Sunday, 20 December 2015

सत्ता संरचना में बदलाव ही महिला मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करेगी (अंतिम भाग)



.....इसके अलावा अपने पर्चे में उन्होंने जाति, राष्ट्रीयता और लैंगिक सवाल पर संघर्षों के बीच घालमेल करते हुए लिखा है किभारत में क्रांतिकारी जहां जाति और राष्ट्रीयता से संबंधित भारतीय विशेषता को ध्यान में रखकर सही निष्कर्ष निकालते हैं वहीं लैंगिक और पितृसत्ता के मामले पर वे बदल जाते हैं।दरअसल हमारे साथी यह नहीं समझ पाते कि जाति और राष्ट्रीयता के मामले में यह संघर्ष दुश्मनागत है जबकि लैंगिक मामलों में यह एक साथ दोस्ताना और दुश्मनागत दोनों है। रजनी देसाई ठीक ही कहती है, ‘‘ हमारी मुख्य लड़ाई शोषकों के खिलाफ है और उसका स्वरूप शत्रुतापूर्ण है। इसी लड़ाई का एक हिस्सा पितृसत्तावादी संस्कृति का विरोध है, जिसे सत्ताधारी वर्ग हमें कुचलकर रखने के लिए इस्तेमाल करता है। इस लड़ाई के अतिरिक्त अपने वर्ग के उन स्त्रियों और पुरुषों के खिलाफ भी लड़ना है जो इस पितृसत्तावादी संस्कृति को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। उनके खिलाफ संघर्ष करना निहायत जरूरी है। व्यक्तिगत मामलों में संघर्ष कठोर और तीव्रतम रूप धारण कर सकता है, लेकिन सामान्यतः यह शत्रुता का नहीं है, क्योंकि हम सब शोषित और पीड़ित हैं, जिनको इस दूसरे संघर्ष में विजय के हर कदम के साथ फायदा है यह दूसरी लड़ाई दोयम है, शत्रुता की नहीं है पर अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए कि यह संघर्ष मेहनतकश जनता के आधा हिस्से को मुख्य लड़ाई में शामिल करने के लिए आजाद करेगी’’
जहां तक ‘‘स्वछंद प्रेम’’ का सवाल है तो शायद हमारे मित्रों ने ठीक से अपना होमवर्क नहीं किया है। यह शब्द दूसरे इंटरनेशनल के बाद जर्मनी और कुछ अन्य देशों में उभरे लैंगिक विमर्श के संबंध में कॉ कलारा जेटकिन और कॉ लेनिन ने किया था (मुझे डर है कि कहीं ये सुब्रह्ममन्यम स्वामी के रूप में कॉ लेनिन को ही देखने लगें) बाद में फिर उन्होंने इनेसां अर्मान्ड के साथ अपने पत्राचार में इसे और स्पष्ट किया। आज जब भी हम ‘‘स्वछंद प्रेम’’ की बात करते हैं तो ठीक वही बात करते हैं, जिसके खिलाफ कॉ लेनिन और कॉ क्लारा जेटकिन नें संघर्ष किया था।
हमारे मित्रों ने ठीक ही कहा है कि भारत एक अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेषिक देश है और यहां की स्थिति कई तरह से यूरोप के औद्योगिक देशों से भिन्न है और इसलिए यहाँ सत्ता के संरचना भी अलग हैं। कॉ माओ ने सत्ता की इसी संरचना के बारे में बात करते हुए कहा, ‘‘चीन में मुख्यतः तीन तरह के प्राधिकार का तंत्र है-राजनीतिक, गोत्र और धार्मिक। महिलायें इन तीनों सत्ताओं के अलावा पुरुषों (पति) के सत्ता के भी अधीन हैं। ‘‘जमींदारों का प्राधिकार ही सभी तरह के प्राधिकारों की रीढ़ है। उसके उलटे जाने से गोत्र की सत्ता, धार्मिक सत्ता और पतियों की सत्ता का भी पतन होने लगता है।’’ ‘‘गोत्र सत्ता, अंधविश्वास, और महिला-पुरुषों के बीच असमानता के उन्मूलन का रास्ता राजनीतिक-आर्थिक संघर्षों में जीत में ही निहित है।’’12 भारत में जाति व्यवस्था महिला के इस शोषण को और जटिल बना देता है। ऊंची जाति की महिलाओं को जहां महज पितृसत्तात्मक शोषण का शिकार होना पड़ता है, वहीं दलित महिलाओं को पितृसत्तात्मक शोषण के साथ-साथ ऊंची जातियों के यौन उत्पीड़न के साथ-साथ आर्थिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। जमींदार समाज में अपने आर्थिक स्थिति और अपने प्राधिकार का फायदा उठाकर अपने जघन्य यौन हिंसा जारी रखता है। हाल के दिनों में दलित महिलाओं के साथ बलात्कार में काफी उछाल आया है। कई अध्ययनों ने बताया है कि दलित महिलाओं के बढ़े हुए बलात्कार में यौनिकता से ज्यादा सामंती प्रभुत्व की भूमिका है। यह सामंती प्रभुत्व जमीन के मालिकाने और सामूहिक शारीरिक श्रम को हीन समझने और इन्हें दलितों-पिछड़ों का काम समझने के अपने पुराने दकियानूसी विचारों के जरिए कायम रखता है। यह अनायास ही नहीं है कि जब बिहार में जगदेव प्रसाद ने नारा दिया था किइस साल के भादो में! हरी-हरी चूड़ियां कादो में!!’ इस नारे का मतलब था कि इस साल केवल दलित और पिछड़ी महिलायें ही नहीं बल्कि सामंतों की महिलायें भी घर से बाहर निकलकर कीचड़ में धान रोपेंगी। इस नारे के बाद जगदेव प्रसाद को दलितों और पिछड़ों का मसीहा माना जाने लगा था। उसी साल इंदिरा गांधी के शासन काल में एक खुली सभा में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी और उसका आरोप कांग्रेस पर लगाया गया था।
भारत जैसे देश में अलग-अलग जगहों की अलग-अलग विशेषता है और इसलिए पितृसत्ता अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होती है। जहां बिहार में आम जनता शराबबंदी को लेकर सड़कों पर है वहीं बड़े शहरों में शराबखानों में महिलाओं पर रोक का हम विरोध करते हैं। जाहिर तौर पर हम यहां उनके शराब पीने का नहीं बल्कि शराबखाने में जाने या फिर पीने के उनके जनवादी अधिकार का समर्थन करते हैं। हमारे साथी जहां तलाक के और अधिकार को लेकर चिंतित हैं वहीं बिहार में अपने असंगठित क्षेत्र की महिलाओं के अध्ययन के दौरान मैंने पाया कि पति द्वारा अपने पत्नी को नहीं रखा जाना यहां ज्यादा बड़ा सवाल है। ठीक वहीं झारखंड में कई जनजातियों में पति-पत्नी में शादी का रिवाज उनके बच्चों की शादियों के समय संपन्न होता है। इसका कारण यह होता है कि लड़के वाले लड़की द्वारा छोड़ दिए जाने को लेकर ज्यादा सशंकित रहते है और ऐसे में शादियों की रिवाज का खर्चा उठाना उनके लिए मुश्किल हो जाता है। लेकिन यह तमाम मामलों में स्पष्ट है कि गरीब महिलाओं की गुलामी का एक बड़ा कारण उनका आर्थिक रूप से पुरुष पर निर्भरता है। जब तक हम उनको आर्थिक गुलामी और गरीबी से आजाद नहीं करा पायेंगे, उनको लैंगिक गुलामी से आजाद होने के लिए भी तैयार नहीं कर पायेंगे। इसी मामले पर बात करते हुए एक 34 साल की कामकाजी चीनी नवयुवती कहती है, ‘‘पुराने समाज में मेरी तरह की दूसरी गरीब किसानों की बेटियों के सामने यही चिंता रहती थी कि अगले दिन की रोटी कहां से आएगी इसलिए राज्य के और राजनीतिक मामलों को तय करने में हमारी भागीदारी नहीं हो पाती थी। अब हम इन मामलों में हिस्सेदारी के लिए आजाद हैं।’’ इसी बात को माग्रेट बेन्सटन कहती हैं, ‘‘घर से बाहर रोजगार के लिए समान पहुंच, जो कि महिला मुक्ति की एक पूर्व शर्त है, महिलाओं को समानता में तब तक खुद ही पर्याप्त नहीं होगी जब तक घर का काम निजी उत्पादन का मामला बना रहेगा और इसकी जिम्मेदारी महिलाओं की रहेगी। तब तक उन्हें सामान्यतः काम का दुगना बोझ उठाना ही पड़ेगा। महिलाओं की मुक्ति की दूसरी पूर्व शर्त जो उपरोक्त विश्लेषण से निकलकर आती है, कि अभी जो काम निजी उत्पादन के रूप में हो रहा है उसे सार्वजनिक अर्थव्यवथा में होने वाले काम में रूपांतरित करना। जब घरेलू काम सार्वजनिक क्षेत्र में शामिल होंगे , तभी  महिलाओं के साथ होने वाला भेदभाव भी खत्म होगा।’’13 इसी बात को एंगेल्स भी दुहराते हैं, ‘‘स्त्रियों की मुक्ति की पहली शर्त यह है कि पूरी नारी जाति फिर से सार्वजनिक उत्पादन में प्रवेश करे और इसके लिए यह आवश्यक है कि समाज की आर्थिक इकाई होने का वैयक्तिक परिवार का गुण नष्ट कर दिया जाए।’’ यह त्रासदी ही है कि हमारे मित्रों के लिए घरेलु काम से मुक्ति, शराब बंदी आंदोलन, सलवा जुडुम द्वारा महिला उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन, अफसपा के खिलाफ आंदोलन में महिलाओं की भागीदारी कोई महिला आंदोलन नहीं है। इस तर्क से तो उनके लिए 8 मार्च को शुरू हुआ आंदोलन भी कोई महिला आंदोलन नहीं था चूंकि वह तो समान मजदूरी के सवाल पर शुरू हुआ कामकाजी महिलाओं का आंदोलन था।
जहां तक शादियों और तलाक का मामला है तब मुझे नहीं लगता कि आज भारत में कोई भी वामपंथी पार्टी इस बात का समर्थन करेगी कि साथ नहीं रह पाने की हालत में किसी को भी अलग हो जाने का अधिकार नहीं है। इसलिए शादी और तलाक का सवाल जनवादी अधिकार का सवाल है। आज व्यापक महिलाओं को तो यह भी जनवादी अधिकार हासिल नहीं है। बिहार के जहानाबाद और भोजपुर के दो गांवों का उदाहरण इस मामले में गौरतलब है। जहानाबाद शहर की एक दलित बस्ती में दो परिवारों ने इसलिए एक-दूसरे का हाथ-पैर तोड़ दिया कि दोनों परिवार के बच्चे (लड़का-लड़की) एक दूसरे से मोबाइल पर बात करते थे। वहीं भोजपुर के एक गांव में एक महादलित परिवार की लड़की ने आग लगा लिया। चार घंटे तक उसके परिवार और टोले के लोग यह चर्चा करते रह गये कि इसने तो इज्जत डुबा दिया। कुछ लोगों ने तो उसे जहर की सूई देने तक की बात की। हालांकि उस लड़की ने चार घंटे में दम तोड़ दिया। कुछ लोग इन लोगों के जीवन और समझ को संघी और ब्राह्मणवादी कहकर पल्ला झाड़ सकते हैं इसलिए की वे अर्धसामंती व्यवस्था की जड़ आर्थिक व्यवस्था और भूमि संबंधों में नहीं बल्कि सामाजिक विचार और सामाजिक संबंधों में देखते हैं। लेकिन मामला इतना ही भर नहीं है बल्कि सवाल इस पिछड़े समाज के रूपांतरण का है कि महज इनको कोसने का। इन घटनाओं के आधार पर हम समाज के अंदर भी आज के प्रधान मुद्दे का अंदाजा लगा सकते हैं और जाहिर तौर पर महिलाओं को जनवादी अधिकार आज भी इस पुरुष प्रधान समाज में  मुख्य मांग है। जहां तक किसी खास संगठन की प्रधान मांग का सवाल है तो यह निश्चित रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि वह किस वर्ग का प्रतिनिधित्व करने का दावा करता है। अब चूंकि अनुराधा गांधी ने पहले ही कहा है कि गरीब भूमिहीन किसान औरतें और कामकाजी महिलायें उनके मुख्य आधार हैं तथा निम्न पूंजीपति वर्ग की महिलायें एवं व्यवसायी महिलायें इनकी सहयोगी होंगी, ऐसे में कामकाजी और भूमिहीन महिलाओं की प्रधान मांग ही उस संगठन की प्रधान मांग होगी। हमारे दोस्तों ने कहा है कि विभिन्न आंदोलनों की वजह से आज लैंगिक सवाल पर कई नए मुद्दे सामने आए हैं। जाहिर तौर पर इससे कौन इनकार करेगा कि आज गांवों में जो आंदोलनों के केन्द्र थे, अब महिला-पुरुष अपनी शादियों में जनवादी अधिकार की मांग कर रहे हैं। इसलिए तो आज महिलाओं के लिए जनवादी अधिकार अभी भी प्रधान मांग बना हुआ है। इसके अलावा और कौन से मुद्दे सामने आए हैं इसका मूल्यांकन का काम तो कोई महिला संगठन ही कर सकती है। इसलिए कि चंद वर्ग किलोमीटर में बैठकर हम आम महिलाओं के मुद्दों पर कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। ऐसा करके जाहिर तौर पर मैं अपने मनः स्थिति को ही आम महिलाओं के सवाल के साथ घालमेल की गलती कर जाऊंगी। सवाल महज लैंगिक विमर्शों पर बौद्धिक बहसों का नहीं है बल्कि सवाल एक पिछड़े समाज में महिलाओं की जिंदगी के रूपांतरण का है जहां महिलायें कई तरह की सत्ताओं के अधीन गुलाम हैं और जहां पितृसत्ता कई अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होती है। ऐसे में पितृसत्ता और लैंगिक उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष भी उस विशेष परिस्थिति पर निर्भर करेगी और इसका निर्धारण वे महिलायें करेंगी जो संपूर्ण महिला मुक्ति के संघर्ष में रोज--रोज जीवन-मौत के संघर्षों से जूझ रही हैं। सवाल यह भी है की ढेर सारे सवालों में प्रधान सवाल कौन है और गौण  सवाल कौन हैं और जब हम गौण सवाल कह रहें हैं तो इसका मतलब कतई नहीं है की इसके खिलाफ संघर्ष को स्थगित कर देना है। अंत में एक चीनी कामकाजी महिला का कथन देना यहां सार्थक होगा। यह पूछने पर कि महिला मुक्ति के बारे में और क्या कहना चाहेंगी, कॉ वांग त्से ने जबाब दिया रू ‘‘हम महिलाओं की मुक्ति, महिलाओं की आजादी की बात अलगाव में नहीं कर सकते हैं। हम अपने आप में महिलाओं के अधिकार जैसे चीजों के लिए नहीं है जो पुरुषों के खिलाफ में है। हम पुरुषों को अपना निशाना नहीं बना सकते। महिलाओं का उत्पीड़न एक वर्गीय उत्पीड़न है। जब हम इस बारे में बात करते हैं तब हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि महिलाओं की मुक्ति के सवाल को सर्वहारा की मुक्ति के सवाल से अलग नहीं किया जा सकता है। यह सर्वहारा क्रांति का ही एक अभिन्न हिस्सा है’’13 यह उस कामकाजी महिला के उदगार हैं जिसे चीनी क्रांति ने घर से बाहर निकालकर सामूहिक काम का एक हिस्सा बनाया। जिन कामकाजी महिलाओं ने समान मजदूरी का संघर्ष शुरू किया उनकी विरासत संभाले कामकाजी संघर्षरत महिलायें ही अंतिम रूप से महिला मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करेंगी। यह उनका विशेषाधिकार है और हम तमाम महिलाओं को उन कामकाजी क्रांतिकारी महिलाओं के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
नोटः- इसमें इस्तेमाल किए गए कथन महज मार्क्सवादी शब्दाडंबर (श्रंतहवद) नहीं हैं बल्कि उनके अपने देश में संघर्षों, लंबे सामाजिक व्यवहार और कुर्बानियों के जरिए हासिल किए गए अनुभव हैं जिनका इस्तेमाल हम अपने व्यवहार को समृद्ध करने में करते हैं।

स्रोत और सन्दर्भ

1.चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दस्तावेज, पेज-74

2.वुमन एंड ग्लोबलाइजेशन, पेज-14

3. वुमन एंड ग्लोबलाइजेशन, पेज-16

4. नारी आंदोलन की दिशा, अनुराधा गांधी

5. वुमन एंड ग्लोबलाइजेशन

6. नारी आंदोलन की दिशा, अनुराधा गांधी

7. चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दस्तावेज, खंड-3, भाग-2, पेज-469

8. महिला सवाल पर पिकिंग रिव्यू, पेज सं-19

9. रिवोल्यूशनरी मुवमेंट इन इंडिया, न्यू विस्टास पब्लिकेशन, पेज सं-6

10. नारी आंदोलन की दिशा, अनुराधा गांधी

11. परिवार, निजी संपति और राज्य की उत्पति

12 .महिला सवाल पर पिकिंग रिव्यू, पेज सं-20

13. महिलाओं की मुक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र, मंथली रिव्यू, सितंबर 1969

14. महिला सवाल पर पिकिंग रिव्यू,

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