Thursday, 24 September 2015

सुनो , शहंशाह सुनो !

 आह्वान द्वारा आयोजित १३ सितम्बर २०१५   को  कविता पाठ में सुशील कुसुमाकर  द्वारा पढ़ी गयी कविता..........

सुनो , शहंशाह सुनो !
सदियों से शहंशाहों ने तख़्त  -ओ- ताज के लिए
लड़ीं  लड़ाइयाँ
फूँके घर / खेत- खलिहान
जलाए  मुहल्ले
किया क़त्ल -ए -आम
और आपस में लड़ाया हमें ही
राम रहीम के नाम पर।
पिछले शहंशाहों ने ढाए हम पर जुल्म - ओ - सितम
और बाँट दिया हमें जाति -धर्म के खानों में,
इसके बावजूद-
हमीं लड़े विदेशियों से
तराई में/ पानीपत में / पलासी में / बक्सर में
उनके साथ कंधे से कन्धा मिलाकर
अपनी ज़मीन / अपने आसमान / और वजूद के लिए।
सुनो शहंशाह - ए - हिन्द !
हमने तुम्हें बिठाया तख़्त पे
और सौंप दिया तुम्हारे हाथों में अपना मुस्तक़बिल 
जानते हुहे भी तुम्हारा इतिहास....।
इसलिए कि -
तुमने हमसे किया वादा
दिलाया भरोसा
कि - पिछले शहंशाहों की तरह नहीं दिखाएंगे केवल सब्ज़बाग,
अपने दरबार के तबारेदारों से  
हमारे सपनों को पूरा करने की केवल मुनादी नहीं करवाओगे।
तुम दूर करोगे -
हमारे दुःख -दर्द
हमारी बेकारी / गरीबी;
नहीं डालोगे हमें बेवजह कैदख़ाने में
नहीं बेचोगे विदेशियों के हाथों -
हमारी ज़मीन
हमारा आसमान।
तुम लड़ोगे हमेशा
हमारे वजूद और सपनों के लिए !

शहंशाह-ए -हिन्द ,सुनो!
सालों गुजर गए
पर अब तक तुमने भी पूरे नहीं किए अपने वादे ,
हाँ ! तुम्हारे वज़ीर ,दरबारी ,ताबेदार और सियासत के प्यादे
पहले से भी ज्यादा और  हो  गए अमीर;
और हर तरफ़ करवा रहे केवल मुनादी
कि - ' शहंशाह के राज में सब अच्छा '
जबकि हम जीने को मजबूर गरीबी और बेहाली में
शहर की सड़कों  पर फिरते रोज़  बेकार ……
आज भी उजाड़े  जाते तुम्हारे कोतवाल-
हमारे घर/ मुहल्ले
और बात - बे - बात जबरन भेज देते शलाखों के पीछे।
तुम्हरे दरबारी और वज़ीर हमें बाँटने पर उतारु -
राम और रहीम के नाम पे।


सुनो ! शहंशाह -ए - हिन्द ,
तुम्हारे दरबारियों और कोतवाल के शह पर दिन-ब -दिन
बेचीं  जा रही विदेशियों को- हमारी ज़मीन ,
बेंचा जा रहा- हमारा आसमान !
और यदि हम करते विरोध ,
तो तुम्हारे दरबार के प्यादे और कोतवाल  काट देते -
हमारे हाथ / हमारे पैर
या  फिर डाल देते हमें तहख़ाने में।
शहंशाह -ए -हिन्द
आज भी हम जीने को मजबूर बेबस और लाचार
मगर तुम ख़ामोश क्यों ....?

शहंशाह -ए -हिन्द  सुनो !!
पिछले शँहशाहों की तरह तुम्हें भी 
हमारा तुम्हारे दरबार में आकर हमारा इस तरह से आवाज़ उठाना पसंद नहीं  आवाज़ से 
इसलिए की तुम्हें मालूम है 
हमने अब तक कितने शँहशाहों से छीना तख़्त -ओ -ताज 

केवल अपनी आवाज़ की ताकत से।
हम यह भी जानते हैं कि 
अगर हमारी आवाज़ तुम्हारे क़िले या दरबार तक पहुँचेगी 
तो हम या तो क़ैद कर लिए जाएंगे,
नहीं तो सिपहसालारों के या तुम्हारे किसी ताबेदार के 
या फिर किसी मुखबिर के हाथों 
मार दिए जाएंगे। 
और फिर फेंक दी जायेगी  लाश 
रियासत की किसी नदी में 
या चिनवा दी जाएगी किसी मीनार की दीवार में ,
और फिर तुम्हारे सिपहसालार ही बहुत ख़ूबसूरती से बदल देगें 
वक़्त के साथ भूल जाओगे  तुमने ही करवाया था हमारा  क़त्ल 
सिर्फ़ बचाने के लिए अपना तख़्त-ओ -ताज !! 
                                                          


                                                           सुशील कुसुमाकर    










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