Sunday, 2 April 2017

यह मीडिया का कमाल है
अंजनी कुमार
''भोर पत्रिका'' संपादक
यह मीडिया का कमाल है
या लोकतंत्र की वोटिंग मशीनों का
जिधर से गुजर रहा हूं
मैं लोकतंत्र का जश्न देख रहा हूं, हर तरफ
जनता के चुने हुए प्रतिनीधियों से अधिक
उन्माद से भरे हुए उस प्रतिनीधि को देख रहा हूं
जो जनता के कंधों पर खड़ा हुआ
इतना विशाल दिख रहा है कि
उसकी ही पार्टी के लोग
हाथी की पीठ बन गये हैं
और जनता महज संख्या,
कहा जाता रहा है कि लोकतंत्र में यह दृश्य संभव है
और यह पहला दृश्य नहीं है
पर अब जो हो रहा है वह पहले जैसा नहीं है
एक हत्यारा देश का भाग्य विधाता बनते बनते
देश हो रहा है और देश
देशद्रोह के आरोप में संसद के कटघरे में
हाथ बांधे खड़ा है,
देश संसद में गूंगा खड़ा है, खतरे इतने हैं कि
ऐसे में कौन कहे सीधी बात, ...कहां हो कबीर
मैं सुनना चाहता हूं तुम्हारी उलटबासी,
मेरे पुकारने से कहां आने वाले हैं कबीर
उन्हें जो कहना था कह गये और वह था मध्यकाल
अब जो है वह है, इसे जो भी नाम दें
पर जो दृश्य है चुभ रहा है आंखों में
और उससे भी अधिक
लोकतंत्र के दलदल में धंसा हुआ मैं भारत का नागरिक
अपनी ही नजरों में चुभ रहा हूं, धंस रहा हूं, ...
यह महाभारत का दृश्य नहीं है
और न ही मैं अभिमन्यु हूं, न ही तुम कर्ण और न ही वह द्रौपदी
यह किसी उपन्यास का सुखद या दुखद अंत नहीं है
यह भारत की राजनीति है
जहां छल छद्म के गुबार में
इतिहास और भूगोल, जाति और धर्म, देश और जवा, ...
को पगुराते हुए
जय भारत, जय भारत की डकार मार रहे हैं नये भारत के निर्माता
हर दूसरा आदमी देश का दुश्मन हो गया है, और
प्रधानमंत्री को छोड़
सभी नागरिक अनागरिक होने की खतरे से जूझ रहे हैं,
और जो रह गये हैं नागरिकता से बाहर
अब वे इंसान नहीं रह गये हैं,
ऐसे में लोकतंत्र की सड़क पर खड़ा होकर
मैं करूं क्या?
संसद जाने के रास्ते में हो रही दुर्घटनाओं की गिनती करना
उस कोर्ट का वह मुहर्रिर बन जाना है
जहां आदमी की पीठ से न्याय का चौखठ बनता है,
मैं अब भी देख रहा हूं नये भारत के निर्माता को एकटक
जबकि वह कहीं नहीं देख रहा है
मेरी तरफ तो हरगिज नहीं,
मैं देख रहा हूं उसे एकटक देश के लोकतंत्र का प्रतिनीधि
और पढ़ रहा हूं धूमिल की कविता,
राजकमल चौधरी की गालियों से लबरेज अकविता,
गोली दागो पोस्टर, जेलखाना और गोलियों की बौछार ...
कविता और मेरे बीच यह जो समय का दायरा है
काफी गहरा है, किसने खोदी है खाईयां ...
कविता के उस टीले बहुत दूर, ....इस पार हूं मैं
कविता न तो नक्सलबाड़ी को छू रही है, न रोहित वेमुला को
और न ही नजीब को, ....
जबकि वह है ठीक मेरे सामने और
मैं उसे देख रहा हूं एकटक
मैं जानता हूं कि वह कहीं नहीं देख रहा है
वह सिर्फ यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी में बदल रहा है
मैं उसे एकटक देखते हुए अपने खोए हुए शब्दों की तलाश में हूं
जो हैं, हां हैं यहीं आस पास ही
खोजते हुए वे हाथ जिनकी लय में वे ढल सकें, और
वह जबान जो उचार सकें उन्हें ऊंचे स्वर में
मैं देख रहा हूं उसे एकटक
कहते हैं दुश्मन का अक्स आंख में उतार लेना ही
युद्ध का पहला कदम है
इसके पहले की यह बात सच साबित हो
मैं अपनी जबान रखना चाहता हूं शब्द
जिनसे रची जाती है कविता
जिसे पढ़ा जाता है शहर के चैराहे की बीचो बीच,
मैं अब भी उसे देख रहा हूं
एकटक, ....

ईरोम शर्मिला- 1

तुम एक बार फिर हार गई,
मैं जानता हूं तुम्हारी फितरत,
तुम एक जिद में रहती हो
और जिंदगी से प्यार करती हो
वैसे ही जैसे बच्चे अपने घरौंदों से करते हैं,
मैं जानता हूं तुम्हारा भरोसा
उसका टूट जाना भी
और टूटन में धंसे हुए किंरचों को निकालने का
वह सुख भी, जो अक्सर
लड़ाईयों की यादगार में बदल जाते हैं।
तुम हार गई
तुम्हारी इस हार को प्रश्न में बदल रहे हैं
बहुत से पत्रकार, विद्वान, और भी लोग ...
और यह यूं ही चलता रहेगा।
प्रश्न बने रहेंगे
शायद तुम्हारी उम्र के अंतिम समय तक।
तुम्हारे सन्यास का कोई अर्थ नहीं है
तुम लड़ाई के जिस मोर्चे पर हो
वहां से कूच करो,
वोटिंग मशीनें लोगों की जिंदगी नहीं
शासकों की उम्र तय कर रही हैं
एक अंतहीन सिलसिले की तरह ....

ईरोम शर्मिला- 2

तुम्हारी हार में जितने वोट तुम्हारे हिस्से आये
उससे हजार गुना तुम्हारे हिस्से सवाल आये हैं
तुम सन्यास लेकर कहां जाओगी
सवाल लोकतंत्र की तरह पांच साल पर नहीं लौटते
वे हर रोज तुम्हारी धड़कनों और सपनों तक
पीछा करते करते तुम्हारे साथ रहेंगे,
तुम जानती हो कि सवाल सिर्फ तुमसे नहीं है
तुम जानती हो कि वोट सवालों को हल नहीं है
ऐसे में तुम सन्यास लेकर कहां जाओगी
खासकर ऐसे समय में जब
जश्न के नारों में गुम हो रही है मनोरमा की चीख
जीत के जयकारों में हत्यारे
बन चुकें हैं लोकतंत्र के पुरोधा
ऐसे में एक बार फिर पूछता हूं
ईरोम शर्मिला सन्यास लेकर कहां जाओगी
जब कि वोटिंग मशीनों के बाहर
संगीनें अब भी कानून की शक्ल में और
कानून संगीनों की शक्ल में
अब भी हैं, आंख में उतरती नींद को खत्म करती,
एक बार पूछ रहा हूं तुमसे
सन्यास लेकर तुम कहां जाओगी!



Tuesday, 24 January 2017

साहित्यकार प्रतिबद्ध होता है: महाश्वेता देवी

(महाश्वेता देवी हिंदी में वैसा ही अपना सा नाम है जैसा अवतार सिंह पाश। लेखन और जीवन में जनता के प्रति उनकी पक्षधरता एक मिसाल है। महाश्वेता देवी की सृजन-प्रक्रिया को समझना एक जीवंत अनुभव से रू ब रू होना है। यहां हम कृपाशंकर चौबे द्वारा संपादित पुस्तक महाश्वेता संवादसे तीन अलग अलग साक्षात्कार के अंश प्रस्तुत कर रहे हैं।-सं.)


पहला साक्षात्कार: अमर मित्रा और सव्यसाची देव के साथ बातचीत -इंडियन लिटरेचर, मई-जून 1997 में प्रकाशित:-

अमर मित्रा और सव्यसाची देव: आज से पच्चीस साल पहले, सन् 1971-72 में हजार चौरासी का मांजेल तक में, नक्सलपंथी कैदियों के हाथों में भी पहुंच गई। आप इस लेखन के सृजन की पृष्ठिभूमि बताएं।

महाश्वेता देवी: चलिए, बताती हूं। वे नौजवान, जो नक्सल आंदोलन से जुड़े थे और गांव को शहर से जोड़ने के लिए गांवों में जा बसे थे। लेकिन वहां ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाए। वे लोग कलकत्ता लौटने लगे। शहरों में पुलिस और विभिन्न राजनीतिक पार्टियां, एक एक करके उन लोगों को गोलियों से भूनकर, खत्म कर रही थीं। उन दिनों मैं विजयगढ़ कॉलेज में पढ़ाती थी। इस उपन्यास में, मैंने उसी पृष्ठिभूमि का प्रयोग किया है। एक बात आपको बता दूं- हम सबको दो दो सामूहिक हत्याओं की भरपूर और बखूबी जानकारी है। बारासात और बारानगर में सामूहिक हत्या। वहां झुंड के झुंड नक्सलपंथी नौजवानों को मार डाला गया। लेकिन इससे पहले ही, विजयगढ़ के नजदीक, श्री कॉलोनी में एक हत्या हो गई। मेरा एक छात्रा सुजीत गुप्ता वहां कत्ल कर दिया गया। उसके पिता, एक डाक्टर के यहां कम्पाउंडर थे। इस घटना का कुछ हिस्सा मैंने अपनी आंखों से देखा था, बाकी अपने बेटे नवारुण भट्टाचार्य और दूसरे दूसरे लोगों के मुंह से सुना है। नवारुण कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा था। उसने कई कई तरीकों से नक्सलपंथियों की मदद करने की कोशशें की। उसके बाद, बांग्लादेश युद्ध के दौरान पूरे शहर में ब्लैक-आउट रहने लगा। शाम 7 बजे के बाद रास्ते सुनसान हो जाते थे। निजी पुलिस-वैन सड़कों पर गश्त लगाती रहती थी। उन दिनों मैं कबीर रोड के गणेश बागची और सुदेशना बागची के यहां नियमित रूप से आया जाया करती थी, मैं उनके साथ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस के लिए आनन्द मठपर काम कर रही थी। वहां मैं शाम 7 बजे जाती थी और 10 बजे घर वापस आने के लिए वहां से निकल पड़ती थी। हर दिन, रात होते ही सड़क निर्जन हो जाती थी। न कोई बस, न कोई गाड़ी, न कोई अन्य सवारी। जब मैं घर लौट रही होती, कई दिनों तक मैंने लगातार देखा, चंद नौजवान बिल्कुल सिर तक शॉल ओढ़े, परली फुटपाथ पर मेरे साथ-साथ चल रहे हैं यानी मेरा पीछा कर रहे थे कुछ युवक।

एक दिन मैं रुक गई और उन लोगों से मैंने सीधे-सीधे पूछा, ‘आप लोग मेरा पीछा क्यों कर रहे हैं? मेरे साथ-साथ क्यों चल रहे हैं?’

उन्होंने जवाब दिया, ‘आप अकेली-अकेली ही इतनी रात को आती-जाती हैं इसलिए...।

पुलिस मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकती। आप जा सकते हैं।

वे लोग चले गए। मैं वहां अकेली ही खड़ी रही। कुछ दिनों बाद, एक शाम, एक्टेªस चंद्रावती देवी के घर की दीवार पर लिखे एक नारे पर मेरी नजर पड़ी। दीवार पर लिखा था- तपा और भानु के लाल खून से लाल बाजार को जला डालो, फूंक डालो।

लाल बाजार पुलिस का मुख्य कार्यालय था। मुझे पता चला, यह नारा नक्सलपंथी नौजवान भूपति ने लिखा है। कुछ ही दिनों बाद, वह भी पुलिस की गोलियों का शिकार होकर खत्म हो गया। ऐसे ही कुछ दिनों बाद, एक मध्यवित्त परिवार के घर की दीवार पर मैंने लिखा देखा- नफरत करो निशानदेही करो और ...को कुचल डालो-। उन दिनों कलकत्ता का दक्षिणी इलाका उदार क्षेत्रा माना जाता था। नक्सलपंथी और नक्सलविरोधी, दोनों ही वहां कुछ देर सांस लेने और आराम करने आते थे। इसी दौरान मेरे लेखन में नक्सल आंदोलन का जिक्र चल पड़ा। जलसत्रा’, ‘पिंडदान’, ‘कानाई बैरागी की मांवगैरह कहानियां मैं पूरी कर चुकी थी। एक शाम दो नौजवान मुझसे भेंट करने के लिए मेरे घर आए और बरामदे में ही रुककर मेरा इन्तजार करने रहे।

जब वे मुझसे मिले तो उन लोगों ने मुझसे पूछा, ‘आपने गांव-गिरांव के बारे में तो बहुत लिखा, शहर के बारे में कौन लिखेगा?;

उन लोगों को ध्यान रखते हुए मैंने हजार चौरासी की मांउपन्यास लिखा जो बांग्ला की एक फिल्मी पत्रिका प्रसादमें छपा था।

वैसे, इस आंदोलन से मैं सीधे-सीधे कभी नहीं जुड़ी। इसलिए मैंने एक ऐसी गैर-राजीनतिक मां के बारे में लिखा जिसकी पूरी की पूरी पीढ़ी, अपनी अगली पीढ़ी के बारे में बिल्कुल अंधेरे में थी। तथाकथित वामपंथियों के बच्चे भी सड़कों पर निकल पड़े थे और उन लोगों ने अपने मां-बाप के वामपंथी विचारों को झूठा और बनावटी कहकर उसे खारिज कर दिया था। मुझे उन बच्चों में आदर्श नजर आया। वे लोग निःस्वार्थ त्याग करते थे और उनमें लालच कहीं नहीं था। यह देखकर मैं पिघल गई, बहरहाल, ‘प्रसादपत्रिका किसी तरह जेल तक भी पहुंच गई। नक्सल कैदियों ने मेरी रचना पढ़ी और वे लोग अपने को मेरा आत्मीय समझने लगे। वैसे, व्यक्तिगत तौर पर मैं इस उपन्यास को खास निर्भर योग्य नहीं मानती। हां, असंख्य पाठकों ने यह किताब पढ़ी जरूर, मैं बस, इतना ही कह सकती हूं।

अमर मित्रा और सव्यसाची देव: इसी प्रसंग में आपसे मेरा एक सवाल है- क्या आपको लगता है कि लेखक का एक सामाजिक दायित्व भी होता है?

महाश्वेता देवी: हां, किसी भी लेखक के लिए सामाजिक उत्तरदायित्व का अहसास होना बेहद जरूरी है। हां, समाज के प्रति उसका एक कर्तव्य होता है। उसे अपनी जिम्मेदारी को भरपूर अहसास के साथ लिखना चाहिए।
 
दूसरा  साक्षात्कार: अख्तरुज्.जमान इलियास के साथ बातचीत -बांग्लादेश की पत्रिका शैली में 1997 में प्रकाशित।

अख्तरुज्.जमान इलियास: उपन्यासों में अनगिनत चरित्र होते हैं और उनकी कल्पना असाधारण होती है। इसलिए शत्राुपक्ष, जो उपनिवेशवादी होते हैं, वे ऐसे उपन्यासों से डरते हैं। आपके उपन्यास ने इस कदर हलचल मचाई है, यह सुनकर बेहद भला लग रहा है। डॉन क्विगजोट जब लिखा गया, लातिन अमेरीका के देशों में उस पर पाबंदी लगा दी गई। उस जमाने में डॉन क्विगजोट की पांडुलिपि और चंद मुद्रित किताबें, चोरी-चोरी लातिन अमेरीका में पहुंच ही गईं। वह प्रक्रिया अभी तक कायम है। रोक लगाने की प्रक्रिया!

महाश्वेता देवी: हां-हां! ब्रेख्त का गैलिलिओनहीं पढ़ा? गैलिलिओ ने अपनी पूरी थ्योरी एक बत्तख के पेट में भरकर, उसे सी दिया और उसे पार कर दिया। उधर उसके शागिर्द उस पर आरोप लगाते रहे कि उसने, उन लोगों के आगे आत्मसमर्पण कर दिया; हार कबूल कर ली। उस वक्त, शागिर्दों को समझ में नहीं आया। गैलिलियो कहता है- बत्तख का रोस्ट खाना बहुत अच्छा होता है, लेकिन बत्तख न खाया जाय, यही बेहतर है। तब वे लोग समझ गए कि उसकी थ्यौरी बत्तख के पेट में भरी हुई है। वे लोग उस बत्तख को लेकर यह जा-वह जा!

बहरहाल, नक्सलपंथियों की अपेक्षा और ज्यादा थी। नक्सल लड़कों ने मुझसे कहा, ‘आपने गांव की पृष्ठिभूमि में तो लिखा, लेकिन शहरों में जो हम सबकी हत्या पर हत्या हो रही है, हमारे बारे में तो आप कुछ लिख ही नहीं रही हैं।हां, मैंने गांव-देहात पर काफी कुछ लिखा है- कन्हाई बैरागी की मां, पिंडदान, जलशत्राु, द्रौपदी, अग्निगर्भ वगैरह-वगैरह। रांग नंबरअसाधारण कहानी थी। वह शहर की पृष्ठिभूमि पर लिखी थी। बहरहाल, वे लोग उलाहना देते रहे कि गांव के बारे में लिखा गया, वह स्मगल्ड हो गया। यह उन्हीं लोगों की फर्माइश थी! इसलिए उपन्यास भी लिखा! वे लोग भी दनादन जेल चले गए। जब बाहर आए, तो उन लोगों ने मुझे अपने में से ही एक मान लिया। हालांकि मुझे नहीं लगता कि मैंने उन लोगों के खास कुछ किया।

मुझे हमेशा से ही इतिहास में अटूट विश्वास रहा है। आजकल जो कुछ घट रहा है, जैसे वह इतिहास है, पिछला जमाना भी काफी कुछ आधुनिक वक्त जैसा ही था। पुराने दिनों का समाज भी आज जैसा ही था। वेदों में उल्लेख है कि तमाम ऋषि मुनि बेहद संसारी जीव थे। अपने घर की सबसे बड़ी बेटी को वे कुंवारी ही रखते थे। जब मां बूढ़ी हो जाएगी, तो वह घर गृहस्थी संभालेगी। घर की विधवा औरत जैसी! उनका कोई साध-आह्लाद पूरा नहीं होता था। वह घर की सिर्फ जिम्मेदारी संभालती थी। वह जमाना ऐसी कुंवारियों से भरा पड़ा था। समस्त पुराण या इतिहास उलट-पलट डालें, उस समय जो-जो प्रचलन में था, वही सब आज भी नजर आता है। आज भी जो देख रही हूं, उन दिनों भी श्रेणी निर्यातन था, वर्ग-शोषण भी प्रचलित था। आज जो वर्ण व्यवस्था प्रचलित है, यह भी तो वही है। एक वर्ग मजदूर ही बना रहेगा वह सिर्फ उत्पादन करेगा, दूसरे लोग मुनाफा लूटंगे। आज भी यह सिलसिला जारी है। एक मिसाल दूं- गांव-गांव में प्राइमरी स्कूल तो मौजूद हैं, लेकिन प्राइमरी के बाद, यानी पांचवीं कक्षा से दसवीं कक्षा तक पढ़ने के लिए एक स्कूल! अब एक स्कूल, 100 प्राइमरी स्कूल का जिम्मा नहीं उठा सकता; यानी एक विराट वर्ग की प्राइमरी शिक्षा, उसी हद तक सीमाबद्ध रह जाती है। योजना यह है कि वे लोग मजदूर हैं, जो उत्पादन करते हैं; चाहे वे खेती-बारी करते हों या संगठित-असंगठित मजदूर हों, खेतिहर, कुली-कबाड़ी हों, इनकी लिखाई-पढ़ाई, लाख कोशिशों के बाद भी सीमाबद्ध रह जाती है! यह लाचारी है! आज सुबह ही जब मैं यरोमा के घर से निकल रही थी, मैंने देखा कि सजे-धजे एक महोदय, अपने ड्राइवर को जमींदार का बच्चाकह कर गाली-गलौज कर रहे थे। मेरा मतलब है, इंसान की मानसिकता अभी भी बिल्कुल सामंतवादी है और ये जो भूखंड है- प. बंगाल, बांग्लादेश और बाकी हिंदुस्तान, इनकी विशेषता ही यही है कि ये लोग एक साथ सातवीं और ग्यारहवीं सदी में जीते हैं और सोचते यह हैं कि वे लोग बीसवीं सदी पार कर आए। सारा कुछ वैसा का वैसा। वही सामंती ध्यान-धारणा, वही शोषण, वही घृणा! इनके खिलाफ जब कभी-कभी विस्फोट या धमाका होता है, उसे बगावतनाम दे देते हैं। नक्सल आंदोलन के जमाने में मुझसे लोग पूछते रहते थे, चूंकि हजार चौरासीवें की मांनिपट अ-राजनीतिक मां की कहानी थी, उसमें कोई राजनीति नहीं थी; बस, ले-देकर बात इतनी-सी थी कि वह मां अपने बेटे की पीढ़ी को जानती-पहचानती नहीं थी। उन दिनों प.बंगाल में एक भयंकर टैªजेडी हुई थी, जो हम सबने देखी थी। बाप-मां सीपीआई या सीपीएम करते थे, उनके बेटे उतने में ही संतुष्ट नहीं थे। वे लोग किसी पार्टी का नाम नहीं चाहते थे, वोट की राजनीति नहीं चाहते थे, गद्दी दखल करना चाहते थे। जो लोग कुछ भी नहीं चाहते थे, उन्हीं लोगों ने ऐसा एक नारा लिखा था, उन्हीं लोगों को तो गोली खानी ही होगी। जिस दिन उन लोगों ने यह नारा लिखा, उस दिन दोनों बंगाल और समूचे देश का दिल दर्द से टीस उठा था। उसके कितने ही नतीजे हमने देखे। मुझे नक्सल आंदोलन के बारे में ऑथोरिटीमाना जाता हैं लेकिन, आई एम नो ऑथोरिटी! मुझे नहीं पता, मैंने कोई थ्योरी भी नहीं पढ़ी। मुझे मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओत्से तुंग पढ़ाने की बेहद कोशिश की गई, मगर मुझसे पढ़ा नहीं गया। मैंने सिर्फ इंसानों को पढ़ा है, उनसे ही सबक लिया है। इस आंदोलन के बारे में, मैंने पहले भी बातचीत की है; इस बारे में लेखक शिविर में चर्चा की थी; कोई एक संस्था में भी इस बारे में बोली थी। जमाने पहले, जो सब आदिवासी आंदोलन, कृषक विद्रोह हुए, उन सबको कभी ब्रिटिश विरोधी आंदोलन के रूप में जाना-माना ही नहीं गया। स्वाधीनता संग्राम के इतिहास से इन्हें बिल्कुल अलग-थलग रखा गया। विदेशी हुक्मरानों को हटाने के लिए, उन लोगों ने अपनी जानें दीं, लेकिन हमने उन्हें अहमियत नहीं दी। सन् 1929 के जमाने में, जब अहिंसा-आंदोलन अपने चरम पर था, आंध्र के आलूरी सितारमैया राजू नामक, एक ब्राम्हण लड़का वकालत पास कर चुका था मगर सब छोड़-छाड़कर वह डी-क्लास हो गया। श्रेणीच्युत! उसने वहां के आदिवासियों को न्याय दिलाने के लिए गोरिल्ला फौज तैयार किया। ही विकेम सच ऐ टेरर, कि उसे पकड़ने के लिए कितने ही लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन किसी ने भी उसका अता-पता, पहचान नहीं बताई। लोगों को तो पकड़ ले गए, उनमें से एक बंदे को खींचते-घसीटते पहाड़ की चोटी पर ले गए; नीचे सितारमैया राजू! उस आदमी ने पहाड़ के ऊपर से ही चिल्लाकर सावधान किया- राजू होशियार!राजू ने चौंककर ऊपर सिर उठाया। ऐन उसी वक्त एक गोली छूटी। उधर पहाड़ से कूदकर, उस आदमी ने आत्महत्या कर ली। उन दिनों ऐसा सशस्त्र संग्राम छिड़ा हुआ था।'

मालदह के जीतू संथाल को लें। सन् 1921 जब गांधीराज हो चुका था, जब उन्होंने सत्याग्रह की पुकार दी; और इस सिलसिले में हम आजाद हो चुके थे; दूसरे लोगों ने जोर जबर्दस्ती संथालों से उनकी जमीने छीन लीं। उन दिनों खाई खलासी का रिवाज प्रचलित था। भयंकर रिवाज! जीतू संथाल ने फैसला किया, इस शोषण से उन लोगों को अपनी जान बचानी ही होगी। उसने संथाल बिरादरी को पुकार दी। हजारों-हजार संथाल जमा हुए! बैलगाड़ियों से लदकर औरतें, बच्चे आ पहुंचे! साल पेड़ की छाल उखाड़कर उन सबने गिरह दी। गिरह देने का मतलब था, आह्वान देना। यह एक अद्भुत देशी तरीका था! हमें अपने देशी तरीके की रक्षा करनी होगी; हमें कौशल से काम लेना होगा। उन लोगों ने चार-चार गिरहें दी यानी चार दिन बाद बगावत होगी। इसके बाद, सब दिशा-दिशाओं में बिखर गए। पहाड़ की चोटी पर आग जला दी जाती; मशाल जलाए रखते। जितना अनाज था, सब उठाकर पहाड़ पर ले आए। हर जगह के पानी में जहर मिला दिया गया! अब किसी को पीने का पानी नहीं मिलेगा, किसी को खाना नहीं मिलेगा। हो जाएं, सब खाने-पीने को मोहताज! यह नेटिव मेथड इज ऑलवेज बेटर दैन अदर मैथड!

अख्तरुज्.जमान इलियास: अभी क्या यह चलता है?

महाश्वेता देवी: अब ऐसा नहीं कर सकते! गिरह जो चाहिए! हम या तुम अगर कुछ करना चाहें और हमारे सामने समानधर्मी लोग मौजूद हों, तब हम मिलकर तय करेंगे। हम सवाल करेंगे। हम क्या कुछ भी नहीं कर पाएंगे, हमारे पास माटी है; पेड़ है; बातें हैं-हम क्या कुछ भी नहीं करेंगे, आप बताएं, करेंगे या नहीं?

अख्तरुज्.जमान इलियास: हां, बेशक करेंगे!

महाश्वेता देवी: हम करेंगे!

अख्तरुज्.जमान इलियास: करना ही पड़ेगा मजबूरी है!

महाश्वेता देवी: मजबूरी? जीतू संथाल जब आ रहा था उसके साथ आशु चक्रवर्ती वकील भी था। एकमात्रा आशु चक्रवर्ती ही संथालों के केस लड़ता था। वहां एक विराट मस्जिद है-अदीना मस्जिद! उसके पीछे ही एक टीला था! वहां पुलिस सुपरिटेडेंट, समशुल हुदा खड़ा था। पहले उसी ने आशु चक्रवर्ती को आवाज दी। आशु चक्रवर्ती ने उसे आगाह किया- किसी भी शर्त पर भी ...यू विल नॉट ओपेन फायर! गोली नहीं चलाओगे!पुलिस सुपरिटेंडेंट ने आश्वासन दिया, ‘नहीं चलाऊंगा गोली।उसने जीतू को पास बुलाया। जीतू आगे बढ़ा, जब वह लंबे लंबे डग भरता हुआ टीले पर चढ़ रहा था सुपरिटेंडेंट ने गोली दाग दी। जीतू अपनी दोनों बांहें फैलाए, जोर से चीखा और वहीं ढेर हो गया, उसकी चीख सुनते ही चारों तरफ से तीरों की बरसात होने लगी। जिधर जिधर से तीर बरस रहे थे उस तरफ निशाना साधकर गोलियां दागी जाने लगीं। जब तीर बरसने बंद हो गए, चारों तरफ सन्नाटा छा गया, तो अंग्रेज पुलिस आगे बढ़ी। उस वक्त तक बच्चों की चीख पुकार भी स्तब्ध हो गई। पुलिस ने देखा, प्रायः सारे मर्द मर चुके थे। बस, कुछेक औरत-बच्चे जिंदा थे। कुछ औरत-बच्चे मुर्दा हो चुके थे। कुछ जख्मी थे। सबके सब चुप! बेआवाज! आशु चक्रवर्ती ने खुद बाद में यह किस्सा बयान किया- वहां से बैलगाड़ियों में धनुष लादकर ले जाया गया। सिर्फ धुनष! तीरहीन धनुष! यानी जब समूचे हिंदुस्तान में अहिंसा की लहर थी, तब उस किस्म का आंदोलन, जन आंदोलन, लगातार सशस्त्रा क्रांति की तरफ बढ़ता गया।

अख्तरुज्.जमान इलियास: हिंसा की तरफ?

महाश्वेता देवी: हां, हिंसा की तरफ! इंसान को हिंसा यानी वायलेंस का पूरा पूरा हक है! क्रांति पवित्रा होती है। क्रांति सूर्य की तरह होती है। क्रांति जलती है, सुलगती है और साहित्यकार प्रतिबद्ध होता है, उसके अक्षर अक्षर जल उठते हैं! उसके अक्षर ही अस्त्रा बन जाते हैं! ऐसे अस्त्रा, जो पहाड़ तक को हिला सकते हैं। तुम्हारे ही देश का बंदा, तुम्हारे सामने बैठा है-यह अख्तारुज्जमां इलियास! इसका साहित्य पढ़ो! इतिहास के बिना, कोई भी रचना, रचना नहीं होती। उसी के उपन्यास में जब हड्डी खिजिर की मौत होती है, तो जो लोग विद्रोह में शहीद हो चुके थे, वे आगे आते हैं- अन्यान्य विद्रोहों में भी जिन लोगों ने अपनी जानें गवाईं थीं, वे लोग भी आते हैं। उस दिन, मैंने भी यही कहा था- यह जो विविध आदिवासियों के विद्रोह हुए ....लगातार चलते रहे, उसका नतीजा क्या निकला? उन लोगों को खींचकर बंगाल के प्रेसीडेंसी में ले आया गया। अब वे लोग जंगल साफ करते हैं, सुंदरवन के रेलों की सफाई करते हैं, कुछ लोग हिमालय के करीब, चाय बगान की मिट्टी तैयार करने में जुटे हैं; प.बंगाल में अन्यान्य जगहों में खेती के लिए मिट्टी तैयार करते हैं। इन संथाल, मुरंग लोगों ने जब आबादी लायक, हल चलाने लायक जमीनें तैयार कर लीं तो इनकी ढेरों जमीन जमींदारों ने हथिया लिया। आदिवासी किसानों की जमीन की भूख से ही तेभागा आंदोलन की शुरुआत हुई। रूस के हुक्म पर तेभागा आंदोलन को चरम की तरफ ले जाया गया। उन दिनों जो हाल डांगा, सुंदरवन का था, वही हाल यहां वोदा, पोचागढ़ का था। चारु मजुमदार अलग निकल गया। वह माधव दत्त, सचिन दास गुप्त नई कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गया। हू विल लीड दैट? पुलिस गोलियां बरसाने लगी। उसका पार्टी की बातों पर अटूट विश्वास था। जो लोग विश्वास करते थे, उनका भी वही हाल हुआ। बारह आदिवासी औरत-मर्दों की हत्या हो गई, उनमें शायद सात तो औरतें ही थीं। उसके बाद, नक्सल आंदोलन छिड़ गया। वही नक्सल आंदोलन, जो तेभागा आंदोलन का सामानांतर था! क्याोंकि जंगल में सथालों की जो लड़ाई जारी थी, वह थी उनकी जमीन की लड़ाई, चाय बगान मालिकों ने उन लोगों को जमीन से उखाड़ फेंका था। उन्हीं जमीनों के लिए नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरूआत हुई थी। समूचे हिंदुस्तान में वह आंदोलन, नक्सल आंदोलन के नाम से मशहूर हुआ। ऐसे में जगह-जगह जो लड़ाई छिड़ी, वह जमीन की लड़ाई थी। एक गु्रप तो आज भी आंध्र में कोई चला रहा है। शंकर गुहा नियोगी ने और राह अपनाई। वह सशस्त्र क्रांति में नहीं गया। अगर जाता, तो क्या होता, पता नहीं। उसने एक सुसंगठित लड़ाई शुरू की थी। जब मैं बिहार गई थी, वहां मैंने देखा, वही शोषण, बंधुआ मजदूर वगैरह ...। उसके बाद, कृष्ण सिंह और उसके साथी संपूर्ण नक्सल आंदोलन लेकर आए। ही वाज किल्ड! मार दिया गया उसे! यह सिलसिला काफी दिनों तक चलता रहा। बिहार में दो जगहें हैं- एक कृषि क्षेत्र और दूसरा जंगल के अंदर! कृषि क्षेत्रा आंदोलन में कई अविस्मरणीय नाम जुड़े हैं- गांधीराज, जगदीश प्रसाद, मास्टर साहब ...जाने कितने ही बंगाली वहां बसे हुए हैं।

मेरा कहना है, इतिहास ही अल्टिमेट है। चरम पुराने आंदोलन के साथ तेभागा आंदोलन भी गठित हुआ और उसी के फलस्वरूप नक्सल आंदोलन! और इसी आंदोलन की जरूरत पर ही, वह इस भूखंड तक आ पहुंचा। किसी जमाने में लाल रंग लहराता था। उस जगह को लाल रंगपुर कहा जाता था। सारे के सारे तेभागा आंदोलन की जगह ही कम्युनिस्ट पार्टी के मातहत थी। दिनाजपुर में तो जबर्दस्त आंदोलन हुआ। उसके बाद हाट खोला में आंदोलन, खुलना के विष्णु विश्वास का डुमूदियर आंदोलन हुआ, कितना कितना गिनाऊ? यह लगातार आंदोलन कहां से शुरू हुआ? शोषित वर्ग के लोगों की वर्ग संरचना से! वह सब भूमि वंचना थी, मिट्टी के बिना कुछ भी जिंदा नहीं रह सकता, उसी से तमाम आंदोलनों का जन्म होता है। 

मेरी आलोचना की जाती है कि जहां आंदोलन नहीं है, मैं विरोध करती हूं। मैं शायद इतिहास में विश फुलफिलमेंटभी दिलाए दे रही हूं- इच्छा-पूरण किस्म की कोई चीज! लेकिन मुझे तो ऐसा प्रतिवाद हमेशा ही नजर आता है। जो लोग मेरी निंदा-आलोचना करते हैं, चूंकि उन लोगों ने जनजीवन नहीं देखा है, न उनसे जुड़े हैं, इसलिए वे लोग ऐसा कहते हैं। ऐसा प्रतिरोध हमेशा ही मेरी नजरों में आता है। पैदल चलते चलते नजर आता है, घूमते फिरते नजर आता है, खबरें भी मिलती रहती हैं... कई कई जरिए से हाल हवाल मिलता रहता है! आज का जमाना भी पुराने जमाने की तरह है- वही वंचना, वही असमानता, वही भूमिपुत्रों को भूमि से वंचित करना! इतिहास बोध न हो, तो देखो आज क्या हाल है? बांग्लादेश मुक्तियुद्ध इतना बड़ा तजुर्बा है। इससे तो एक महापुराण रचा जा सकता था, कोई वृहद उपन्यास लिखा जा सकता था। दो उपन्यास आए भी- चिलकोठा का सिपाहीऔर ख्वाबनामा। इन दोनों उपन्यासों में से कोई भी उपन्यास मुक्तियुद्ध पर नहीं लिखा गया। लेकिन, यह भी सच है कि मुक्तियुद्ध नहीं हुआ होता, तो शायद ये उपन्यास भी नहीं लिखे जाते। बहुतों ने लिखा, अच्छा लिखा; कुछ लोग कविता लिखकर ही संतुष्ट हो गए या दो एक उपन्यास लिखकर रुक गए। क्यों? इतनी बड़ी घटना ने उनके दिमाग में हलचल क्यों नहीं जगाया। आप सबसे मेरा विनम्र सवाल है, मुक्तियुद्ध का सहित्य, एकबारगी मुक्तियुद्ध कंेद्रित क्यों नहीं रहा? आप सबको अपने से पूछना चाहिए। भारत का कोई लेखक आकर उसकी निंदा कर गया, जिसका हम सम्मान करते हैं, ‘इट इज नाट दैट’! अब कोई मेरी निंदा करे या प्रशंसा, मैं इन सबसे दूर चली आई हूं, मध्यवित्त समाज से काफी दूर चली आई हूं। कलकत्ते में रहती सहती जरूर हूं, मगर मानसिक रूप से कहीं और जा पड़ी हूं। बहरहाल, ऐसा क्यों हुआ, आप लोगों ने खुद से ही पूछना चाहिए। यहां के तमाम लेखकों ने महा अपराध किया है जो ग्राम बांग्ला खून से नहा उठा, कब्रगाह बन गया ...कितने ही लोगों ने अपनी जानें गवाईं। कितने ही निःस्व हो गए ...उन लोगों ने क्या कहा, उस मुंहजबानीपरम्परा को कायम नहीं रखा गया। उनके पास हम नहीं पहुंचे; उन लोगों के दुख-कष्ट मिटाने की कोशिश नहीं की गई। हमारे देश में भी नक्सल आंदोलन को पूंजी बनाकर बहुतों ने बहुत कुछ किया ...।


तीसरा साक्षात्कार: गायत्राी चक्रवर्ती स्पीवाक के साथ बातीचत -इमेजनरी मैप्सथीमा में 1993 में प्रकाशित।

गायत्राी चक्रवर्ती स्पीवाक: अपनी कहानियों के बारे में कुछ कहें।

महाश्वेता देवी: शिकारकहानी को ही लेते हैं। इलाका जैसा मैंने देखा है, उतना ही पहचानती हूं। कहानी में जिसे उरांव कहा है, उसे देखा है। बिहार में भी वार्षिक शिकारपर्व मनाया जाता है। यह न्याय-विचार उत्सव के नाम से भी जाना जाता है। शिकार के बाद समाज के गणमान्य लोग अपराधी का विचार करते हैं। वे लोग पुलिस के पास नहीं जाते। संथाल भाषा में इसे ल-विरकहते हैं। का अर्थ है कानून। प्रत्येक बारहवें वर्ष पर यह जानी-परब मनाया जाता है। यह लड़कियों का शिकार-उत्सव है। लड़कियां अपराधी का शिकारकरती हैं उसे समाज के सामने लाकर दंडित करवाती हैं। इस कहानी में वर्णित सभी घटनाएं सत्य हैं। आदिवासी समाज में नारी बलात्कार, उसका असम्मान, अपमान करना वृहत्तम अपराध है। बलात्कार वे लोग नहीं जानते हैं। आदिवासी समाज में लड़कियों का बड़ा सम्मान है। जब लापरा जाती तो देखती कि गौरवर्णा लड़की देहाती ढंग से पीली साड़ी पहने एक मोटी लड़की की पीठ का सहारा लिए आराम से बैठी हुई गन्ना का रस चूस रही है या भुट्टा चबा रही है। तोहरी बाजार में भी देखी हूं कि वे पान चबाते हुए फल और साग-सब्जी का दर-मोलाई करती हैं। वे बीड़ी पीती हैं। बहुत तर्क करती हैं और जीत जाती हैं। क्या व्यक्तित्व है! बाद में पता चला कि अपनी पसंद के मुस्लिम लड़के के साथ विवाह करने के लिए उसने जानी परबके दिन क्या किया था। गाना सुन सुनकर घटना के बारे में पता चला। आदिवासी लोग तो लिखते नहीं हैं। जब घटित होता है, उसी को लेकर गाना बना देते हैं। वे लोग गानों के माध्यम से ही युद्ध, संघर्ष, प्राकृतिक विपदा आदि सारी स्मृतियांे को बचाए हुए हैं। ये बस संग्रह करने का काम चल रहा है। जाड़े की रात में खुले आसमान के नीचे आग सेंकते-सेंकते उनकी कहानी सुनी। जिस व्यक्ति को मारा गया, वह एक तरह से भेड़िया ही था। सच तो यह है कि गायत्राी कि उस दिन जानी-परबथा, लड़कियों का शिकार-उत्सव। समग्र आदिवासी समाज की दृष्टि में जो पाप है उस पर विचार करके वार्षिक शिकार-उत्सव के सही अर्थ को उसने पुनर्जीवित किया था।

सन् 1955-56 के महान संथाल जन-विद्रोह के कारणों में से एक महत्वपूर्ण कारण था- आदिवासी लड़कियों से बलात्कार करना। पाठकों का आरोप है कि कहानी में मैंने रक्तपात का बहुत अधिक समर्थन किया है। मुझे लगता है कि जब आदिवासी या शोषित लोगों की बात कर रही हूं, तब ये हिंसा समर्थन योग्य है! राष्ट्र-व्यवस्था जब न्याय की प्रतिष्ठा करने में असफल है तब यह हिंसा युक्तिसंगत है। जनता जब किसी अन्याय के विरोध में उठ खड़ी होती है, तो राष्ट्र व्यवस्था भी तो हिंसा का आश्रय लेती है। यद्यपि कहा जाता है कि भारत अहिंसावादी राष्ट्र है। इस अहिंसा के देश में प्रतिवर्ष कितनी गोलियां चलती हैं, कितने मासूम लोग मरते हैं, इसका कोई हिसाब नहीं है। राष्ट्र-व्यवस्था जहां असफल है, तब अपने को बचाए रखने के लिए व्यक्ति को हिंसा या कोई भी उपाय ग्रहण करने का अधिकार है। व्यक्ति हमेशा चुपचाप अत्याचार नहीं सह सकता। तहसीलदार उच्चवर्ण के ही प्रतिनीधि हैं। वे ठेकेदार हैं और पीछे है समस्त प्रशासन-तंत्रा। यही लोग गैरकानूनी ढंग से जंगल काटते हैं और सर्वदा दोषी साबित होते हैं-आदिवासी लोग। एक बार एक आदिवासी ने मुझसे कहा था कि पेड़ काटने को बोलो, इच्छा न होने पर भी काट दूंगा। सर काटने को बोलो, काट दूंगा क्योंकि दिन भर में पांच रुपया चाहिए। इससे यह साबित हुआ कि जो हाथ पेड़ काटता है, वह हाथ भारत के वन विनाश के लिए उत्तदायी नहीं है। वनों की कटाई के साथ लाखों रुपए को मुनाफा जुड़ा हुआ है। दिल्ली, हैदराबाद या कोलकाता के फर्नीचर को देखो। स्थानीय राजनेता, अंचल विशेष की पुलिस व प्रशासन घूस खाते हैं। गैरकानूनी ढंग से लकड़ी काटने का कारखाना चला रहा है। शहर के बड़े  बड़े लोग ही तो कर्नाटक के चंदन के पेड़ काटने के पीछे हैं। सारी दुनिया की सभी सरकार वातावरण में संतुलन बनाए रखने के लिए वृक्ष की रक्षा के प्रति जागरूक हैं, यह बात अविश्वसनीय है। आज के भारत का जो सत्य है, उन सभी घटनाओं को मैंने मेरी उरांवकहानी के माध्यम से कहने का प्रयास किया हैं स्वयं को तो भारतीय लेखिका ही मानती हूं। केवल बंगाली लेखिका नहीं।
अब दौलतीकी बात कहती हूं। तुमको तो बतायी है मैंने पलामू भ्रमण की बात। मैं वहां बार बार जाती थी। दौलतीका प्रेक्षापट पलामू ही है। वहां की दासमजदूर प्रथा का अंत का एकमात्रा रास्ता है: नक्सलपंथियों के युद्ध का रास्ता। जिस तरह से आदिवासी लोग पलामू के साथ बिहार की विभिन्न जगहों पर एवं आंध्र के वनकर्मी, बगीचा में काम करने वाले मजदूर, खेत मजदूर आदि आदि अपनी न्यूनतम मजदूरी के लिए लड़ रहे हैं, उनके लिए यही रास्ता अपनाना उचित है। दौलतीकहानी में यह बताते का प्रयास किया है कि एक लड़की या लड़कियां किस प्रकार विशेष रूप में शोषित होती हैं।
दौलतीकहानी के कंेद्र में जो समस्या है, उसे बिजनेस स्टैंडर्डमें लिख चुकी हूं और इसके लिए सरकार से लड़ी भी हूं। कहने के लिए भारत सरकार ने दास मजदूर प्रथा का अंत कर दिया है। ठीक है कि अब यह प्रथा कृषि क्षेत्रा से संबंधित नहीं है लेकिन ठेकेदार द्वारा विभिन्न राज्यों से किसी शिल्पगत परियोजना के अंतर्गत जिन बेगार श्रमिकों को लाया जाता है, वे लोग दास मजदूर ही हैं। हिमालय के उत्तरकाशी जिला में यह प्रथा बहुत प्रचलित है। उच्चवर्ग के ऋणदाता से पति या पिता ने ऋण लिया, जिसे चुकाने के लिए कुंवारी या सद्यःब्याहता स्त्राी को किसी बड़े शहर के लाल बत्तीइलाका में ले जाया जाता है, जहां वे देह बेचकर ऋण चुकाती हैं। यह ऋण कभी चुकता ही नहीं, चक्रवृद्धि ब्याज के अंतर्गत ऋण बढ़ता ही चला जाता है।

तीन कहानीयां दास मजदूर को लेकर लिखी है। दौलतीपहली कहानी है। पलामूकहानी में एक लड़की की बुद्धिमत्ता के माध्यम से दासमजदूरों के संगठित होने की बात कही गई है। गोहूंमनिकहानी में लड़की प्रतिशोध लेती है। जो ऋणदाता उसे ले जाने के लिए आते हैं, उसको दंडित करती है। गोहूंमनि का अर्थ है मादा गोखरो सांप। वर्षा के पहले जून के महीने में अपनी आंखों से टेड़ा नागेसिया को देखी थी। पलामू में वर्षा बहुत कम होती है। गर्मी बहुत पड़ती है। जमींदार धान को बैलगाड़ी में रखवाकर बाजार तक ले जाते हैं। गाड़ी खींचने का काम बैल के स्थान पर मजदूरों द्वारा करवाया जाता है। रास्ता इतना ऊबड़-खाबड़ है कि जरा भी संतुलन बिगड़ने पर गाड़ी उलट जाने की संभावना बनी रहती है।  जहां संतुलन बिगड़ा कि धान से भरी हुई बोरी के नीचे दबकर मजदूर या तो मर जाता है या कंधा कमर तुड़वाकर सारा जीवन पंगु बनकर गुजारने के लिए बाध्य होता है। मैंने जमींदार से पूछा कि वैसा काम वे क्यों करवाते हैं? पलामू के जमींदार के साथ बात करने जाने पर कहना ही पड़ता है कि मैं एक सरकारी ऑफिसर हूं, रुपया लेती हूं। यहां भी मैंने अपने बारे में यही बताया। जमींदार ने मुझे खुश कने के लिए दूध अैर मिश्री खाने को दिया, फिर उसने कहा कि तुम तो ऊंची जाति की हो। बैल के दाम बहुत है। यदि इतनी गर्मी में बैल गाड़ी खींचकर ले जाएगा तो संभव है कि गिरकर मर जाए। इन बंधुआ मजदूरों का तो वैसा दाम नहीं है। एक व्यक्ति पंगु हो जाता है तो हो जाए, लेकिन एक भी बैल का नुकसान स्वीकार नहीं है। ये थी उनकी दलीलें। और यही दलील सर्वत्रा चलती है। मजदूर यहां बहुत सस्ता मिलता है जबकि मशीन का दाम बहुत है।
स्थानीय अस्पताल में एक कंकालकाय लड़की मिली जो अपने गांव का नाम छोड़कर और कुछ नहीं बोल सकी। इसे लेकर कहानी लिखी। गांव का नाम दिया सेउरा। ऐसा गांव पलामू में सब जगह है। दासमजदूर प्रथा के विरोध में जहां आंदोलन है, वहां अब ऐसा संभव नहीं है। लेकिन व्यवसाय के लिए लड़कियों को बेचना तो चल ही रहा है। दौलती आज भी सच् है। भारत में सब जगह सच् इसलिए कहानी का अंत भी सोचकर लिखा है। दौलती का रक्ताक्त सड़ा शव भारत जैसे उपमहादेश मंे सर्वत्रा फैला हुआ है। हैदराबाद के एक विशेष इलाके में चारदीवारी के मध्य खरीददार लोग विवाह के नाम पर लड़कियों को खरीदते हैं। माता-पिता वहां जाने को बाध्य हैं क्योंकि वे इतने गरीब हैं कि अपनी बेटी को अन्न-वस्त्रा तक नहीं दे पाते हैं। इसका कारण है दरिद्रता, गरीबी। टाइम्स ऑफ इंडियाने इससे संबंधित कुछ मर्मस्पर्शी घटनाओं के बारे में लिखा था। जब तक भारत की जनसंख्या का प्रायः 80 प्रतिशत लोग गरीबी की सीमा-रेखा से नीचे रहेंगे, तब तक यह बंद नहीं हो सकता। औपनिवेशिकतावाद से मुक्त होना गरीबों के भाग्य में नहीं है। इसलिए तो यह सब होता है। लड़कियां तो बेचने की वस्तु मात्रा हैं प.बंगाल के सीमांत जिलों में बांग्लादेश से लड़की वस्तु आ रही है। अन्य राज्यों से तथाकथित विवाहेच्छुक व्यक्ति गरीब माता-पिता को रुपया देकर लड़कियों के नाम-सेविवाह कर रहे हैं एवं लड़की वस्तु को भेज रहे हैं। देह व्यवसाय का पूंजी-विनियोग क्या है? दो साड़ी, कुछ अनाज, नकली गहना और लड़की के माता-पिता को देने के लिए कुछ रुपया। इसे रोकने के लिए यह जरूरी है कि हम लोग एक जनमत तैयार करें। सरकार पर इसे रोकने के लिए दबाव दें तथा सामान्य जन भी सतर्क पहरा दे। एक राजपूत रमणी को जलाकर मारना जहां जातीय इश्यू बन जाता है, उस राष्ट्र से आशा ही क्या की जा सकती है। एक लड़की के साथ बलात्कार होने पर सारी व्यवस्था और सारे विचार लड़की के विरोध में चले जाते हैं। इससे से तो यही निष्कर्ष निकला कि दुश्चरित्रा लड़कियों के साथ ही बलात्कार होता है। बलात्कार की घटना पर कोलकाता के वामपंथी दल की महिलाओं की युक्ति या तर्क में समानता दिखाई देती है।

टेराडेक्टिलमेरे समग्र आदिवासी ज्ञान का सार है। नागेशिया आदिवासी के माध्यम से मैंने दूसरे आदिवासियों की बात भी कही है। किसी एक आदिवासी समूह की प्रथा या रीति के बारे में नहीं लिखा है। मृतक को सम्मान देने के विषय में कहां जा सकता है कि अनेक आदिवासी समूहों की प्रथा और रीति को मिलाकर लिखा है। मनोयोगपूर्वक पढ़ने से टेरोडेक्टिलआदिवासीयों के साथ ही मानसिक पीड़ा से ग्रस्त सभी मनुष्यों की यंत्राणा की बात कहती है।

रांची जिला के गढ़े हुए प्रस्तर खंड को देखो तो मालूम होगा कि वह एक प्राचीन समाधि-क्षेत्रा है। एक बार मैं सुदूर सिंहभूमि जिला के जंगल और नदी के किनारे पैदल टहल रही थी। आदिवासियों से बातचीत करते हुए मैं उनसे बोली कि इतनी गर्मी में अगर दो बार बीस मील पैदल चलूंगी तो मर जाऊंगी। इस पर सान्तवना देते हुए वे लोग बोले कि चिंता मत कीजिए। हम लोग बहुत दूर से बड़ा-बड़ा पत्थर लाकर आपकी समाधि पर रखेंगे। इस पर मैंने उनसे पूछा कि अगर मैं मर ही जाऊंगी तो मेरा क्या लाभ? वे लोग बोले कि दीदी, इधर तो चारो तरफ पत्थर ही पत्थर हैं। ये सब पत्थर चाहे वे जितने भी बड़े क्यों न हों, इसे देकर तो तुम्हें योग्य सम्मान नहीं दिया जा सकता। इसलिए बहुत दूर से पत्थर लाकर तुम्हारी समाधि पर रखकर तुम्हें योग्य सम्मान दिया जाएगा। जाने दो, वहां नहीं मरी। सच् कहूं, मरना चाहती भी नहीं थीं और बीस वर्ष तक कर्मरत रहकर जीना चाहती हूं।


टेरोडेक्टिलमें यह दिखाने का प्रयत्न किया कि भारत के समस्त आदिवासी जगत के लिए क्या किया गया है? मानो ये एक महादेश था जिसके बारे में न तो जानते थे और न ही कभी जानने की चेष्टा हुई। सभी जगह तो यही देख रही हूं। दो अमेरिकन महादेशों की बात सोचती हूं। हम लोग उन लोगों को जानने नहीं गए। इतनी शताब्दियों के बाद आज उनकी कौन कौन सी संभावनाएं बची हुई हैं? जब एक हजार आदिवासी भारतीय नर-नारी और बच्चे एक साथ बैठते हैं तो क्या वे लोग शांत होकर भाषण सुनते हैं? उच्च वर्ण लोगों के लिए यह चिंता का विषय नहीं है। उनका धक्का मुक्की करना, गाना गुनगुनाना, फुसफुसाकर बात करना- ये सब कुछ हम लोगों से भिन्न है। उनके खून में इतना धैर्य है मानो प्राकृतिक स्नेह हो। आदिवासियों में प्रकृति के सारे गुण मिलते हैं जैसे पहाड़ों का धैर्य, नदियों की शांति। प्रत्येक आदिवासी मानो एक महादेश है। लेकिन हम लोगों ने कभी उन्हें जानने का प्रयत्न ही नहीं किया। उनसे प्रेम करना नहीं सीखा। सभी आदिवासी क्षेत्रा में यह बात सत्य है कि हम लोगों ने उन्हें नष्ट करके रख दिया है। नागेशिया के संदर्भ में देखा है कि पहाड़ों पर वे लोग पत्तों से कुटिया बनाते हैं। सुदूर के किसी विस्मृत अतीत में मानो बहिरागत लोग उन पर आक्रमण करते रहते रहे हों। इसलिए तब से वे लोग ऊंची पहाड़ी पर कुटिया बनाकर रहते हैं। ताकि नजर रखी जा सके कि किसी भी तरह से आक्रमण की आशंका तो नहीं है। इसके बावजूद वे आक्रमणकारियों को नहीं रोक पाए। आदिवासियों के संबंध में सोचने पर लगता है कि उनके शोषण के दूसरे बड़े बड़े रास्ते उनके शत्राुओं ने खोज निकाले। उनकी खेती से जो अनाज या तरकारी आदि की उपज होती, उसे वे इन्हीं रास्तों से बाजार ले जाते। सूखा या बाढ़ के समय वे लोग ट्रक से आते और आदिवासी लड़के-लड़कियों को बाजार में ले जाकर दास मजदूर के रूप में उनकी बिक्री करते। क्या इसे भुलाया जा सकता है कि पलामू में छः से दस साल के बीच के आठ बालकों का गलीचा 
बनाने वाले कारखानें से किस प्रकार उद्धार किया गया! बाद में वे लोग भाग गए क्योंकि उस कारखाने के मालिक ने उनकी पीठ पर लोहा गरम करके दागा दिया था। उनके माता-पिता, राज्य सरकार तथा राज्य की पुलिस के सहयोग से उनका उद्धार हुआ। लेकिन आदिवासी, मुस्लिम और तपशील जाति के उन असंख्य बालक-बालिकाओं का क्या होगा जो तमिलनाडु के माचिस, पटाखा और और मेटल बनाने वाले कारखानों में काम करते हैं। पूंजीवादी बाजार में बच्चों, विशेष रूप से आदिवासी बच्चों की बहुत आवश्यक्ता है। उन्हें कम वेतन दे सकते हैं, भूखे रख सकते हैं, मार सकते हैं, लेकिन कोई पूछने नहीं आएगा। टेरोडेक्टिलएक प्रागैतिहासिक प्राणी है। आधुनिक मनुष्य इन समाचारों के विषय में कुछ नहीं जानते हैं। टेरोडेक्टिल के साथ उनका कोई संबंध नहीं है। टेरोडेक्टिल नहीं बता सकता कि कौन सा रास्ता उपयुक्त है। उच्च वर्ण के प्रतिनीधि संवाददाता का भी आदिवासियों के साथ कोई संपर्क नहीं है। टेरोडेक्टिल और संवाददाता का जीवन एक सामानान्तर रेखा के सामान है तथा संवाददाता और आदिवासी जीवन का पथ, ये दो सामानान्तर रेखाएं हैं। संवाददाता यही नहीं जानते कि आदिवासी क्या चाहते हैं? उनके लिए सबसे अधिक जरूरी क्या है? जिस स्थान पर वे लोग इतने दिनों से रह रहे थे, आदिवासी वहीं रहना चाहते हैं। अपने मृत पूर्वजों के प्रति उनके मन में जो सम्मान है, वही सम्मान वे लोग स्वयं अपने लिए चाहते हैं। विकास के नाम पर जो भी काम हुआ है, वह आदिवासियों के जीवन के लिए अभिशाप ही लाया है। अतः हम लोगों का यह कर्तव्य है कि सक्रिय रूप से इस तरह के विकासका विरोध करें तथा आदिवासियों को प्यार करना सीखें।

साभारः भाेर पत्रिका