Sunday 18 October 2015

आलोचकों से मैं क्या चाहता हूँ

- लू शुन

दो या तीन साल पहले, सामयिक पत्रिकाएँ चन्द मौलिक रचनाएँ (अगर हम उन्हें वैसा कहें) तथा अनुवाद के अलावा साहित्य के नाम पर और कुछ नहीं छापती थीं। इसीलिए पाठकों ने आलोचकों की ज़रूरत महसूस की थी। अब आलोचक आ गये हैं, और वास्तव में दिन-ब-दिन उनकी संख्या बढ़ रही है। 

हमारे साहित्य के अधकचरेपन को देखते हुए आलोचकों की यह महानता है कि कला की शिखा को  जारी रखने के लिए उनमें गुण तलाशते हैं। हमारे लेखक और अधिक गहरी रचनाएँ देंगे इस उम्मीद से वे उनकी आधुनिक कृतियों के छिछलेपन से दुखी होते हैं और कहीं आधुनिक लेखक अधिक बहक न जाएँ इसलिए उनमें ख़ून वह आँसू की कमी देखते हैं। हालंाकि यह ढोंग लग सकता है, मगर वास्तव में यह साहित्य के प्रति उनका गहरा लगाव दर्शाता है, और इसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए।

मगर और भी कुछ लोग हैं जो ‘‘पश्चिम’’ के दो एक पुराने साहित्यिक आलोचना ग्रंथ पर निर्भर रहते हैं, वे पुराने पण्डिताऊ कूड़ा करकट को आगे लाते हैं, या चीन के चन्द परम्परागत ‘‘सत्य’’ के प्रति  ध्यान आकर्षित करते हैं तथा शिक्षित समाज पर अपनी धौंस जमाते हैं। ऐसे लोग निश्चित तौर पर अपने आलोचकों के प्राधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं। एक आसान अनगढ़ उपमा दी जाए। अगर कोई रसोईया खाना पकाता है, और किसी को उसमें खामी नजर आती है, तो वह अवश्य ही आलोचक के सामने पँहसुल और कड़ाही फेंककर नहीं कहेगाः ‘‘लीजिए, इससे बेहतर पकाकर दिखाइए तो सही।’’ मगर उसे यह उम्मीद करने का हक है कि जो व्यक्ति उसका खाना चखे उसे खाने में अरुचि न हो, और वह शराब के नशे में न हो या बुखार से बुरी तरह पीडि़त न हो जिससे कि उसके जीभ का जायका ही बिगड़ा हो। 

आलोचकों से मैं और भी कम माँग करता हूँ। मैं ऐसी उम्मीद करने का साहस नहीं रखता कि दूसरे की चीड़फाड़ कर उन पर राय देने से पहले अपने बारे में देखेंगे कहीं वे छिछले नीच या भ्रान्त तो नहीं हैं। वह बहुत ज़्यादा माँग करना हो जायेगा।

 मैं महज इतना ही उम्मीद करूँगा कि वे थोडे़ साधारण ज्ञान का परिचय देंगे। उदाहरण के तौर पर, उन्हें नग्नता तथा अश्लील साहित्य में, चुम्बन तथा संभोग में, शव परीक्षा तथा शवों के अंगच्छेद, में शिक्षा के लिए विदेश यात्रा तथा ‘‘वहशियों को देश निकाला’’ में, बाँस के ऊंखुए तथा बाँस में, एक बिल्ली तथा चूहे में, बाघ और बछड़े के बीच के फर्क को जानना चाहिए।

 आलोचक अवश्य ही इंग्लैण्ड, अमरीका के किसी प्राचीन पण्डित पर अपना तर्क आधारित करने के लिए मुक्त हैं, मगर मैं उम्मीद करता हूँ कि वे याद रखेंगे कि दुनिया में और भी देश हैं! मगर वे चाहें तो ताॅलस्ताय का तिरस्कार कर सकते हैं, मैं उम्मीद करूँगा कि पहले वे उन्हें जानें, उनकी किताब पढ़ें। इसके अलावा ऐसे भी आलोचक हैं जो अनुवाद की आलोचना करते हुए उसे श्रम के अपचय के तौर पर घोषित करते हैं और उस अनुवादक को मौलिक रचना लिखने की कोशिश करने के लिए कहते हैं।

 यह मान लिया जा सकता है कि एक लेखक का पेशा कितना सम्मानजनक है यह अनुवादक को पता है, फिर वे भी वे अनुवाद के काम में जुटे रहते हैं, क्योंकि यही वे कर सकते हैं, या अनुवाद करने के काम को वे अधिक पसंद करते हैं। लिहाजा अपने काम में ध्यान देने के बजाए आलोचक लोग जब तरह-तरह के प्रस्ताव देते हैं तो वे अपने अधिकार की सीमा को लाँघते हैं। क्योंकि इस तरह के बयान सुझाव हैं, या उपदेश हैं, लेकिन आलोचना नहीं है। फिर रसोइया के उदाहरण पर वापस लौटा जाएः जो भी खाना चख रहे हैं, खुशबू के बारे में वे क्या सोचते हैं उन्हें यह बताना चाहिए। उसके बदले, अगर वे रसोइए को दर्जी या राज न बनने के लिए फटकारते हैं, तो वह रसोइया चाहे कितना भी बेवकूफ क्यों न हो, वह अवश्य ही कहेगा, ‘‘जनाब, आप बहुत ही शरीफ हैं।’’ ¨¨¨












 'भोर' पत्रिका के सोजन्य से

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