पहल की। आइआइएमसी से पढ़ाई करने के बाद गाँधी फेलोशिप प्राप्त कर सुदूर देहात के स्कूलों में बच्चों की प्रतिभा को तलाशने-निखारने-संवारने के अनुपम कार्य में जुटी थीं। उनकी अदम्य जीवटता, जीवन्तता व जिजीविषा भरी प्रकृति बच्चों में नवऊर्जा भरती थी। वो अपने ईमानदार व असरदार लेखन से लगातार जनसत्ता के सम्पादकीय पृष्ठ पर ज़गह पा रही थीं एवं अपनी बातों को प्रभावी ढंग से नीति-नियंताओं तक पहुँचा रही थीं।
कब तक होनहार प्रतिभाएँ पुष्पित-पल्लवित होने के पहले ही यूँ दम तोड़ती रहेंगी ? भारतीय जनसंचार संस्थान में मेरे आने के बाद ये दूसरी तोड़ने वाली घटना है। पिछले साल ही सागर मिश्रा जी की ख़ुदकुशी की ख़बर से हम अभी ठीक से उबरे भी नहीं थे। 26 साल की अल्पायु, जब इंसान अपनी ज़िंदगी शुरू करता है, सागर पत्नी व परिवार को अकेला छोड़ इस जहाँ को अलविदा कह गये। कारण चाहे जो भी हो, पर पत्रकार की जीवटता व जिजीविषा को गहरा आघात लगा है । एक संभावनाशील व उदीयमान पत्रकार अपना संपूर्ण सौरभ बिखेरने से पहले ही हमारे बीच से चला गया ।
बदलते समसामयिक सामाजिक संदर्भ में युवा पीढ़ी की बेचैनी व छटपटाहट को समझने की ज़रूरत है। आखिर, वे क्यों अपना सब्र खो रहे हैं ? जवाब आसान नहीं है। अपने मशहूर, मार्मिक व प्रेरणास्पद उपन्यास द ओल्ड मैन एंड द सी में “आदमी को तबाह किया जा सकता है, मात नहीं दी जा सकती”, जैसे कालजयी उद्घोष करने वाले नोबेल पुरस्कार विजेता अर्नेस्ट हेमिंगवे जैसी शख़्सियत भी परिस्थितिजन्य कारणों से आत्महत्या कर बैठते हैं। हालात के आगे मजबूर होने को हम अपनी नियति क्यों मान बैठते हैं ? भावुकता विचलित करती है, विगलित करती है; समाधान नहीं देती। 
बहुत आवश्यक है कि पत्रकार का न्यूनतम वेतन तय हो । कई बार कमज़ोर आर्थिक पक्ष भी हमें झिंझोरता है, घुटन व गहन अवसाद के गहरे गर्त में डाल देता है । प्रेम- विवाह व पारिवारिक स्वीकार्यता के बीच समन्वय भी सागर की सबसे बड़ी चुनौती रही । हमारे जीवन की त्रासदी यह भी है कि हम अपनी भावनात्मक निर्भरता किसी एक व्यक्ति के साथ इतना जोड़ लेते हैं कि शेष मित्रों से संवाद ही कम कर देते हैं । खासकर, युवा दोस्तों को सुकून के स्रोत का विकेन्द्रीकरण करना होगा । ख़ुशी के लिए परजीविता, पराश्रयता एक मोड़ पर आकर कचोटने लगती है ।
पत्रकारिता का पेशा या समाजकार्य का क्षेत्र बेहद धैर्य की माँग करता है, नहीं तो खीझ कब घनीभूत अवसाद में तब्दील हो जाये, आपके अंदर की अनिर्वचनीय घनीभूत पीड़ा शनैः-शनैः आपकी जिजीविषा, जीवटता व आपके जुझारूपन को आपकी गंभीर हसी के बीच से कब दरका जाये; यहाँ पता भी नहीं चलता है। अभिभावक से तो और भी भावनात्मक सहयोग,हिम्मतअफज़ाई व सब्र की अपेक्षा रहती है। कई बार अपने ही बच्चों के बीच अनावश्यक तुलना उनके मन में खीझ, चिड़चिड़ापन व कुंठा पैदा करती है। इसीलिए मैं महसूस करता हूँ कि इस मुल्क में अभिभावकत्व (पेरन्टिंग) की मुफ्त व ज़रूरी तालीम दी जानी चाहिए। बच्चों के मिज़ाज को समझना व तदनुसार उनका विकास करना आवश्यक है। डॉ. हैम गिनॉट लिखते हैं कि बच्चे भीगे सीमेन्ट की तरह होते हैं। उनपर जो कुछ भी गिरता है, अपना प्रभाव छोड़ जाता है। अस्तु, आरम्भ से ही हमारे मानस की निर्मिति में हमारे परिवेश व परवरिश की महती व प्रभावी भूमिका रहती है।
आज की आपाधापी भरी ज़िंदगी में भीतर ही भीतर कुछ दरकता रहता है और अंत में जाकर बड़ा शून्य बन जाता है, सब बिखरता हुआ-सा दिखता है, जिसे हम कभी जोड़ नहीं पाते, समेट नहीं पाते हैं और उसी हौचपौच, बेचैनी, छटपटाहट, मानसिक उलझन व अनिर्णय की दशा में जब कुछ नहीं सूझता, तो हम ये ग़लती कर बैठते हैं, जिसे किसी के लाख बुलाने पर भी कभी लौटकर हम सुधार नहीं सकते। मुझे लगता है कि उस नाज़ुक पल में आदमी स्वयं से ही संवाद तोड़ देता है, तो फिर औरों से संवाद करने के बारे में कहाँ सोच पायेगा?
हादसा हो जाने के बाद हम तकलीफ में होते हैं कि अपने क़रीब के दोस्त के कुछ उदास अनछुए पहलुओं को समग्रता में, सूक्ष्मता से पढ़ने में हम चूक गये, उनकी मनःस्थिति से कभी वाकिफ न हो सके। हम ख़ुद को वाकई दोषी व लाचार महसूस करते हैं और अभागे भी ! हम न हाथ थाम पाते हैं, न पकड़ पाते हैं दामन और बड़े क़रीब से उठकर कोई चला जाता है। घर-परिवार की उम्मीदें हमारी ओर लगी हुई रहती हैं। जब सारी दुनिया आपकी ओर से निराश हो जाती है, तब भी प्रतीक्षारत पलकों के साथ दो लोग आपकी ओर टकटकी लगाये रहते हैं – एक माँ और दूसरा आदर्श शिक्षक। हर शिष्य की मौत में अध्यापक की मौत होती है। परिवार के सदस्य अपराधबोध में जीते हैं कि वे बच्चे की मनोदशा को भाँप नहीं सके, उसके अन्तर्मन के द्वन्द्व को वक़्त रहते पढ़ न सके। हमारे शुभेच्छु के पास अफसोस करने के अलावा कुछ बचता नहीं है कि अब जबकि दिन सँवरने वाले थे, तो अतिशय भावुक सदस्य को कहाँ जाके बिछड़ने की सूझी। अकबर इलाहाबादी ने ठीक ही कहा है - पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना / उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता।
सूचना-क्रान्ति व सूचना के लोकतांत्रीकरण के मौजूदा दौर में लोकमाध्यम यानि सोशल मीडिया के विवेकपूर्ण व यथोचित प्रयोग की निहायत ज़रूरत है। क्या दिन-ब-दिन अमानवीकृत होकर यांत्रिकता से नियंत्रित होना ही हमारी नियति बन गयी है ? आखिर,मानवीय संवेदना व चेतना का सर्वथा अभाव क्यों दिखता है ? क्या फेसबुक, ट्वीटर, वॉट्सऐप के ज़रिये आज का तरुण व युवा भारत अपनी बहुसंख्य आबादी से जुड़ पा रहा है, या अपने ही मसले सुलझा पा रहा है ? कहना न होगा कि वे इन तकनीकों के अविवेकपूर्ण व अंधाधुंध इस्तेमाल से ख़ुद ही रात-दिन उलझ रहे हैं व नित नये-नये मानसिक रोग व कुंठा पाल रहे हैं। हम उस देश के वासी हैं जहाँ क्रंदन भी अपने आप में सम्वाद का बेहतरीन माध्यम रहा है। गाँव के मेले या हाट में जब माँ व मौसी मिलती थीं, तो गले लगकर, रोते हुए अपना सारा क़िस्सा बयाँ कर देती थीं। पर, आज के तंगी-ए-वक़्ते-मुलाक़ात का दौर हमें आँसू बहाने की भी तो मोहलत नहीं देता। मिल-बैठकर सुख-दुःख की गुफ़्तगू का कोई विकल्प नहीं हो सकता।
किताबों की प्यारी दुनिया से वाबस्तगी घट रही है, किताबों के दिल में झाँकने का अनवरत सिलसिला समाप्त हो रहा है, किताबों के ख़ूबसूरत अंतर्मन से मीठी अंतर्वीक्षा की संस्कृति वाले अथक पाठकों की तादाद कम हो रही है ! कि किताबें कभी थपकी देती हैं, कि किताबें सुकून देती हैं, सांत्वना देती हैं। ये रूठती हैं तो फिर ऐसे कि छूने नहीं देतीं। बड़ी निश्छल होती हैं किताबें कि दिल से मनाओ, तो झट से आकर सीने में चेहरा छुपा लेती हैं। ये वात्सल्यमयी माँ का किरदार भी निभाती हैं, तो कभी बन जाती हैं स्नेह लुटाने वाली बहना। कोई चाहे दादी माँ की लोरी फिर से सुनना, तो किताबों की सोहबत में आ जाये,उलट ले कुछ पुराने पन्ने। तज़ुर्बे तो इसके पास दादू वाले हैं। ये किताबें भी अपने अंदर न जाने कितने संसार समेटे हुए हैं। अमूल्य निधि हैं ये किताबें। पर, गुमसुम रहने लगी हैं आजकल ये। जब भी नज़र मिलती है, बड़ी मायूस लगती हैं। उदास दिखती हैं इन दिनों। आओ कि असामाजिक होते जा रहे इस सोशल मीडिया से थोड़ा तौबा करें व किताबों से अब सारे गिले-शिकवे दूर करते हुए उनसे वही पुराना आत्मीय संबंध जोड़कर मन-प्राण को तरोताज़ा करें। कि यही इस नस्ल को तमाम नव-उदारवाद व प्रचंड बाज़ारवाद के चंगुल से मुक्त कर, छद्म आधुनिकता के जाल से निकालकर सुकून दे सकती है।
इस दमघोंटू व्यवस्था को मंथन करना होगा कि आखिर कब तक भावना-संवेदना व चेतना में समन्वय न बिठा पाने के चलते संवादहीनता का शिकार होकर निश्छल-निष्कपट-निष्कलुष प्रतिभा-प्रसून व कौशल-कुसुम यूँ असमय काल-कवलित होते रहेंगे ? आर्थिक मोर्चे पर नौज़वान पीढ़ी की कमर तोड़ने वाले पेशे में कब उन्हें उनका समुचित प्राप्य मिलेगा ?
              लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज में स्नातकोत्तर अंग्रेजी के छात्र है 
              संपर्क: jigyasu.jayant@gmail.com  

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