- रंजीता सरोज,
शोधार्थी, जेएनयू
13 फरवरी
2015 को सुबह ख़बर
मिली। डॉ. तुलसीराम
नहीं रहे। मन
बैचेनी से भर
उठा। वो मेरे
करीबी रिश्तेदारों, दोस्तों
में से नहीं
थे। पर उनसे
जुड़ा हुआ रिश्ता
ऐसा था कि
जो इन रिश्तों
से कहीं अधिक
मजबूत था, जबकि
उनसे अब तक
गिनती की पाँच
मुलाकातें ही हो
पायी थीं।
पहली,
जब वो अचानक
अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला 2012, दिल्ली
में गौतम बुक
सेंटर पर मिल
गए। उनके साथ
उनके डॉक्टर भी
बैठे थे। इससे
पहले मैं उनकी
आत्मकथा का पहला
भाग ‘मुर्दहिया’ पढ़
चुकी थी। मेरा
उनसे पहला परिचय
इस आत्मकथा के
जरिए ही हुआ
था। बाद में
पता चला कि
वे सेंटर फॉर
रशियन एंड सेंट्रल
एशियन स्ट्डीज, स्कूल
ऑफ इन्टरनेशनल स्टडीज,
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में
प्रोफेसर के पद
पर कार्यरत हैं
तथा विश्व कम्युनिस्ट
आन्दोलन व रशियन
मामलों के विशेषज्ञ
हैं।
मैं जिस
तरह मुर्दहिया में
अभिव्यक्त जीवन के
जरिए उनसे जुड़
चुकी थी, क्या
वो मिलने पर
अपने जीवन के
उन सभी पात्रों
से जुड़े हुए
मिलेंगे? जिन्हें वे हमेशा
के लिए छोड़
आए थे।
यकीन
मानिए, वो उन
सभी से जुड़े
हुए मिले। उनसे
मिलना जिंदगी का
सबसे यादगार पल
बन गया। मैंने
खुश होकर अपना
फेसबुक अकाउंट अपडेट कर
दिया ‘प्रिय लेखक
से मुलाकात’।
उनके साथ खींची
गयी चार फोटो
भी लगा दी।
उस दौरान किताब
पर संक्षिप्त चर्चा
हुई। खासकर उस
घटना का जब
गाँव की एक
महिला सुभगिया उनसे
अपने पति बिसराम
की चिट्ठी पढ़वाते
ही दहाड़े मारकर
रोने लगती है,
क्योंकि उसके परदेसी
पति ने चिट्ठी
के अंत में
एक शेर लिखवाया
था, लिखता हूँ
खत खून से
स्याही मत समझना,
मरता हूँ तेरी
याद में जिंदा
मत समझना। उसे लगा
कि उसका पति
मर गया है।
मेरे फेसबुक पोस्ट
पर तुलसीराम सर
की टिप्पणी कुछ
यों थी - मेरी
जिंदगी एक्सीडेंटल घटनाओं से
भरी हुयी है। मुर्दहिया
उसी की उपज
है। मेरे लिए
अनेक भावुक शब्दों
के लिए धन्यवाद।
मुर्दहिया मैंने अपने पापा
को पढ़वाया, वो
भी इसको पढ़कर
उद्वेलित हुए। उनके
अंदर भी कुछ
कर गुजरने का
माद्दा पैदा हो
गया था। पापा
चाहते थे कि
जब भी इसका
दूसरा भाग आए
तो उन्हें जरूर
भेज दूँ। मुर्दहिया
तुलसी सर के
जन्म से लेकर
आजमगढ़ छोड़ने तक
के जीवनक्रम से
संबंधित हैै। उन्होंने
मुलाकात के दौरान
बताया था कि
दूसरे भाग पर
काम चल रहा
है।
दलित आत्मकथाओं
के बारे में
उनका कहना था
कि वो लिखी
नहीं रोयी जाती
हैं। सच ही
कहा था क्योंकि
उनके अपने जीवन
के अनुभव केवल
उनके अपने न
होकर सभी के
हो चुके थे।
उनके जीवन की
घटनाएँ जहाँ रूलाती
थीं, वहीं उनका
जीवट व्यक्तित्व निराशा
से उबारकर कुछ
कर गुजरने के
लिए प्रेरित करता
था। वहाँ किसी
व्यक्ति विशेष के लिए
नफरत नहीं पैदा
होती थी, बल्कि
उस शोषणकारी समाज
व व्यवस्था के
प्रति नफरत होती
थी जिसने समाज
में गैर-बराबरी
को जायज व
वैधता प्रदान कर
दी है, जिसके
गुलाम दलित ही
नही, सवर्ण भी
हैं।
उनकी आत्मकथा
दलित और गैर-दलित दोनों
में एक राजनैतिक
क्रान्तिकारी भावना पैदा करती
है, इस मायने
में यह दूसरी
दलित आत्मकथाओं से
अलग हो जाती
है। खुद उनका
कहना था कि
दलित आंदोलन एक
सामाजिक आंदोलन है। ब्राह्मण
अगर जातिवादी हो
जाए तो दलित
भी जातिवादी हो
जाए यह गलत
है।
आमतौर पर
जहाँ कुछ दलित
विचारक दलित पक्षधरता
के नाम पर
सवर्णों से नफरत
करते हैं और
उन्हें अपने संघर्ष
में भागीदार नहीं
मानते हैं, वहीं
तुलसीराम इस तरह
के प्रश्नों पर
बुद्ध, चार्वाक, कोशवकम्बली जैसे
लोगों का उदाहरण
पेश करते हैं
कि उन्होंने सवर्ण
होकर वैदिक काल
में जाति व्यवस्था
और वैदिक कर्मकाण्डों
का विरोध किया
था।
वे एक
जीवट किस्म के
इंसान थे, जीवन
में इतने कष्ट
झेलने के बाद
भी उनके लेखन
और व्यवहार में
कहीं भी ‘तिक्तता‘
महसूस नहीं होती
है। जीवन के
कठिन क्षणों में
बुद्ध, कबीर, गालिब व
अन्य की रचनाओं
से प्रेरणा ले
लेते थे। आत्मकथा
में केवल वे
ही नहीं वह
दौर, वह गाँव,
वह शहर, राजनैतिक
राष्ट्रीय व अंतर्राष्टीय
परिदृश्य सब अपनी
पूर्णता में साकार
हो उठते हैं।
वे सही मायनों
में नास्तिक थे,
वह कहते हैं
- ‘यदि मैं ईश्वर
को खदेड़ सकता
हूँ तो इन
जातिवादी मनुष्यों को क्यों
नहीं।’ यह सब
बातें हम जैसे
अनेक युवाओं के
लिए प्रेरणा बन
सकती है जो
आस्तिकता और नास्तिकता
के बीच झूलते
रहते हैं।
उनसे दूसरी मुलाकात जून,
2014 में तब हुई
जब उनकी आत्मकथा
का दूसरा भाग
मणिकर्णिका आ चुका
था। मैं उनकी
दोनों आत्मकथाओं पर
शोध करना चाहती
थी। मैं उन्हें
ढूँढते हुए उनके घर
जेनयू दिल्ली पहुँचीं
तो दरवाजे पर
ताला लगा हुआ
था।
मैंने इंतजार
किया, थोड़ी देर
में उनकी गाड़ी
आकर रूकी। उनकी
पत्नी, बेटी साथ
में थे। मैंने
पास में जाकर
नमस्कार किया और
मिलने की इच्छा
प्रकट की। मुझे
मालुम पड़ा कि
वो अभी-अभी
डायलसिस से लौटे
हैं। उनकी हालत
ठीक नहीं थी,
पत्नी चाहती थीं
कि वह आराम
करें। मैंने बाद
में आने का
कहकर चलना चाहा,
लेकिन डॉ. तुलसी
राम ने कहा
कि ‘अंदर आ
जाओ’।
मुझे
अचानक याद आया,
‘मणिकर्णिका‘ का वह
अंश जब वे
अपने शोध के
सिलसिले में कलकत्ता
के एक प्रोफेसर
के घर गए
थे और उन्होंने
उन्हें यह कहकर
भगा दिया कि
पहले से समय
क्यों नहीं लिया?
और यहाँ वो
इतनी बुरी हालत
में भी मुझसे
मिल रहे थे। उन्होंने मेरे मिलने
का कारण पूछा
और मुझे अगली
बार मिलने का
समय दिया। साथ
ही उन्होंने शोध
से संबंधित सामग्री
देने का आश्वासन
दिया।
जब उनसे
तीसरी बार मिलने
गयी तो उन्होंने
मुझे कहा तुम
वही हो न
जो एक बार
पुस्तक मेले में
मिली थी। उनकी
याद्दाश्त जबरदस्त थी। उनके
नजदीक रहने वालों
का कहना है
कि वे चलते
फिरते एनसाइक्लोपीडिया थे।
उनकी आत्मकथा के
दोनों भाग पढ़ते
हुए यह बात
सच ही साबित
होती है कि
कैसे उन्हें बचपन
के जोगी बाबा
के समय-समय
पर गाए गीत,
फेरू काका के
गीत, मजदूरिनों के
पूर और घर्रा
के दौरान गाये
जाने वाले लोकगीत,
धोबिया नाच के
गीत, चुड़िहारिन के
कजरी के गीत,
बिरहा, होली, मटमंगरा, भांड
मंडली के सामाजिक
गीत, कम्युनिस्ट पार्टी
के गीत, नर्तकी
के गीत, मछली
बेचने वालों के
गीत, बाइस्कोप जैसे
कितने ही गीत
मुँहजबानी याद थे।
जब मैं उनके
सेंटर स्कूल ऑफ
इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू में
उनसे मिली। तब
यह मुलाकात शोध से
संबंधित प्रश्नों पर केंद्रित
रहा।
आत्मकथा के
तीसरे भाग से
संबंधित कुछ संस्मरण
सुनाने के साथ
हिदायत दी कि
इसे किसी और
को अभी न
बताना। किताब छपने पर
ही सब जाने
तो अच्छा रहेगा।
पर अफसोस वह
भाग आ न सका। दूसरा
भाग जो बनारस
तक सीमित था,
उनके वहाँ से
जेएनयू आकर शिक्षा
ग्रहण करने और
फिर यही प्रोफेसर
बनने, बाहर के
देशों की यात्राएँ
ऐसी तमाम बातें
जो तीसरे भाग
में होतीं। सब
रह गयीं।
उनके
जीवन के दो
महत्वपूर्ण हिस्से आ चुके
थे। अब तीसरा
हिस्सा कौन पूरा
करेगा? काश कि
वे खुद पूरा
करके गए होेते!
मैं आज भी
सोचती हूँ कि
वो होते तो
उन सवालों के
जवाब हमेशा के
लिए अधूरे न
होते जिनके जवाब
सिर्फ उनके पास
ही थे। क्या
मुर्दहिया और मणिकर्णिका
उन सवालों के
जवाब दे पाएँगे?
जिनके इर्द- गिर्द
हमारा दलित समाज
असूचित खत्म होता
रहा है।
उनसे
पाँचवी और आखिरी
मुलाकात उनके घर
पर श्रद्धांजली सभा
में हुई। जिंदगी
भर ‘दुर्मुख’ बना
रहने वाला, कड़वी
सच्चाइयों को बेबाक
बयान करने वाला
अब गहरी नींद
में सो चुका
था, उनके पास
और साथ सामूहिक
स्वर गूँज रहा
था, बुद्धम शरणम्
गच्छामि...डॉ. तुलसीराम
को लाल सलाम!
उनकी इस यात्रा
में ‘दुर्मुख’ खुद
चुप थे लेकिन
लोग बोल रहे
थे, पूरी बेबाकी
से नारे लगा
रहे थे।
डॉ. तुलसीराम
मेरे
पास उनकी चंद
मुलाकातें थी और
उनकी लिखी हुई
किताब थी और
एक प्रेरणा भी
कि दुर्मुख होना
ही समाज को
बदलने की अनिवार्य
शर्त है और
सर्जना का अजस्र
स्त्रोत भी। इसी
संकल्प के साथ
मैं उनसे अंतिम
मुलाकात के बाद
लौट आई।
‘भोर’ पत्रिका (अंंक ४) के सौजन्य से
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