अन्तर्राष्टीय महिला दिवस ( 8 मार्च ) एक बार फिर बार हमारे सामने है। हमारे पास कामगार महिला आंदोलन का एक पूरा इतिहास है। जिसे हमें बार-बार याद करने की जरूरत है। जब पूरे योरोप में उद्योगों का विकास तेजी से फैल रहा था तो महिलाएं भी जीविका कमाने के लिए भारी संख्या में घरों की चारदिवारी से निकलकर फैक्ट्रियों में आ रही थी। वह घर गृहस्थी और बच्चों के पालन-पोषण जैसी पारम्परिक भूमिका भी निभा रही थी, और साथ ही कारखानों में लूट व मुनाफे की व्यवस्था का शिकार भी बन रही थी। वह कारखानों में 16 से 18 घंटे बिना रूक हुए काम कर रही थीं, उसके बाद भी उनकी तनख्वाह पुरुषों की तनख्वाह से आधी ही थी, काम के घंटे ज्यादा थे और कार्य-स्थलों में स्थिति बहुत ही अमानवीय थी। इन्हीं सब परिस्थितियों से तंग आकर 8 मार्च 1908 को न्यूर्याक के रूटगर्स स्क्वायर में 15 हजार महिलाओं ने 10 घंटे काम, वोंट डालने का अधिकार और कार्य-स्थलों में बेहतर स्थितियों को लेकर सड़कों पर हजारों की संख्या में हड़ताले व प्रदर्षन किये।
कुछ अधिकार मिल जाने की बाद भी देश और दुनिया में महिलाओं की स्थिति एक समान ही है। आज भी महिलाएं दोयम दर्जे पर ही है। पितृसत्तात्मक ताना बाना महिलाओं को घर तक ही सीमित कर देना चाहता है। महिलाएं इन पितृसत्तात्मक मूल्यों को तोड़कर बाहर आ रही है और अपने सम्मान से जीने के रास्ते ढूढं रही हैं तो उनको अनेकों प्रकार की हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। और ऐसे वक्त में सरकार कुछ अखबारों को विज्ञापन देकर कल्पना चावला, किरण बेदी, ऐष्वर्या रॉय व अन्य महिलाओं का उदाहरण पेश कर साथ ही एक-दो योजनाओं का उद्घाटन करते हुए महिला सशक्तिकरण का हल्ला करती है। लेकिन सरकार की इस महिला सशक्तिकरण के नारो की पोल भी उस समय खुल जाती हैं जब महिलाएं कार्यस्थलों में (उच्च न्यायालय के विशाखाजमेंट) घोषित ‘यौन उत्पीड़न विरोधी समिति’ होने के बाद भी यौनिक हिंसा को झेल रही है और कानून बनने के बाद भी इसे लागू नहीं किया गया है। और वहीं दूसरी तरफ दुनिया की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनिया अपने माल को बेचने के लिए इस दिवस को मना रही है और इसके असली मकसद को आज भुला दिया गया है।
आज से ठीक दो साल पहले दिल्ली में (16 दिसम्बर का सामूहिक बलात्कार) हुई घटना ने पूरे देश को आक्रोश में बदल दिया, और इस घटना के आक्रोश ने सरकार को मजबूर किया कि वह महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम उठाये। आनन-फानन में सरकार ने वर्मा कमेटी गठित की। वर्मा कमेटी के गठित हो जाने के बाद भी महिला उत्पीड़न में कोई कमी नहीं आयी है। इस कानून के बन जाने के बाद भी देश के अलग-अलग राज्यों में महिलाओं के साथ रेप, हिंसा और छेड़छाड़ की सैकड़ों घटनाएं हो रही है। महिलाओं के लिए सशक्त कानून का हल्ला मचाने वाली सरकार के दावे कितने खोखले हैं यह हम देख रहे हैं।
आज महिलाएं जितनी तेजी से आगे बढ़ रही हैं, यौनिक हिंसा भी उतनी ही तेजी से हो रही है। सभी वर्ग समाजों में महिलाएं यौनिक हिंसा का सामना कर रही हैं. बड़े-बड़े संस्थानों में अफसरों द्वारा महिलाओं पर निरन्तर यौनिक हिंसा हो रही है। लेकिन खेत-खलिहानो, फैक्ट्री-कारखानों में काम करने वाली खासकर दलित, आदिवासी व गरीब मेहनतकश महिलाएं यौनिक हिंसा को ज्यादा झेल रही हैं, न तो मध्यम वर्ग और न ही मीडिया इनके लिए सामने आता है, और वहीं 16 दिसंबर की घटना के लिए मध्यम वर्ग व मीडिया अपराधियों को सजा दिलाने के लिए महीनों तक सड़को में एकजुट हो जाता है. समाज का यह दोहरा मानदण्ड ही महिला हिंसा को बढ़ावा देता और महिलाओं को पीछे हटने पर मजबूर करता है। इसके अलावा साम्प्रदायिक व जातिगत हिंसा में सबसे ज्यादा महिलाएं ही शिकार होती हैं। कोर्ट-कचहरी, कानून, राज्य मशीनरी, धर्म, मीडिया, शिक्षा-संस्कृति सारे तत्व महिलाओं पर हिंसा को जायज ठहराते हैं। 1992 का उदाहरण हमारे सामने है जब ऊंची जाति के अपराधियों ने दलित महिला भंवरी देवी के साथ सरेआम बलात्कार किया और जब वह अपराधियों के खिलाफ न्यायालय गयी तो अदालत यह कहते हुए गुनगाहर को माफ कर देती है कि उंची जाति का व्यक्ति नीची जाति की महिला का बलत्कार नही कर सकता है; यह केवल पितसत्तात्मक ब्राहामणवादी समाज का ही नहीं बल्कि हमारे देश का न्यायतंत्र वह उसकी संस्थानों के चरित्र को भी उजागर करता है।
आज जब महिलाओं पर चारों तरफ से हमला हो रहा है तो ऐसे वक्त में भी वह बराबरी के लिए, सम्मान के लिए और एक बेहतर समाज के निर्माण के लिए आन्दोलित हो रही है. चाहे वह क्रान्तिकारी आंदोलन हो राष्ट्रीयता आन्दोलन हो या फिर अन्य जनसंगठन, महिलाएं व्यापक पैमाने पर बड़ी संख्या में आ रही हैं, और वही राज्य इन महिलाओं के मनोबल को तोड़ने के लिए बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रहा है। कष्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों में सेना को जनता के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है, और सेना महिलाओं के साथ बलत्कार कर रही हैं, और नागरिकों की हत्याएं कर रही हैं। इन इलाकों में सशस्त्र बलों को आतंक फैलाने की खुली छुट काले कानूनों ने दे रखी है। और वहीं छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, आंध प्रदेश, महाराष्ट के आदिवासी इलाकों में विकास के नाम पर क्रान्तिकारी आंदोलनों को दबाने के लिए सेना का इस्तेमाल किया जा रहा है। जिसके चलते बड़ी संख्या में सशस्त्र बलों और निजी सेनाएं आए दिन आदिवासी महिलाओं का बलात्कार कर उनकी हत्या कर रही है। वह बलात्कार जैसे घृणित हथियार का इस्तेमाल कर महिलाओं के एकता व संघर्ष को तोड़ने का प्रसास कर रही हैं। इन सबके बावजूद भी महिलाएं न केवल पितृसत्तात्मक सांमती व फासीवादी हिंा का बल्कि राजकीय हिंसा का विरोध भी कर रही हैं। वह पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ रही हैं।
दूसरी ओर सरकार बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ताबड़तोड़ आमंत्रित कर निजीकरण को तेजी से लागू कर रही है। जिसके चलते मजदूर महिलाओं और मजदूर पुरुषों का जीवन असुरक्षित हो गया है। छोटे वह बंड़े उद्योगो में तालाबंदी और बड़े पैमाने पर छंटनी की शिकार भी महिलाएं सबसे पहले हो रही हैं। छटनी की वजह से ये महिलाएं अपने परिवार की जीविका चलाने के लिए असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही हैं, और इन क्षेत्रों में स्थितियां तो ओर भी भयानक हैं। इनके काम के घंटे तय समय से अधिक है, और इनकी आमदनी भी बहुत कम है। इन असंगठित क्षेत्रों में लंबे समय तक काम करते रहने के दौरान ये कई गंभीर बिमारियों की गिरफ्त में आती है, और इनके पास ईलाज के लिए पैसा भी नहीं होता है क्योंकि निजीकरण के चलते ये लगातार स्वास्थ्य, शिक्षा, मकान, स्वच्छ जल, जैसी बुनियादी चीजों से भी दूर होती जा रही है।
इन मेहनतकश कामगार महिलाओं की कठिन स्थितियों के बावजूद भी अभी तक नारी आंदोलन तो छोड़िये, कम्युनिस्ट महिला संगठनों की ओर से भी कोई महिला आंदोलन खड़ा करने की कोशिश नहीं की गयी है। ऐसे वक्त में 8 मार्च की नायिका क्लारा जेटकीन, प्रतिलता वादेकर, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रामाबाई, अनुराधा गांधी और विश्व भर की उन मजदूर महिलाओं की कुर्बानियां को याद करते हुए एक सशक्त महिला आंदोलन बनाने की जिम्मेदारी आज क्रान्तिकारी आंदोलन के सामने आन पड़ी है। बबीता उप्रेती
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