Friday 18 December 2015

सत्ता संरचना में बदलाव ही महिला मुक्ति का रास्ता प्रशस्त करेगी

प्रथम भाग 
सुष्मिता

न दिनों जेएनयू में एक संगठन और क्रांतिकारी संघर्ष की लैंगिक समझदारी पर कुछ लोगों नें बहस छेड़ी हुई है। जहां तक मैं समझ पा रही हूं उनका आशय क्रांतिकारी संघर्ष का माओवादी आंदोलन से है। किसी भी संगठन की समझदारी पर आम लोगों के बीच बहस में हमेशा एक समस्या सामने आती है और यह कई तरह की दिक्कतें खड़ी करता है। कोई भी संगठन आम लोगों का संगठन नहीं हो सकता, बल्कि किसी खास वर्ग का संगठन होता है ऐसे में बहस करने वाले लोग अक्सर संगठन का विश्लेषण उसके खास वर्ग के हिसाब से नहीं करते। इस बहस में भी यह दिक्कत साफ-साफ देखी जा सकती है। यह बहस महिलाओं के संगठन को एक समरूप संगठन मानता है। आम जनता का संगठन एक बुर्जुआ समझ है। इसके बारे में कॉ माओ कहते है, ‘‘जब तक वर्गों का अस्तित्व है, वर्गों के विभाजन के अनुसार समझदारी भी विभक्त होगी और यहां तक कि एक ही वर्ग में भी कई अलग-अलग विचार हो सकते हैं।’’1 इसी सवाल पर बात करते हुए महिला आंदोलन के बारे में रजनी देसाई कहती हैं, ‘‘ महिला अपने आप में कोई वर्ग नहीं हैं, बल्कि अलग-अलग आर्थिक वर्गों से आती हैं। इस कारण से उपरि एकता होने के बावजूद एक खास वर्ग की महिला की मांग दूसरे वर्ग की महिला की मांग के समान नहीं होगी। इसी कारण से विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के महिला सवाल पर मांगें अलग-अलग हैं। हरेक पार्टी अपने राजनीतिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर ही इस सवाल पर समझदारी बनाती है।’’2  क्या आम महिलाओं का संगठन हो सकता है, इस पर रजनी देसाई कहती हैं, ‘‘महिलाओं के वर्ग हित अलग-अलग हैं और महिलाओं के स्वायत्त आंदोलन की गोलबंदी का कोई वास्तविक आधार नहीं है, ऐसे में सामाजिक-आर्थिक आधार के अभाव, जो आंदोलन को जारी रख सकता है- पतित होकर मुट्ठी भर समृद्ध महिलाओं के नियंत्रण में चली जाती हैं और यही खास वर्ग के द्वारा दीर्घकालीन लक्ष्य का निर्धारण होता है। लगता है कि उत्तरी अमरीका और पश्चिमी यूरोप के नारीवादी आंदोलन का यही हस्र  हुआ है।’’3 जब हरेक संगठन समाज के किसी खास वर्ग का प्रतिनिधित्व करता हो, तब बहस में हमें अक्सर घ्यान रखना होगा कि उस संगठन के प्रधान वर्ग कौन हैं। अनुराधा गांधी ने इस मामले में अपना पक्ष स्पष्ट किया है, ‘‘क्रांतिकारी धारा के अनुसार महिलाओं के आंदोलन की मुख्य ताकत गरीब व भूमिहीन किसान औरतें और कामकाजी महिलाएं हैं। निम्न पूंजीपति वर्ग की महिलाएं एवं व्यवसायी महिलाएं इनकी सहयोगी होंगी। नारी मुक्ति के प्रश्न को इस वर्ग की महिलाओं, जो कि महिलाओं का बड़ा हिस्सा बनाती हैं, के नजरिए से देखा जाना चाहिए। नारी मुक्ति का अर्थ है घरेलू कामकाज की जंजीरों से उनकी मुक्ति । उत्पादन और राजनीतिक ताकत में पूरी व बराबरी की भागीदारी।’’4 इससे स्पष्ट है कि जिस आंदोलन की बात अनुराधा गांधी करती हैं वह भी आम महिलाओं का आंदोलन नहीं, बल्कि मुख्यतः भूमिहीन किसान औरतों और कामकाजी महिलाओं का है और इसमें उन्होंने निम्न पूंजीपति वर्ग और व्यवसायी महिलाओं के साथ संश्रय की बात कही है। ऐसे में इस आंदोलन की मांगें भी मूल रुप से इन वर्गों की मांगों से ही निर्धारित होगी और ये मांगें क्या होंगी, यह संगठन के कामकाज से ही होकर बाहर आयेगा। किसी भी संगठन की बात करते हुए हमें अक्सर यह ध्यान में रखना होता है।
खैर, बहस जारी है और कई लोग अपने नजरिए से अपनी बात कह रहे हैं और इस प्रक्रिया में कई लोग मजे भी ले रहे हैं। जाहिर तौर पर उन्हें भी मजा लेना का पूरा हक है। मैं न कोई बड़ा मार्क्सवादी हूं और न ही मुझे लैंगिक विषय की कोई बड़ी समझदारी है। इसके बावजूद मामला जिस तरीके से आगे बढ़ाया जा रहा है, उसमें हस्तक्षेप करना लाजिमी बन गया है। इस पूरे बहस की भाषा में दंभ और अहं जिस तरह से भरी हुई है, उसका स्रोत कहां है यह तो कोई मार्क्सवाद का जानकार ही बता सकता है, लेकिन यह तो स्पष्ट दिख रहा है कि यह सर्वहारा वर्ग की भाषा तो नहीं है। अब तक जेएनयू में छह पर्चे जारी किए जा चुके हैं। डीएसयू छोड़ने वालों ने पांच पर्चे जारी किए हैं तो डीएसयू ने एक पर्चा जारी किया है। जो लैंगिक  विमर्शों से जुड़ा हुआ सवाल है, वह डीएसयू छोड़ने वाले लोगों की तरफ से जारी तीन पर्चों में है। उन्होंने अपने दूसरे पर्चे की शुरूआत में इपीडब्ल्यू से एक उद्धरण का निष्कर्ष निकालते हुए कहा है कि, ‘‘ क्रांति एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें पितृसत्ता और उत्पीड़ित लैंगिक संबंधों के खिलाफ लड़ाई क्रांतिकारी सामाजिक रूपांतरण में निहित होता है। इस सवाल पर क्रांतिकारी आंदोलन का दृष्टिकोण ऐतिहासिक घटनाओं के मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझ का ठीक उलटा है। यहां क्रांति अपने आप में एक लक्ष्य है, जिसके एक बार हासिल हो जाने के बाद महिलाओं की मुक्ति अपने-आप हासिल हो जाएगी। इसके ठीक उलटा क्रांति की प्रक्रिया में ही पितृसत्ता या फिर उदाहरण के लिए जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष होना है और इन संघर्षों से ही क्रांति का भविष्य निर्धारित होगा’’ इस कथन से मालूम होता है कि क्रांतिकारी संघर्ष यह मानती है कि पितृसत्ता और जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष क्रांति के बाद वाले समाज में होगा और इसलिए पर्चा जारी करने वाले लोग इसका समाधान देना चाहते हैं कि पितृसत्ता और जाति के खिलाफ लड़ाई ही क्रांति का भविष्य निर्धारित करेगी। यानि कि इनका मानना है कि समाज में प्रधान सवाल पितृसत्ता और जाति का है न कि वर्ग संघर्ष का। हालांकि क्रांतिकारी आंदोलन की समझदारी के सवाल के जवाब में रजनी देसाई कहती हैं, ‘‘उग्र नारीवादी क्रांतिकारी आंदोलन पर आरोप लगाते हैं कि उन लोगों ने महिला मुक्ति के सवाल को क्रांति पश्चात के दौर तक के लिए स्थगित कर दिया है और उनके अनुसार वे वर्तमान दौर में महिला सवाल पर कुछ नहीं करते। उनका दुसरा आरोप है कि समाजवादी क्रांति पूरा होने वाले देशों में महिला सवाल का हल नहीं किया गया है और इस तरह महिलायें अभी भी असमान हैं और उनका कई तरीके से शोषण होता है। इस प्रकार वे आरोप लगाती हैं कि समाज का आमूल-चूल बदलाव महिला सशक्तीकरण की किसी भी तरीके से गारंटी नहीं करती’’ इन उग्र नारीवादियों को जवाब देते हुए वे कहती हैं, ‘‘ ये दोनों आरोप दरअसल भ्रामक हैं। महिलाओं की अंतिम मुक्ति के संघर्ष की प्रक्रिया को टालने का कोई सवाल ही नहीं उठता। महिलायें समाज में अपने स्थान को लेकर सचेत होती हैं और अपने रोज के उत्पीड़न पर सवाल उठाती हैं। वे रोज ब रोज कामकाजी महिलाओं और एक सामाजिक प्राणी के रुप में अपनी संभावनाओं के लिए खुद को संगठित करके संघर्ष करती हैं। इस प्रक्रिया में वे लगातार सचेत होती हैं’’। 5 ठीक इसी सवाल पर बात करते हुए अनुराधा गांधी कहती हैं, ‘‘संशोधनवादियों ने मार्क्सवाद का अंधवादी मतलब निकालकर जो दिशा अपनायी है, उसके अनुसार समाजवाद आने से नारी मुक्ति अपने-आप हो जाएगी। आधार और उपरि ढांचे के बीच संबंधों के इस यांत्रिक अर्थ या समझ से वास्तव में निष्क्रियता को बढ़ावा मिलता है व यह तात्कालिक वैचारिक तथा व्यावहारिक संघर्षों की कीमत कम आंकता है तथा नए उठने वाले मुद्दे का सामना नए ढंग से करने से रोकता है।’’6 इन तमाम तथ्यों से स्पष्ट हो जाता है कि क्रांतिकारी आंदोलन क्रांति के बाद अपने-आप महिला सवाल के हल हो जाने वाली समझ के खिलाफ है। भारत में कम्युनिस्ट आंदोलन की मामूली समझ रखने वाले भी यह जानते हैं कि नक्सलवादी धारा की बहुतेरे पार्टियां यह मानती हैं कि पितृसत्ता और जाति का सवाल महज अधिरचना का सवाल नहीं है जो महज आधार में बदलाव से हल हो जाएगा बल्कि ब्राह्मणवाद से बंधे होने की वजह से यह भी आधार का सवाल हो गया है, जिसके खिलाफ निरंतर संघर्ष करना होगा। इसके अलावा जो मुख्य समस्या है वह यह है कि डीएसयू छोड़ने वाले लोग वर्ग संघर्ष को महज सत्ता हासिल करने का औजार भर समझते हैं वो यह नहीं समझते कि वर्ग संघर्ष मानव और समाज दोनों के क्रांतिकारी रूपांतरण का भी औजार है।
हमारे मित्रों का मानना है कि पितृसत्ता और जाति का खात्मा ही क्रांति का भविष्य निर्धारित करेगा। इसका जवाब भी कॉ माओ ने दिया है। उनका कहना है कि, ‘‘समग्र रूप से महिला और पुरुष की वास्तविक समानता समाज के समाजवादी रूपांतरण की प्रक्रिया में ही पूर्ण रूप से हासिल की जा सकती है।’’ इस सवाल को और स्पष्ट करते हुए पिकिंग रिव्यू कहता है, ‘‘ चूंकि महिलाओं के उत्पीड़न का जड़ निजी मालिकाने और वर्गीय शोषण में है इसलिए कामकाजी महिलाओं के गैर बराबरी को समग्र रूप से क्रांति और निजी मालिकाने व उत्पीड़क वर्गों के खात्मे के जरिए ही बदला जा सकता है। इसलिए महिला मुक्ति की जवाबदेही भी सर्वहारा के कंधे पर है जिनका ऐतिहासिक लक्ष्य निजी मालिकाने और वर्गीय उत्पीड़न का खात्मा करना है। महिला मुक्ति का आंदोलन सर्वहारा क्रांति से अलग नहीं हो सकता बल्कि इसका एक भाग है। चूंकि बुर्जूआ महिला अधिकार आंदोलन ‘‘लैंगिक समानता’’ के स्वरूप को ही दिखाते हैं और वर्ग और वर्ग संघर्ष को ध्यान में नहीं रखते हैं। इसलिए सामाजिक क्रांतिकारी आंदोलन से उनका अलगाव हो जाता है। इस तरह ये लोग महिला मुक्ति आंदोलन को केवल किनारे ही लगा सकते हैं’’। 8 इस तरह अब तक के क्रांतिकारी इतिहास ने तो यही साबित किया है कि सर्वहारा क्रांति ही अंतिम रूप से महिला मुक्ति ला सकती है और इसका रास्ता वर्ग संघर्ष में हिस्सेदारी के जरिए ही संभव होगा। इन तमाम तथ्यों से स्पष्ट है कि क्रांतिकारी आंदोलन पर लैंगिक सवाल को क्रांति तक परे रख देने का आरोप एक दुष्प्रचार के अलावा कुछ नहीं है।
इन्होंने अपने पर्चे के दूसरे हिस्सों में अलग-अलग जगहों से साक्षात्कार और प्रेस विज्ञप्ति के उद्धरणों के जरिए यह बताने की कोशिश की है कि क्रांतिकारी आंदोलन लैंगिक  विमर्शों और लैंगिक हिंसा में ब्राह्मणवादी सामंती प्रभाव के बजाए साम्राज्यवादी संस्कृति के प्रभाव को ज्यादा करके आंकता है। हालांकि इस बात को साबित करने के लिए उन्होंने आंदोलन के परिप्रेक्ष्य के बजाए अलग-अलग उद्धरणों को चुना। उन्होंने नारी मुक्ति संघ की एक महिला का कथन लिया है जिसमें कहा गया है, ‘‘एनएमएस के इलाके में लैंगिक हिंसा और बलात्कार की घटनाओं में कमी आयी है। जब बलात्कार की कोई घटना होती है तब एनएमएस एक जन अदालत लगाती है। वे जांच करती हैं और जब ये बात सामने आती है कि लड़का किसी गरीब परिवार से है और वह टीवी के साम्राज्यवादी संस्कृति के प्रभाव में आ गया है तब उसको कड़ी चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है।’’ इसके आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि नारी मुक्ति संघ बलात्कार को साम्राज्यवादी प्रभाव में आकर उठाया गया कदम मानती है। इसके अलावा उन्होंने कॉ  अनुराधा गांधी के साक्षात्कार का एक हिस्सा उद्घृत किया है। इस मामले पर बहस को आगे बढाने से पहले आंदोलन की समझदारी को सीधे महिला आंदोलन के परिप्रेक्ष्य के जरिये ही पेश करना बेहतर होगा। महिला आंदोलन के परिप्रेक्ष्य शीर्षक के इस आलेख में कहा गया है, ‘‘सामंती संबंध अभी भी ज्यादा मजबूत हैं, पूंजीवादी संबंधों का भी विस्तार हुआ है और इस तरह दोनों विद्यमान हैं। इसलिए भारत में सामंती और पूंजीवादी दोनों तरह की पितृसत्ता मौजूद है। हालांकि इन दोनों का अस्तित्व अलग-अलग नहीं है। अर्द्धसामंती-अर्द्धऔपनिवेशिक संरचना के अन्य पहलुओं की तरह पितृसत्ता का स्वरूप भी संयुक्त रूप में है। लेकिन भारतीय समाज के असमान विकास की वजह से पितृसत्तात्मक उत्पीड़न की अलग-अलग वर्गों, जातियों और जनजातियों में अलग-अलग विशेषता है। यह बड़े शहरों, शहरों और गांवों में भी अलग-अलग रूपों में सामने आता है। बड़े शहरों और एक हद तक शहरों में जहां पूंजीवादी-साम्राज्यवादी पितृसत्ता का प्रभाव ज्यादा है वहीं गांवों में सामंती पितृसत्ता का स्वरूप ज्यादा दिखता है।’’9 हमारे मित्रों की नजरों से यह दृष्टिकोण ठीक उसी किताब से शायद ओझल हो गया था जिसकी वजह से उन्हें खुद ही निष्कर्ष निकालना पड़ा। इसके अलावा उन्होंने नारी मुक्ति संघ की महिला के बलात्कार के बाद दंड संबंधी कथन का जान-बूझकर गलत निष्कर्ष निकाला। दरअसल उस महिला का कथन लैंगिक हिंसा में सामंती या फिर साम्राज्यवादी प्रभाव के बजाय एक विशेष परिस्थिति में दिए जाने वाले दंड के स्वरूप को स्पष्ट करती है। यदि वहां बलात्कार को साम्राज्यवादी प्रभाव में आकर की गयी गलती माना गया होता तो उनको सामंती प्रभाव और साम्राज्यवादी प्रभाव की लैंगिक हिंसा के परिणामस्वरूप दिए जाने वाले दंड में फर्क करने की जरूरत नहीं पड़ती। इसी मामले पर अनुराधा गांधी कहती हैं, ‘‘ औरतों का पितृसत्तात्मक उत्पीड़न व शोषण, उसकी आर्थिक निर्भरता, पुरुष की अधीनता जो अर्द्धसामंती मूल्यों के कारण है, जिन्होंने भारत के एक बड़े हिस्से को पकड़ कर हमारी अर्थव्यवस्था के विकास को पीछे धकेल दिया है, वहीं उपभोक्ता संस्कृति के कारण भी है जो हमारी सामाजिक जिंदगी में पैठ बनाती जा रही है।’’10  जब हम किसी भी चीज को उसके परिप्रेक्ष्य से काट देते हैं, तब अक्सर ही गलत निष्कर्ष के शिकार होते हैं।
हमारे मित्रों ने अपने पर्चे में कहा है, ‘‘एंगेल्स ने दिखाया है कि एकनिष्ठ विवाह प्रथा के जरिए महिला के शरीर पर नियंत्रण करना निजी संपति और पुरुष प्रभुत्व को संस्थागत करने में एक निर्णायक ऐतिहासिक मोड़ था। हमारे मामले में महिला पर नियंत्रण केवल संसाधनों पर नियंत्रण की ही गारंटी नहीं करता है बल्कि जाति व्यवस्था को भी बरकरार और मजबूत करता है। दूसरे शब्दों में जाति व्यवस्था को बनाये रखने और भूमि और श्रम का अर्द्धसामंती नियंत्रण जाति विवाह की सामाजिक व्यवस्था के जरिए महिला और उसकी यौनिकता के उपर पितृसत्तात्मक नियंत्रण पर भारी रूप से निर्भर हैं। गैर आर्थिक तरीकों से उत्पीड़ित जातियों और उनकी महिलाओं के श्रम का दोहण और महिलाओं की यौनिकता पर नियंत्रण इस तरह से भारतीय उपमहाद्वीप में अर्द्धसामंती संबंधों के पुर्नउत्पादन में केंद्रीय है।’’ यह कहने का शायद उनका मतलब यह है कि एकनिष्ठ विवाह प्रथा निजी संपति और महिलाओं की यौनिकता पर नियंत्रण को मजबूत करता है इसलिए एकनिष्ठ विवाह प्रथा और जाति विवाह की प्रथा का उन्मूलन निजी संपति और जाति के उन्मूलन में महत्वपूर्ण है। यह सच्चाई को ठीक उलटे सिरे से ही पकड़ने जैसा है। हमारे मित्र यहां यूटोपियन समाजवादियों की तरह तर्क करते है और उनकी ही तरह वे शोषण की जड़ उत्पादन संबंध और अतिरेक के हड़पे जाने के तरीके के बजाय अधिरचना में विकसित हो रहे संबंधों में तलाशते हैं। आइए, हम देखते हैं कि एंगेल्स ने खुद इस बारे में क्या कहा है। ‘‘एकनिष्ठ विवाह प्रथा एक व्यक्ति के-और वह भी पुरुष के- हाथों में बहुत सा धन एकत्रित हो जाने के कारण और इस इच्छा के फलस्वरूप उत्पन्न हुई थी कि वह धन किसी दूसरे के संतान के लिए नहीं, केवल अपने संतान के लिए छोड़ जाये। इस उद्देश्य के लिए स्त्री की एकनिष्ठता आवश्यक थी, पुरुषों की नहीं।’’ तब क्या निजी संपति के उन्मूलन के लिए एंगेल्स एकनिष्ठ परिवार के उन्मूलन की बात करते हैं? जी नहीं! उनका कहना है कि, ‘‘आने वाली सामाजिक क्रांति स्थायी दाय योग्य धन-संपदा के अधिकतर भाग को- यानि उत्पादन के साधनों को-सामाजिक संपति बना देगी और ऐसा करके संपति की विरासत के बारे में सारी चिंता को अल्पतम कर देगी। पर एकनिष्ठ विवाह प्रथा चूंकि आर्थिक कारणों से उत्पन्न हुई थी, इसलिए क्या इन कारणों के मिट जाने पर वह भी मिट जायेगी?
इस प्रश्न का यह उत्तर शायद गलत नहीं होगारू मिटना तो दूर, एकनिष्ठ विवाह प्रथा तब जाकर ही पूर्णता प्राप्त करने की ओर बढ़ेगी। कारण कि उत्पादन के साधनों के सामाजिक स्वामित्व में रूपांतरण के फलस्वरूप उजरती श्रम, सर्वहारा वर्ग भी मिट जायेगा और उसके साथ-साथ यह आवश्यकता भी जाती रहेगी कि एक निश्चित   संख्या में- जिस संख्या का हिसाब लगाकर बताया जा सकता है-स्त्रियां पैसे लेकर अपनी देह को पुरुषों के हाथों में सौंप दें तब वेश्यावृति का अंत हो जायेगा और एकनिष्ठ विवाह प्रथा मिटने के बजाए पहली बार पुरुषों के लिए भी वास्तविकता बन जायेगी।’’ तब आने वाले यौन संबंधों का स्वरूप क्या होगा? इसपर कॉ एंगेल्स कहते हैं, ‘‘यह उस समय निश्चित होगा, जब एक नयी पीढ़ी पनपेगी-ऐसे पुरुषों की पीढ़ी, जिन्हें जीवन में  कभी किसी नारी की देह को पैसा देकर या सामाजिक शक्ति के किसी अन्य साधन के जरिए खरीदने का मौका नहीं मिलेगा, और ऐसी नारियों की पीढ़ी, जिन्हें कभी सच्चे प्रेम के सिवा किसी और किसी कारण के लिए विवश नहीं होना पड़ेगा और न ही जिन्हें आर्थिक परिणामों के भय से अपने को अपने प्रेमी के सामने आपसी समर्पण करने से कभी रोकना पड़ेगा।’’11 इससे स्पष्ट है कि एकनिष्ठ विवाह का उन्मूलन नहीं, बल्कि निजी मिल्कियत का उन्मूलन ही महिला यौनिकता को आजाद करेगा। जाति विवाह की परंपरा को तोड़ना एक हद तक जाति तोड़ने में सहायक हो सकता है लेकिन सवाल यह है कि जाति विवाह की परंपरा टूटेगी कैसे? क्या यह हमारी सदिच्छा पर निर्भर करता है। अब तक के अनुभवों से हमने देखा है कि जबतक उंची जाति के लोग सत्ता संरचना का इस्तेमाल करते हुए दलित महिलाओं की यौनिकता से खेलते हैं तबतक कुछ भी नहीं बिगड़ता। शामत तो तब आ जाती है जब कोई दलित उंची जाति की लड़की से प्रेम करने की हिमाकत करे। देश के अलग-अलग हिस्सों में इसका हस्र क्या हुआ है, यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है। हमारे मित्र यहां नहीं समझ पाते कि दलित विरोधी और महिला विरोधी व्यवस्था की जड़ अर्धसामंती भूमि संबंधों में है जो ब्राह्मणवादी अर्द्धसामंती सत्ता व्यवस्था को भी बनाये रखता है और इस तरह दोनों एक दुसरे को बरक़रार रखते हैं । इस सत्ता संरचना को जनतांत्रिक बनाए बगैर इसमें बदलाव की कोई भी बात महज खयाली पुलाव ही साबित हो सकती है।

                                                                                                                      जारी। ..... 

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