Friday, 18 September 2015

'' वह लालटेन बेचता है''

१३ सितम्बर २०१५ को आह्वान द्वारा आयोजित कविता पाठ में युवा कवि अभिषेक सौरभ ने चार कविताओं   का  वाचन किया   जिसमें से एक कविता यहाँ  प्रस्तुत  हैं.…

वह लालटेन बेचता है , 
जलाई थी कभी 
मंगलेश डबराल ने 
पहाड़ो पर जिसे 
 उसकी रोशनी में 
की थी आरती 
असद जैदी की ''बहनों'' ने
और बाँटी  थी रेवड़ियां 
दिवाली की रात में !!
उसने अगले बरस 
पूणों  की चांदनी में 
गा रहा था अनुज लुगुन -
महुआ रे महुआ !
बसंत अभी- बाकी है थोड़ा 
 और ये समय है 
पलाश के खिलने का !!
 देखा था मैंने  भी 
खिलते हुए पलाश को 
एकाध बार - अंतिम दफे  
किसी जंगल में नहीं- ना - किसी बाग में 
 छोटा नागपुर के बंजर पठारों पर 
और थोड़ा बहुत ,
 रायसीना - हिल्स के अंतिम  छोड़  पर  
अरावली के  काँटों  में-
बात जबकि यह है ; कि
वह लालटेन बेचता है!!

वह जो लालटेन बेचता है,
आज- कवि था कभी वह 
गाता रहता था- कविताओं में अपनी 
साथ रहे : तेरा - मेरा 
मेरा मन : प्यासा तेरा 
साथ बना रहे जनम- जनम 
पर; आज  की बात है  
वह फक़त  लालटेन बेचता है !!
एक दिन-
 दूर वादी के चाँद को देखकर 
 वह गा उठा था;
रूआँसे कंठ - रुँधे गले से 
 अबकी पतझड़  में लौट आना तुम!
पर हकीकत है यह 
पतझड़ तो लौटा  - वह नहीं लौटी 
और अब वह 
सिवाय लालटेन के ;
कुछ और नहीं बेचता !!

वह जो लालटेन बेचता है 
 दिया था - उसने 
कभी एक नारा 
या कहें यूँ हम ;
अपने जवानी के प्रेम को 
रेशों - रग  फ़ना   करते हुए क्रांति  के 
इश्क़ो - गम - हुस्नों - शवाब 
के बहुत करीब ;
बहुत देर लम्हों तक बैठकर 
 दूर जाने हुए-  उससे 
 क्रांतिवीर पाश को पढ़ा था 
'' बीच का कोई रास्ता नहीं होता''
और - भारत !!
 भारत - मेरे सम्मान का सबसे महान 
 शब्द जहाँ कहीं प्रयोग किया जाए ;
अन्य सारे शब्द अर्थहीन हो जाते है !
सोचा था -
क्या ये उसी भारत की बात है 
जहाँ दिन में भी लाखों  घरों में 
बेखौफ अंधेरी रात है;
खाने  लिए 77 करोड़  आबादी को 
माड़ - भात तक नसीब नहीं 
सुख का एक कतरा नहीं
काँटों भरी राहें ,काँटों से भरा दामन 
क्या करें न करें - न जाएँ - कहाँ जाएँ 
 उलझन हीं उलझन !!
 काँधे का अंगोछा - माथे की चुन्नी( चुनर )
कुछ भी साफ -सुथरा नहीं 
यहाँ सोएं - वहाँ सोएं - पार्क / प्लेटफार्म / फुटपाथ - कहाँ सोएं 
 बिछाने को फटा चिथड़ा  नहीं 
धँसे हुए गालों पर पथराई आँखे 
गीले- पूते  यौवन के हड्यिों के टांके 
मेरे भारत के नसीब है;
 जो सौंदर्य के नाम पर अति सुलभ -अति मुफीद है;
नए-नए फरमानों  के तहत 
  एक नया अध्यादेश  है 
आदमी बस वो समझे जाएं   
 जो सत्ता है - सत्ता के करीब है !!
 ऐसे ही हाल में -
सूरते- बेहाल में 
बरबस वो बोल पड़ा 
" मैं उन घरों में रौशनी करने चला हूँ -
 जहाँ सदियों से अँधेरा हैं 
और उसकी इस बात को 
बात नहीं - जात को 
जात नहीं - समाज को 
सारे अरमान को ;
अगले इलेक्शन में 
हायर कर लिया एक नेता ने 
 और उसके नारे को अपना वादा बनाकर 
शामिल कर लिया अपने चुनावी घोषणापत्र में 
और आज वह -
छोटा -मोटा मंत्री नहीं 
बहुत -बहुत - बहुते बड़ा है ;
राष्ट्र की सलामी लेते हुए 
लालकिले पर खड़ा हैं ;
 और अपना लालटेन - मैन 
कुछ - कुछ बेरोजगार सा 
मानसिक बीमार है -
अपनी मड़इया - टूटती झोपड़िया 
फूॅके के वास्ते 
जलती हुई  ढ़ीबड़ी   लिए खड़ा है
 मानो क्रांति के लिए बहुत बेक़रार है 
तन- मन-धन तीनों से ;
पूरा का पूरा तैयार है !!
अभिषेक सौरभ 
9968817104 







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