शहीद-ए-आजम भगतसिंह का नाम शहीदों में सबसे प्रमुख रूप से लिया जाता है। 28 सितम्बर
(1907) के दिन ही भगतसिंह का जन्म हुआ था। आजादी के 67 सालों बाद भी भगतसिंह के विचार प्रासंगिक हैं। उनके विचारों की ताजगी आज भी युवाओं को जोश से भर देती है। भगतसिंह एक देशभक्त नेता के साथ-साथ एक बेहतरीन रचनाकार भी थे। हम उनके जन्म दिन पर उन्हें श्रंद्धांजलि देते हुए उनकी कविताओं द्वारा उन्हें याद कर रहे हैं-
उसे यह फ़िक्र है हरदम
नया तर्जे.जफ़ा क्या है
हमें यह शौक देखें
सितम की इंतहा क्या है
दहर से क्यों खफ़ा रहे
चर्ख का क्यों गिला करें
सारा जहाँ अदू सही
आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ
ए.अहले.महफ़िल
चरागे सहर हूँ
बुझा चाहता हूँ।
मेरी हवाओं में रहेगी
ख़यालों की बिजली
यह मुश्त.ए.ख़ाक है फ़ानी
रहेए रहे न रहे।
नया तर्जे.जफ़ा क्या है
हमें यह शौक देखें
सितम की इंतहा क्या है
दहर से क्यों खफ़ा रहे
चर्ख का क्यों गिला करें
सारा जहाँ अदू सही
आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमान हूँ
ए.अहले.महफ़िल
चरागे सहर हूँ
बुझा चाहता हूँ।
मेरी हवाओं में रहेगी
ख़यालों की बिजली
यह मुश्त.ए.ख़ाक है फ़ानी
रहेए रहे न रहे।
युवा कवि भावना बेदी ने अपनी यह कविता संस्कृतिकर्मी कॉ. हेम मिश्रा पर लिखी है।
कॉमरेड
हर रोज तुम्हें उगते हुए देखती हूं
तुम उग रहे हो
कुछ तुम में उगता है।
और कुछ उस उगते हुए को देखकर उगता है
बन्दीग्रह की यातना में
न थकने वाली तुम्हारी देह से
झरता है एक झरना
अटूट विश्वास का
उर्जा वहीं से उगती है
सूरज लेता है वहीं से/कुछ गर्माहट उधार
व पूरब से नहीं/तुम्हारी आंख की कोर से उगता है।
क्रान्ति की महक को हवाओं में बिखेरता हुआ
संघर्षरत उम्मीदों को नई पांखे देता हुआ।
युवा साथियों को नई उम्मीदें देता हुआ
भोर की एक नई शक्ल लेता हुआ
हर रोज तुम्हें उगते हुए देखती हूं
ठण्डी बेडियों और फौलादी जिस्म के बीचों-बीच
तुम्हारी सांस से उगती है एक कविता
तुम्हारी देह को गीत में बदलती हुई
उसी गीत की तर्ज पर हम अपनी शामे गुजारेगें
रातों में भी उसे गुनगुनाते हुए
एक दिन सुबह हो जाएगी।
हर रोज तुम्हें उगते हुए देखती हूं
तुम उग रहे हो
कुछ तुम में उगता है।
और कुछ उस उगते हुए को देखकर उगता है
बन्दीग्रह की यातना में
न थकने वाली तुम्हारी देह से
झरता है एक झरना
अटूट विश्वास का
उर्जा वहीं से उगती है
सूरज लेता है वहीं से/कुछ गर्माहट उधार
व पूरब से नहीं/तुम्हारी आंख की कोर से उगता है।
क्रान्ति की महक को हवाओं में बिखेरता हुआ
संघर्षरत उम्मीदों को नई पांखे देता हुआ।
युवा साथियों को नई उम्मीदें देता हुआ
भोर की एक नई शक्ल लेता हुआ
हर रोज तुम्हें उगते हुए देखती हूं
ठण्डी बेडियों और फौलादी जिस्म के बीचों-बीच
तुम्हारी सांस से उगती है एक कविता
तुम्हारी देह को गीत में बदलती हुई
उसी गीत की तर्ज पर हम अपनी शामे गुजारेगें
रातों में भी उसे गुनगुनाते हुए
एक दिन सुबह हो जाएगी।
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