Thursday 7 April 2016

महिला सशक्तिकरण की बात करने वाली इन सरकारों के दावे कितने खोखले


 ये उच्च शिक्षण संस्थान भी दलित विरोधी ही है…

                                                 बबीता उप्रेती
महिला सशक्तिकरण की बात करने वाली इन सरकारों के दावे कितने खोखले, बेबुनियाद और झुठ से गढ़े हुए हैं, इसका उदाहरण हमें आए दिन महिलाओं के ऊपर होने वाली हिंसाओं में देख सकते हैं। वैसे तो सभी महिलाएं विभिन्न प्रकार की हिंसा का सामना करती हैं, लेकिन महिला उत्पीड़न में  सबसे ज्यादा, दलित महिलाएं ही हिंसा के क्रूर रूपों को झेलती हैं। सबसे ज्यादा मेहनतशील होने के बावजूद भी ये गरीब  सम्पतिहीन हैं। ये क्रूर पितृसत्ता के साथ ही जातिगत उत्पीड़न को भी झेलती हैं।
इन दलित महिलाओं को केवल घर की चारदिवारी के अन्दर बल्कि कार्यक्षेत्रों में भी यौन हिंसा का सामना सबसे ज्यादा करना पड़ता है। इन हिंसाओं के पीछे जातिगत कारण तो मुख्य है, आर्थिक कारण भी बड़ा है, जो जातिगत कारणों से जन्मा है। जब ये महिलाएं आत्मनिर्भर बनने, और समाज में सम्मान से जीने के लिए कार्यक्षेत्रों में निकलती हैं तो इन्हें वर्गीय शोषण के साथ-साथ जातिय शोषण भी झेलना पड़ता है। इन्हे पुरुषों के मुकाबले बहुत कम मेहनताना दिया जाता है, और इन कार्यक्षेत्रों में इन्हें यौनिक हिंसा का सामना भी करना पड़ता है।
आज जब ये दलित महिलाएं रात-दिन मेहनत, मजदूरी करके अपने सम्मान के रास्ते तलाश रही हैं और कठोर मेहनत कर उच्च शिक्षा तक भी पहुंच रही हैं तो उन्हें इतना प्रताड़ित किया जा रहा है या तो वो आत्महत्या करने को विवश हैं, या उन्हें मार दिया जा रहा है। बीकानेर के नोखा कस्बे की 17 साल की डेल्टा मेघवाल का उदाहरण हमारे सामने है। डेल्टा मेघवाल राजस्थान के बीकानेर के एक कॉलेज की मेधावी चित्रकार छात्रा थी, जिसे मारकर कॉलेज की पानी की टंकी में डाल दिया गया और बाद में अपराधियों को बचाने के लिए इसे अवैध संबंधों से जोड़कर आत्महया बनाने की कोशिश की गयी है। ये पितृसत्तावादी समाज अपने हवस के लिए महिलाओं को शिकार बनाता है, और जब ये महिलाएं पुरजोर विरोध कर इन अपराधियों का पर्दाफास करती हैं तो ये अपराधी आसानी से  महिलाओं के ऊपर अवैध संबंधों की तोहमत लगा देते हैं, वेश्या साबित कर देते हैं, या चरित्रहीन कहकर उनके अस्तित्व को तोड़ने का प्रयास करते हैं। इतना कह देने भर से से ये सामंती समाज उस पुरुष को तो अपराधी घोश्षित नहीं करता लेकिन वह महिला जो अपने हक के लिए लड़ी, जिसने विरोध किया उसे ही असली अपराधी मानकर समाज से बहिस्कृत कर दिया जाता है। बलात्कार के मामलों में हमें यह स्पष्ट दिखाई देता है। समाज का यह दोहरापन ही महिलाओं की हिम्मत उनके साहस और उनकी प्रतिभा को तोड़ता है। और उन्हें आगे बढ़ने से रोकता है।  अभी हाल ही में उड़िसा के एक कॉलेज में पढने वाली एक दलित छात्रा के यौन उत्पीड़न में एक प्रोफेसर गिरफ्तार हुआ है।
वैसे भी भारत में महिलाओं की साक्षरता दर पुरुषों की साक्षरता दर से काफी कम है। आज जिस तरिके से शिक्षा का नीजिकरण किया जा रहा है उसमें मध्यम वर्ग की बेटियों का भी पढ़ना मुश्किल है। महंगी होती शिक्षा व्यवस्था के कारण ही कई दलित लड़के-लड़कियां प्राथमिक शिक्षा से आगे नही पढ़ पाते हैं आर्थिक चुनौतियां उन्हें उच्च शिक्षा लेने से भी रोक देती है। लेकिन कई छात्र इन आर्थिक चुनोतियों का सामना करते हुए उच्च शिक्षा तक पहुंचते हैं लेकिन ये उच्च शिक्षण संस्थान भी दलित विरोधी ही है। रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या का उदाहरण हमारे सामने है। दलितों में भी उच्च शिक्षा तक केवल कुछ ही छात्र आगे बढ़ पाते हैं, छात्राओं की संख्या तो बहुत ही कम है। जातिगत भेदभावों, आर्थिक कारणों से भी लड़कियां उच्च शिक्षा से दूर हो जाती हैं। अगर कुछ लड़किया उच्च शिक्षा तक  पहुचने में कामयाब भी हो रही हैं तो उन्हें या तो मार दिया जा रहा है या उनका यौनिक शोषण कर उन्हें शिक्षा से वंचित किया जा रहा है। यह शिक्षण संस्थान भी पितृसत्तात्मक ब्राहम्णवादी विचारों से भरे हुए हैं।
आए दिन दलित महिलाओं के साथ छेड़छाड़, जातिगत गाली, बलात्कार, हत्या जैसी सैकड़ों घटनाएं होती हैं। इन घटनाओं के पीछे उच्च जाति के लोगों को हाथ होता है। लेकिन जब कुछ दलित महिलाएं इन घटनाओं की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज कराने के लिए जाती हैं तो पुलिस इन घटनाओं की शिकायत दर्ज करने के बजाय उन्हें डरा-धमकाकर भगा देती है। 1 या 2 केस अगर दर्ज हो भी जाए तो न्यायालय से अपराधी बड़ी आसानी से छूट जाते हैं। यह केवल पितृसत्तात्मक ब्राहामणवादी समाज का ही नहीं बल्कि हमारे देश का न्यायतंत्र वह उसकी संस्थानों के चरित्र को भी उजागर करता है। दूसरी तरफ अगर ये दलित महिलाएं इन घटनाओं के अपराधियों का विरोध करती है तो उन्हें जिंदा जला डालने, एसिड फेंकने, गोबर खिलाने जैसी क्रूर घटनाएं भी सामने रही हैं।
देश की आजादी के 67 सालों बाद भी महिलाओं की स्थिति में कोई खास फर्क नहीं आया है। दलित महिलाओं की स्थिति तो और भी ज्यादा खराब हुई है। देश के अलग-अलग भागों में हमें दलित उत्पीड़न की घटनाएं आए दिन सुनाई देती हैं। नेशनल क्राईम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2014 में जारी आंकड़े के मुताबिक़ झारखंड में 2012 से 2014 के बीच 127 महिलाओं की हत्या डायन बताकर कर दी गई.  इस रेकॉर्ड के अनुसार मध्य प्रदेश महिलाओ पर अत्याचार के मामले मे लगातार कई सालो से आगे रहा है। ऐसी ही एक घटना मध्य प्रदेश के कुवारपुर गाँव की है। जहां कुछ गुंडों ने एक दलित महिला को गोबर खाने के लिए मजबूर किया क्योंकि वह गाँव की उप सरपंच चुनी गई थी! एक दलित महिला का उप सरपंच चुना जाना सवर्ण, संपन्न समाज को पसंद नहीं आया और कुसुम को गोबर खाने के लिए मजबूर किया गया।
महिला सशक्तिकरण की बात करने वाली ये सरकारें महिलाओं को दशकों से छलती आई हैं। वे महिलाओं को चुनाव के समय कुछ सीटें देकर  महिला शक्तिकरण की बात करती हैं। लेकिन लंबे समय से लटका महिला आरक्षण विधेयक (33 प्रतिशत) पारित करना इनके पितृसत्तात्मक और सामंतवादी चेहरे को बेनकाब करता है।
आज लगातार दलित महिलाओं की हत्याएं हो रही है, बलात्कार हो रहे हैं। वह बहुत ही चिंतनीय और निंदनीय हैं। समाज के प्रगतिशील तबको, जनवादी संगठनों, सामाजिक सरोकार रखने वालो लोगों ने जिस एकजुटता से रोहित वेमुला की लड़ाई की मशाल को थामे रखा है, इस लड़ाई के साथ ही हमें इन तमाम दलित महिलाओं की लड़ाई को भी आगे बढ़ाना होगा और न्याय दिलाना होगा |

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