Monday 19 October 2015

''प्रतिरोध की संस्कृति और लोककला'' विषय पर संवाद का आयोजन …

 दिनांक १८ अक्टूबर २०१५ 
 समय :३ बजे
 स्थान : टेफ़्लास, जेनेयू  ,नयी दिल्ली 


                                   
१८ अक्टूबर (रविवार) को 'आह्वान' एक जनवादी सांस्कृतिक मुहिम  की ओर से प्रतिरोध कि संस्कृति और लोककला विषय पर एक संवाद का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की मुख्य वक्ता देविका रही,जिन्होने अभी हाल ही में वियना के लोकनृत्य पर अपना लघुशोध प्रबंध पूरा किया है । कार्यक्रम का संचालन सौरभ कुमार ने संगठन के दृष्टिकोण और पूर्व कार्यक्रमो का संक्षिप्त ब्यौरा देते हुए किया। कार्यक्रम की वक्ता देविका ने अपनी बात रखते हुए  बताया कि  कैसे वर्तमान में संंस्कृति दो रूपों में दिखायी पड़ रही है  एक क्लासिकल और दूसरा फोक। एक ओर  कथकली, कथा जैसी क्लासिकल  कलाओं के सम्पूर्ण संरचना ही विशेष वर्गों तक सीमित होने के साथ -साथ अपने संस्कृतनिष्ठ भाषा, प्रस्तुति के स्थान की बाध्यता, भारी भरकम वाद्ययंत्रों का प्रयोग व गायकों और कलाकारों के पारम्परिक शैली को अपनाकर जातीय -वर्गीय असमानता को अभिव्यक्त करता है वही भूरा (१९४० में तेलंगाना में प्रचलित लोककथा) जैसी लोक कथाएं जनता की समस्याओं को रखते हुए उनके के संघर्ष के साथ खड़ी होती है और खुले तौर पर क्लासिकल  कलाओं को चुनौती देती है जिसका प्रयोग विलासराव घोघरे और हबीब तनवीर जैसे लोक कलाकारों ने किया और उनकी रचनाएँ जनता के बीच काफी प्रसिद्ध रहीं। लेकिन हाल के वर्षों में सरकारी संस्थाओं द्वारा  इन लोककलाओं  को हथियाने की संस्कृति तेज हुयी है , संस्थान तक ही सीमित रखकर केवल उसके भाषा और शैली को ही नहीं परिवर्तित किया जा रहा है बल्कि उसके प्रतिरोध के आवाज को भी कुंद किया जा रहा है। फिर चाहे वह हबीब तनवीर के नाट्य समूह हो  या फिर दक्षिण केरला में प्रचलित  तइयम जैसे कलाओं  को खत्म करना हो जो सीधे दमनकारी जमींदारी  प्रथा  पर चोट करता था।
 इस विषय  को आगे बढ़ाते  हुए भोर के संपादक अंजनी कुमार ने कहा, कि  मुग़ल काल में सूफी संतों द्वारा गायी  जाने वाली क़व्वाली इसी प्रकार की  लोक कला  रही  है जिसे मुग़ल काल के बाद नष्ट करने की कोशिश की गयी।  इसके साथ ही कुछ लोक कलाओं को अश्लीलता  के स्वरुप में भी ढाला गया है जिसमे लावनी और भोजपुरी लोकगीतों का प्रमुख स्थान है।  इसी क्रम में विद्या ने लोककला के ऐतिहासिकता पर सवाल उठाया जिस पर देविका ने अपनी बात रखते हुए कहा की लोककला की एक निश्चित समयावधि तय करना मुश्किल है क्योकि एक तो लम्बे समय से यह  मौखिक रूप में विद्यमान रहा है, दूसरी तरफ कई बार प्रभु वर्गों को सीधे चुनौती देने के लिए इसके माध्यम से कमजोर वर्गों  द्वारा भी  मिथक गढ़े जाते है , इसलिए एक आंदोलनकारी के लिए जरुरी है की प्रगतिशील पहलुओं का चयन करें। कार्यक्रम के बीच में एक रोचक बात ओमप्रकाश  कुशवाहा द्वारा भी  रखा गया की लोककला के  स्वरुप पर बात करने से ज्यादा जरुरी है की कला क्या है, कैसे है और यह किस तरह होनी चाहिए इस पर बात हो।  जवाब  में अंजनी कुमार ने कहा की स्वरुप पर बिना बात किये इन सारी चीजों पर बात करना संभव नहीं है क्योकि प्रत्येक स्वरुप की अपनी विशेषता है और रचनाकार व कलाकार की अपनी स्वतंत्रता है की उसका कैसे चुनाव करे।  

 रिपोर्टिंग : प्रीति गुप्ता


   

No comments:

Post a Comment