Thursday, 1 October 2015

युवा कवि नवीन और निकिता आज़ाद की कविताएं




--- painting by zainul abedin


कब तक
आखिर कब तक सहना होगा ये अन्नाय,
कब तक यूं ही भेंट चढती रहेंगी बेटियाँ हमारी,
कब तक दादी मेरी खामोश रहेगी,
कब तक अपने दर्द को छुपाए बैठेगी हिड़मे,
कब तक शरुथी की बाजु गमगीन रहेगी,
कब तक मेरी बहन छत से डरेगी,
कब तक पोशाकें ही मार खाएँगी,
कब तक मेरी माँ मुझे सिंधूर देगी,
कब तक मेरा पति मुझे झुकी नज़रें देगा,
कब तक दिन में आँखे बंद करना ही रात रहेगी,
कब तक कच्चे घड़े पर लाल रंग चढ़ता रहेगा,
कब वो दिन आएगा जब हम आग में तप कर लाल होंगी,
और उखाड़ फेंकेगे उस दस्तूर को,
जो हमें दफ्ना देता हो कोख में,
जो हमें ज़ज़ीरें देता रहा हो जन्म के तोह्फे में,
जो हमें आधी जली रोटी देता रहा हो माहवारी में,
जो रोज़ तवे की कालख की तरह पोत देता हो हमारे मुँह पर इज़्ज़त नाम का धब्बा,
जो दिन दिहाड़े हमारी एक साल की बेटी के अंगों को निचोड़ देता हो,
जो रोज़ कॉलज जाती हमारी बहन को अपनी आँखो की हैवानीयत दिखाता हो,
आखिर कब जागेगी वो जो अपने सर पे उठाए है घर परिवार का टोकरा,
जो अपनी बाँहो में लिए है चुल्हा और किताबें,
जो अपने जिस्म पर लिए हैं तेज़ाब के गहरे दाग,
जो अपनी टाँगो में छुपाए बैठी है हैवानीयत समाज की.
आखिर कब मैं, मेरी माँ, मेरी बहन, मेरी बेटी, मेरी दोस्त,
सब उन्हीं टाँगो से ध्वस्त कर देंगे इस समाज की बुनियाद,
कब माहवारी का खून हमारी रगों में दौड़ता हुआ क्रोध बनेगा,
और गटर भर जाएँगे उनके रक्त से,
जो हमें ज़िंदा मारने के ज़िम्मेदार हैं,
कब वो सुबह होगी जहाँ हम आज़ाद हवा का लुत्फ उठाएँगी,
जब झोंपड़ी में रहती मेरी बहन ए.सी कमरे में बैठ अपने हाथ के गुलाबजामुन खाएगी,
और जश्न मनाएगी ऐसे समाज का,
जहाँ उसे इन्सान माना जाता हो.

-----निकिता आज़ाद


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----painting by zainul abedin



''कुल्हड़'' 


 अपने देश की मिटटी से ,अपने लोगों के हाथों बना
एक माटी का कुल्हड़ ,
जिसे लोग कभी होठों से लगाते थे
और,
मिट्टी की सौंधी सुगंध पाते थे
धीरे -धीरे ,
ये माटी का कुल्हड़, रिश्तों की तरह
भारी लगने लगा
और एक दिन ऐसा भी आया
जब
पांच ग्राम के फाइबर के डिस्पोजल ने
पचास ग्राम के माटी के कुल्हड़ को
विस्थापित कर दिया /

------नवीन सिंह



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